पानी का मुद्दा हाथ से निकला नहीं
संवाद
पानी का
मुद्दा हाथ से निकला नहीं है
जल प्रबंधन
विशेषज्ञ राजेंद्र सिंह
से
प्रशांत कुमार दुबे की
बातचीत
लोग उन्हें ‘पानी वाले बाबा ’ के नाम से जानते
हैं.
राजस्थान के जो इलाके सरकारी फाइलों में डार्क जोन घोषित थे, वहां 80 के दशक में
पानी को लेकर राजेंद्र सिंह ने काम करना शुरु किया- अकेले. फिर गांव के लोग जुड़ने
लगे. तरुण भारत संघ बना. जल संरचना पर काम बढ़ता गया. गांव-गांव में जोहड़ बनने लगे
और बंजर धरती पर हरी फसलें लहलहाने लगी.
दुनिया भर के लोगों ने इस काम को सराहा. 2001 में राजेंद्र सिंह को रमन मैगसेसे
पुरस्कार से भी नवाजा गया. पिछले दिनों जब राजेंद्र सिंह भोपाल पहुंचे तो उनसे यह
बातचीत की गई.
•
आपको इस काम की प्रेरणा कैसे मिली ?
जल संरचनाओं को संरक्षित करना, पुनर्जीवित करना, उसका
पुनर्निर्माण करना यह बात मैंने राजस्थान गोपालपुर गांव के अनपढ़ ग्रामीणों से 1985
में सीखी. मैंने उन्हें स्वस्फूर्त व नि:स्वार्थ भाव से संरक्षण व संवर्द्धन का काम
करते देखा. मैंने उनसे ही सीखा, उन्हीं से प्रेरणा ली और बस जुट गया काम में. अभी
भी सीख रहा हूं और कर रहा हूं प्रयास.
•
जल, जंगल और जमीन तीनों ही आज के
ज्वलंत सवाल हैं, लेकिन आपकी प्राथमिकता का क्रम क्या है ?
जल, जंगल और जमीन तीनों ही निश्चित रूप से ज्वलंत सवाल हैं.
सभी पूरक हैं और सभी प्राथमिकता में हैं. जंगल के बिना नदी के कोई मायने नहीं हैं.
आज से लगभग 200 वर्ष पूर्व जमीन का मामला सबसे ऊपर आता था, अभी जल के मामले को
तवज्जो दी जा रही है. हवा, पानी को लेकर मन में कभी भी यह बात नहीं आई कि ये भी
बिकेंगे! लेकिन आज पानी बिकने लगा. हवा बिकने लगी. यह तो व्यक्ति विशेष के जीवन के
अधिकारों का सवाल है.
विश्व बैंक आदि के दस्तावेजों में यह कहा जाने लगा है कि पानी अब किसी का अधिकार नहीं
रहा, यह एक वस्तु है जिसका सटीक प्रबंधन होना चाहिये. जब पानी को वस्तु माना जायेगा
तो स्वभावत: इसमें मुनाफे की बात आयेगी. और जब व्यापार शब्द जुड़ जाता है तो फिर आम
आदमी इस प्रतिस्पर्धा में पीछे छूटने लगता है.
पानी पर सभी का समान हक है. यदि धधकते ब्रह्मांड को बचाना है, भूखे मरते इंसान को
बचाना है, मौसम के बदलते मिजाज को सम्हालना है तो पानी बचाना ही होगा.
•
विगत दो दशकों में विकास एक सवालिया निशान बन कर रह गया है ?
यह बात सही है कि विकास एक ज्वलंत सवाल बन कर सामने आया है.
क्योंकि यह समझ में नहीं आ रहा है कि किसकी कीमत पर विकास...? बड़े बांधों के कारण
विस्थापन हो रहा है और फिर शहरी क्षेत्रों में विस्थापन. विस्थापन से विकृति आयेगी
और फिर विनाश होगा. मेरी नज़र में विकास एक दीर्घकालिक प्रक्रिया है और इस पर
शाश्वत तरीके से विचार कर पूर्ण नियोजन करते हुए जनसहभागिता से मूर्त रुप दिया जा
सकता है.
•
भूमंडलीकरण के इस दौर में पानी के नाम पर किये
जा रहे सुधारों को आप क्या कहेंगे ?
भूमंडलीकरण के इस दौर में केवल पानी ही नहीं बल्कि हर चीज में
पहले समस्या को जस्टिफॉय करते हैं. फिर रिफॉर्म कर नई समस्या को जन्म देते हैं. पानी
सुधार के नाम पर 1991 के बाद से बाजार में अनुकूल वातावरण बनाने की साजिशें जारी
हैं. पानी के नाम पर होने वाले ये सुधार तो गड़बड़ हैं. ये इन सुधारों की करतूत ही है
कि पानी अब बिक रहा हैं .
