कश्मीर, पाकिस्तान और रणनीति
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कश्मीर, पाकिस्तान और रणनीति
एम जे अकबर
ब्रिटिश राज नौकरशाही का शिखर काल था. कोई भी सेना जीत को अक्षुण्ण नहीं रख
सकती, यह तो राज्य के लोकसेवकों की जिम्मेदारी होती है. हर साम्राज्य नौकरशाही की
जागीर बन जाता है. नौकरशाही सत्ता और शक्ति के अकेले स्रोत तथा निरंकुश आजादी को
प्राथमिकता देती है, ताकि उस स्रोत के नाम पर नीति-निर्माण और उन्हें लागू कर सके.
बेशक, नियम होते हैं, और अच्छा अधिकारी व्यवस्था के प्रति ईमानदार भी होता है,
क्योंकि भ्रम उसके काम के लिए अभिशाप होता है और यहीं पर लोकतंत्र थोड़ी समस्या बन
जाता है.
लोकतंत्र की एक इच्छा होती थीः नीतियां निर्वाचित का विशेषाधिकार थीं. नौकरशाह के
पास समस्या समाधान के उपाय के बगैर जिम्मेदारियां थीं. वह अपना बदला भटका कर, विलंब
और टाल-मटोल करके ले सकता था, लेकिन वह मंत्री की जगह नहीं ले सकता था. न ही मंत्री
स्वेच्छाचारी की तरह बर्ताव कर सकता था. अंदरुनी और बाहरी, दोनों स्तरों पर हमेशा
जवाबदेहियां रहती हैं. सिद्धांत में नीति मंत्री से मंत्रिमंडल के बीच सफर करती है
और मंत्रिमंडल तो प्रेरणादायक एकल तान होने के बजाय बेमेल कोरस है.
आखिर, एक नौकरशाह को नीति में बड़े बदलाव की घोषणा के लिए नामांकित कर हम क्या
जताते हैं- ऐसी नीति, जो भारत की सबसे संवेदनशील समस्याओं में से एक, कश्मीर से
जुड़ी है. शुक्रवार को गृह सचिव जी.के. पिल्लई ने मीडिया को आमंत्रित किए गए एक
सेमिनार में बताया कि सरकार की एक वर्ष में घाटी में पैरामिलिट्री फोर्सो में 25
प्रतिशत कटौती और कश्मीरियों को नियंत्रण रेखा पार कर पाक अधिकृत कश्मीर जाने के
लिए एकतरफा, बहु-प्रवेशी, छमाही यात्रा परमिट देने की योजना है.
ध्यान रहे कि भारतीय पासपोर्ट नहीं, खासतौर से डिजाइन किए गए परमिट, जो राष्ट्रीयता
को सवालिया अंधकार में धकेल सकते हैं. चूंकि इसके आगे के लिए पाकिस्तान की ओर से
कोई प्रतिबंध नहीं होंगे, इसलिए यह होगा कि कश्मीर से कोई भी पाकिस्तान जा सकेगा.
कश्मीर की सुरक्षा के लिए मुख्य तौर पर जिम्मेदार सेना प्रमुख, जनरल वी.के. सिंह को
सूचना ही नहीं दी गई कि ऐसा कोई प्रस्ताव लागू होने के कगार पर है.
सामान्यत: ऐसे अहम मोड़ की उद्घोषणा गृहमंत्री पी. चिदंबरम या फिर प्रधानमंत्री डॉ.
मनमोहन सिंह द्वारा होनी चाहिए. बस एक ही कारण से उन्होंने ऐसा नहीं किया. वे एक
अलग दिशा में राज्य के जहाज को मोड़ने से पहले पिल्लई का इस्तेमाल जन और राजनीतिक
अभिमत की हवा जानने के लिए कर रहे थे.
पूछने के लिए एक ही सवाल है और वह निश्चित तौर पर जनरल सिंह के विचारों में घुमड़ा
होगा- आतंकवाद के जुड़वा खतरे, जिनमें से ज्यादातर पाकिस्तान पोषित और प्रेरित है
और पाक सेना के तत्वों द्वारा की जाने वाली घुसपैठों में क्या 25 प्रतिशत कमी आ गई
है? इससे अन्य सवाल उभरते हैं.
