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यह नागार्जुन का अपमान

संवाद

 

यह नागार्जुन का अपमान

खगेन्द्र ठाकुर से पुष्पराज की बातचीत 
      

अंधेरा बढ़ता जा रहा था और हम जवान हो रहे थे. तमाम दीप बुझते जा रहे थे. अभी दो दीप जल रहे थे, जिनकी जलती-बुझती लौ से अपनी आँखें रौशन हो रही थी. एक दीप था इप्टा तो दूसरा दीप था जनशक्ति.

खगेंद्र ठाकुर


इप्टा और जनशक्ति के सांस्कृतिक- लोक-संसार में ही खगेन्द्र ठाकुर को पहली बार अपनी आँखों से देखा था. नागार्जुन के बाद बिहार के जिस लेखक ने बिहार के ग्राम्यांचलों, कस्बाई सभाओं में सबसे ज्यादा शिरकत की हो, वे मेरी जानकारी में खगेन्द्र ठाकुर ही हैं. चाहे सुदूर देहात में स्थित किसी हाई स्कूल का वार्षिकोत्सव हो या किसी कॉलेज का स्थापना समारोह या किसी पुस्तकालय में जयंती समारोह, शहादत दिवस या बौद्धिक सेमिनार आयोजित हो, खगेन्द्र ठाकुर हर जाने-अनजाने के आमंत्रण को स्वीकार कर अपने बीज-वक्तव्य से समारोह को गरिमा प्रदान करते रहे हैं. मैंने खगेन्द्र ठाकुर से अब तक कई मुलाकातें की हैं और मैंने हर बार यह जानने की कोशिश की कि इनके भीतर कौन सा ऐसा तत्वबोध मौजूद है कि कम्युनिस्ट पार्टी के राजनीतिक कार्यक्रमों को पहली प्राथमिकता देेते हुए अपनी रचना प्रक्रिया के अनुशासन को साधने में इन्होंने महारत हासिल कर लिया है.


देह धरे को दण्ड, ईश्वर से भेंटवार्ता जैसी व्यंग्य पुस्तकों के साथ तीन कविता संग्रह सहित आलोचना और लेखों की कुल 20-21 पुस्तकें खगेन्द्र ठाकुर की प्रकाशित हो चुकी हैं. कुछ वर्ष पूर्व नागार्जुन का कवि कर्म पुस्तक प्रकाशित हुई थी. नागार्जुन पर केन्द्रित यह महत्वपूर्ण पुस्तक है. इस समय खगेन्द्र जी नवजागरण पर एक पुस्तक रच रहे हैं, इसे छः माह में पूरा कर लेंगे. अभी 9 पुस्तकों की सामग्री खगेन्द्र जी के पास मौजूद है. एक-एक कर सभी पुस्तकें प्रकाशित हो जायें तो अपने सामने से गुजरे हुए पल को इन्होंने उपन्यास की शक्ल में दर्ज करने की योजना बनायी है.

खगेन्द्र ठाकुर जिस कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय कार्यकर्त्ता हैं, उस संगठन का जनाधार बिहार में बहुत कमजोर पड़ चुका है. अगर खगेन्द्र जी की लोकप्रियता संगठन केन्द्रित होती तो जनाधार कमजोर होने से खगेन्द्र जी अप्रसांगिक हो गये होते. लेकिन इनकी लोकप्रियता समयकाल के साथ बढ़ती ही जा रही है. जाहिर है कि छः दशक की राजनीतिक सक्रियता के बावजूद कामरेड खगेन्द्र ठाकुर को लोगबाग राजनेता या नेताजी के रूप में तो नहीं जानते हैं. जाहिर है कि संगठन इनके लिए जनता के दुःख-दर्द से जुड़े रहने का माध्यम है. प्रोफेसर खगेन्द्र ठाकुर, डॉक्टर खगेन्द्र ठाकुर और कॉमरेड खगेन्द्र ठाकुर ने अपने दामन पर कोई दाग तो नहीं लगने दिया. बिहार में वामपंथ के अच्छे दिन भी देखे पर विधायक, सांसद होने का लालच तो नहीं प्रकट किया. बाबा नागार्जुन, रेणु, नामवर सिंह से लेकर हिन्दी के तमाम नामचीन रचनाकारों से निकटता का इस्तेमाल इन्होंने अपने लिए एक पुरस्कार हासिल करने में तो नहीं किया.

खगेन्द्र ठाकुर ने जब जीवन का 75 वर्ष पूरा किया तो बिहार के साहित्यकार बड़ी तादात में खगेन्द्र जी के सम्मान समारोह में पटना में इकट्ठे हुए थे. बरसों से मेरी बैचैनी रही कि उनके भीतर से वे बातें निकाल ली जायें, जो वे बहुत बोलकर भी नहीं बोल पाते हैं. अभी अपने लोकप्रिय लेखक के अर्न्तमुख से बहुत सारी बातें सुनने हैं. इस संवाद में सजग पाठक भी शामिल हो सकते हैं कि अगर कोई बात मुझसे छूट रही हो, तो आप अपनी तरफ से पूछ लीजिए.