•
नर्मदा को बचाने के लिए मध्यप्रदेश में नर्मदा
समग्र जैसे कुछ प्रयास चल रहे हैं. क्या ऐसे प्रयास काफी हैं ...?
नर्मदा समग्र बहुत ही सतही काम है. हेलीकॉप्टर में बैठकर
नर्मदा का खूबसूरत नजारा तो दिख सकता है लेकिन इस तरह से अध्ययन नहीं किया जा सकता.
नर्मदा पर जितना पैसा खर्च हो रहा है, उतने में कई नदियों का कायाकल्प हो सकता है.
मैं स्वयं उस कार्यक्रम का हिस्सा रहा हूं, इसलिए मैं यह कह सकता हूं. वह निहायत
सरकारी तरह का काम है, जिसमें जनसहभागिता नगण्य है.
•
नर्मदा नदी के जल को भोपाल लाने की कवायद को
आप किस तरह देखते हैं ?
देखिये यमुना के शहर दिल्ली में गंगा का पानी लाने से समस्या
का समाधान नहीं हुआ. ज्यादा पानी लाने से समस्या का समाधान नहीं होगा, बल्कि समस्या
और बढ़ेगी. एक नदी को खत्म करके उसका जल दूसरी जगह लाना सबसे बड़ा अपराध है. समाज को
अपने पानी का सरंक्षण एवं संवर्द्धन करना होगा. समस्या का समाधान नदियों का पानी
धारा के विपरीत या किसी और शहर में ले जाने से नहीं होगा बल्कि उचित प्रबंधन से होगा.
समाज और सरकार को जल संरक्षण की अवधारणा को समझना होगा और सहेजना होगा.
•
मध्यप्रदेश में नदियों की क्या स्थिति है ?
दो टूक शब्दों में कहूं तो मध्यप्रदेश में एक भी नदी ऐसी नहीं
है कि जिसका जल आचमन किया जा सके. बेहद दर्दनाक स्थिति है प्रदेश में नदियों की.
प्रदेश की कोई भी नदी ऐसी नहीं है कि जो शहर के पास से गुजरे और नाला न हो जाये. जो
प्रदेश अपनी राजधानी की बड़ी झील का संरक्षण न कर पाये, उससे क्या उम्मीद की जा सकती
है ?
•
भोपाल में बड़ी झील के संरक्षण को लेकर जो जन
अभियान छिड़ा है, उसे आप किस तरह देखते हैं ?
यह प्रशंसनीय है लेकिन बहुत ही सतही काम है क्योंकि वहां पर
लोग प्रचार के नजरिये से ज्यादा पहुंच रहे हैं. लोगों को सवाल यह भी खड़ा करना चाहिये
कि एक बड़ी परियोजना जो कि इसी काम के लिये थी, उसका क्या हुआ ? जो 250 करोड़ रूपये
खर्च किये जा चुके हैं और जिनका कुछ भी प्रभाव कहीं नहीं दिखता है.
कोई मुझे बता रहा था कि आज भी बड़ी झील में 27 नाले मिल रहे हैं. तो एक ओर तो हम
सफाई में लगे हैं और दूसरी ओर नालों का मिलना जारी है तो यह क्या है ? मेरी नजर में
यह यह पैच वर्क से ज्यादा कुछ नहीं. यह सरकारी जनअभियान है.
•
तो ऐसे कौन से उदाहरण हैं जहां पर वास्तविक
जनसहभागिता रही और लोगों ने अपनी नदी जल संरचनाओं को बचाया ?
ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जिनमें समुदायों ने सामुदायिक सहभागिता
से अपनी नदी, अपने तालाबों, अपनी जल संरचनाओं को बचाया. राजस्थान के जयपुर में
दरियावती नदी, बैंगलोर में अरकावती नदी, नेल्लूर जिले में कुवम नदी और छत्तीसगढ़ में
शिवनाथ नदी आदि के उदाहरण हमारे सामने हैं, जहां जनता ने लड़ाई लड़ी.
•
ऐसा क्यों लगता है कि अभी जनसामान्य पानी की
लड़ाई में आगे नहीं आ रहा है ?
देखिये जीना पहली आवश्यकता है. जो लोग हाशिये पर हैं, वे आज
रोटी के लिये संघर्षरत हैं. आज जरूरत इस बात की है कि जिनके पास घर है, रोटी है वे
लड़ें. कल जब आम आदमी सशक्त होगा तो वो भी इस यज्ञ में अपनी आहूति सुनिश्चित करने
लगेगा. पानी का मुद्दा अभी हाथ से निकला नहीं है.
08.02.2009,
11.59 (GMT+05:30) पर प्रकाशित