यदि पाकिस्तान को लेकर नई नीति संभावित शांति की कपोल कल्पना पर तैर रही है तो भी, अगर एक और मुंबई या करगिल होता है, तो यह यूपीए से एक भीषण कीमत ले लेगी. |
इस नकारात्मकता से सरकार भी नहीं बच पाई है. वर्ष 2010 में हमने एक क्षत-विक्षत
सत्ता तंत्र को चरमराते हुए देखा है. शीर्ष पदों पर बैठे कुछ अधिकारियों ने इसलिए
सब कुछ उगल दिया (ये रहस्योद्घाटन अब नीरा राडिया टेप्स के नाम से मशहूर हैं),
क्योंकि वे राजपथ के लुटेरों के चेहरों पर चिपकी आत्मसंतोष की भावना को पचा नहीं
पाए थे. सिंह सरकार को हिलाकर रख देने वाले खुलासों में विपक्ष की कोई भूमिका न थी.
सरकार के ही एक धड़े ने कॉमनवेल्थ भ्रष्टाचार के ब्योरे मुहैया करा दिए थे.
हमारे पास कौन से प्रमाण हैं कि पाकिस्तान ने भारत के खिलाफ छायायुद्ध की नीतियों
में कोई भी बदलाव कर दिया है? मुंबई आतंकी हमले के पहले तक पिछली गलियों से हो रही
वार्ताओं के जरिए भारत-पाक रिश्ते विकसित हो रहे थे. दिल्ली की मांग थी कि इस भीषण
संहार के लाहौर में आराम से बैठे प्रायोजकों की जवाबदेही तय की जाए. पाकिस्तान ने
विचार करने से ही इंकार कर दिया. उसने कुछ भी नहीं किया है.
इसलिए क्या हमें यह निष्कर्ष निकाल लेना चाहिए कि यूपीए सरकार ने मुंबई को भूल जाने
और पाक के साथ मुंबई हमले से पहले के समीकरणों को अपनाने का फैसला कर लिया है?
यूपीए इस्लामाबाद के विरुद्ध गतिरोध में हार की स्वीकृति को लेकर पूर्णत: तर्कसंगत
हो सकता है, लेकिन भारतीय जनता के सामने अपराध की स्वीकृति और साफगोई मददगार होगी.
या फिर यह राष्ट्रीय संवाद को भ्रष्टाचार और खाद्य कीमतों में बढ़ोतरी जैसे
बुनियादी विषयों से बदलने की कवायद का आरंभ है? चढ़ती कीमतें, ख़ासतौर पर जिनसे
बेरोजगारी भी जुड़ गई है, सबसे गंभीर खतरा है, जिसका सामना कोई सरकार कर सकती है.
यहां तक कि अरब तानाशाह और राजा भी यह जान रहे हैं कि जनता स्वेच्छाचारी शासन में
जीना तो सीख सकती है, लेकिन ऐसी सरकार को नहीं सह सकती, जो जरूरी खाद्य पदार्थो की
कीमतों पर लगाम न लगा सके. हमारे देश में भ्रष्टाचार के विरुद्ध गुस्से में प्याज
की निरंकुश कीमतों को लेकर उपजा रोष भी जुड़ रहा है.
ब्रिटिश नौकरशाही राज की शुरुआत 1765 और 1770 के बीच बंगाल में भड़काए गए एक भीषण
अकाल से हुई थी, जिसने एक अनुमान के अनुसार एक-तिहाई आबादी की बलि ले ली थी. 1947
में ब्रिटिशों की विदाई भी बंगाल में एक अन्य विनाशकारी भुखमरी के बाद हुई, जिसने
उपनिवेशन द्वारा निर्मित अच्छी शासन व्यवस्था की कपोल-कल्पनाओं को ध्वस्त कर दिया
था.
लोकतंत्र में कपोल कल्पनाओं के लिए बहुत ज्यादा सहिष्णुता नहीं होती. यदि पाकिस्तान
को लेकर नई नीति संभावित शांति की कपोल कल्पना पर तैर रही है, या फिर ध्यान बंटाने
वाली रणनीति के तौर पर भी है, तो भी, अगर एक और मुंबई या करगिल होता है, तो यह
यूपीए से एक भीषण कीमत ले लेगी. नौकरशाह अपना काम नहीं गंवाते. नेता गंवा देते हैं.
*लेखक ‘द संडे गार्जियन’ के संपादक और
इंडिया टुडे के एडिटोरियल डायरेक्टर हैं.
16.01.2011, 00.06 (GMT+05:30) पर प्रकाशित