अविभाजित बिहार के गोड्डा के एक गाँव में जन्म लेने से लेकर सुल्तानगंज के एक कॉलेज में प्रध्यापकी से होते हुए आलोचक की जीवन-यात्रा का चक्र आप किस तरह महसूस करते हैं?
मेरा गाँव मालिनी गोड्डा से 2 कि॰मी॰ उत्तर है. मेरे पिताजी गोड्डा कोर्ट में मोख्तार थे. प्रैक्ट्सि के लिए वे गोड्डा में रहते थे. पिता का नाम शिवशंकर ठाकुर और माता का नाम अकोला देची था. मैं पिता को काका और माँ को माई कहता था. मुझे आश्चर्य होता था कि मेरे मोख्तार पिता की इज्जत वकीलों से ज्यादा क्यों है? शायद इसकी वजह यह थी ंकि पिताजी शहर में खेल-कूद, सांस्कृतिक आयोजनों के सूत्रधार होते थे. उनके मुवक्लि ज्यादातर मुस्लिम समाज से आते थे. उनके एक मुवक्किल कारू मियां थे. कारू मियां अदब और शोहरत वाले इंसान थे. कारू मियां बरकेस्सा राजकुमारी और कई तरह की कथाऐं सुनाकर मेरे भीतर तड़प पैदा करते रहते थे. उनसे सुनी हुई सौदागरों की कहानियाँ और हिन्दू समाज की दन्तकथाऐं अभी भी याद आती है. माँ पढ़ी-लिखी नहंी थीं. पिताजी मैट्रिक से ज्यादा नहीं पढ़ पाये. 4 भाई, एक बहन वाला परिवार. मेरे दो भाई गुजर चुके हैं. बड़े भई गंगाधर ठाकुर सब-रजिस्ट्रार और अच्छे कवि भी थे. बुद्धिनाथ झा कैरव हमारे इलाके के नामी स्वतंत्रता सेनानी थे. तीन बार विधायक रहे. उन्होंने 1933 ई॰ में अछूतों के जीवन पर ‘‘अछूत कथा’’ काव्य ही लिख दिया. अछूत, उत्सर्ग और हीरा उनका प्रतिष्ठित खण्ड-काव्य है. बालपन में मैं कैरव जी से लगातार प्रभावित होता रहा. कैरव जी कांग्रेसी थे पर उनका सम्पूर्ण जीवन समाज के लिए समर्पित था. उस प्रभाव का ही असर था कि मैंने जीवन में पहली कविता गाँधी की हत्या पर लिखी. धीरे-धीरे स्कूल में निबंध लिखने की आदत लग गयी. मैट्रिक में अपने सहपाठियों के साथ ‘नवजागरण’ पत्रिका निकाली. 1953 ई॰ में 2 रूपये में ‘बलचनवा’ खरीद कर पढ़ा और संयोग से भगवान पुस्तकालय, भागलपुर में नागार्जुन से मुलाकात भी हो गयी. नागार्जुन ने पूछा, ‘‘क्या लिखते हो? भाषा को सड़क पर बिछा दो, आम आदमी की भाषा बना दो.’’ मेरे ऊपर संस्कृतनिष्ठ शिक्षकों का असर था. धीरे-धीरे बाबा और बलचनवा का असर हुआ और मैंने अपने लेखन में सुधार किया. ‘नवजागरण’ का अंक बाबा नागार्जुन को दिया था. बाबा ने चिट्ठी भेजी, जिसे हमलोगों ने ‘नवगजारण’ में छापा. बाबा की चिट्ठी हमारी पूरी जमात के लिए बड़ी उपलब्धि थी. लेकिन ‘नवजागरण’ में बाबा की चिट्ठी छपने से दूसरे तरह की चर्चा भी शुरू हो गयी. लोग पूछने लगे, क्या तुम कम्युनिस्ट हो रहे हो और नन्दलाल परशुराम के हाथ खींच लेने से ‘नवजागरण’ बंद हो गया. थोड़ा बुरा लगा पर हम अपने रास्ते पर चलते रहे. हमारा रास्ता अभी बंद नहीं हुआ था.
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इस समाचार / लेख पर पाठकों की प्रतिक्रियाएँ

 
 

रंजीत [ranjitkoshi1@gmail.com] देवघर - 2015-08-20 14:45:17

 
  यह बातचीत नहीं मुकम्मल दस्तावेज है.सवाल और जवाब में कई महत्वपूर्ण प्रसंगों की जानकारी हुई. आगे जब कभी हमारे जैसे लोग हिंदी साहित्य,हिंदी भाषी क्षेत्र की महत्वपूर्ण घटनाओं और आगामी सवालों से मुठभेड़ करेंगे तो यह बातचीत संदर्भ-सामग्री का काम करेगी. उम्मीद है बातचीत का दूसरा भाग भी सामने आये, जिसमें खगेंद्र जी रास्ता दिखाये. या नहीं तो खुलकर बता दे कि अनसुलझे सवालों के साथ आगे बढ़ रहा यह दौर किस मुकाम की रचना करेगा.  
   
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