मिस्र में आखिरी दांव
बाईलाइन
मिस्र में आखिरी दांव
एम जे अकबर
तानाशाहियां अभिजात वर्ग के बीच क्रम स्थापना की तरह होती हैं. जैसा कि हुस्नी
मुबारक के मामले में हुआ, उनकी शुरुआत लॉटरी खुलने की तरह होती है. अगर परेड के
दौरान एक सैनिक ने अनवर सादात की हत्या न की होती, तो मुबारक सीने पर कुछ मैडल
लटकाए साधारण जनरल के रूप में गुमनामी में ही रिटायर हो गए होते.
मुबारक ने अपना शासन एक झूठ के साथ शुरू किया था, वे लोकतंत्र का वादा कर रहे थे,
जबकि उन्होंने साधनों और संस्थानों को अपने हिसाब से व्यवस्थित किया, जिसने उन्हें
तीन दशकों तक शक्तिसंपन्न बनाए रखा. वे अब एक और झूठ को टिकाने की कोशिश कर रहे हैं
कि वे सितंबर में शांति से चले जाएंगे.
सेना ने मुबारक को असरदार मदद तो उपलब्ध कराई है, लेकिन कुछ दूरी बनाते हुए,
क्योंकि मिस्र में अनिवार्य सैन्य भर्ती है और सेना नागरिकों के साथ अपना जुड़ाव
नहीं खोना चाहती. नौकरशाही ने फाइलें दबाईं और फायदे उठाए. मीडिया ने मुबारक की
भाषा बोली और महल के मध्यस्थों की खूब खुशामद की.
जनता के लिए यह अलग कहानी थी. मुबारक के मिस्र में डर की जहरीली धुंध छाई थी. जिसने
भी मानवाधिकार या राजनीतिक अधिकारों की मांग की, जेल में डाल दिया गया. अव्यवस्था
को बुलावे के नाम पर लोकतंत्र को खारिज कर दिया गया था. मुबारक का पहला बहाना
मुबारक का आखिरी बहाना बना हुआ है.
यह स्वयंसिद्ध है कि तानाशाह अपने ही लोगों के लिए घृणा और उपेक्षाभाव रखता है,
क्योंकि वह सामूहिक रूप से उन पर भरोसा नहीं कर सकता. अपनी बात पर अड़े असहमत लोग
या जिन्होंने सेकुलर विपक्ष को संगठित करने का दुस्साहस किया, वे समझौतावादी न्याय
व्यवस्था का कोई लिहाज न करने वाली भयंकर गुप्तचर सेवा ‘मुखबरत’ द्वारा उठा लिए गए.
इसका उद्देश्य सिर्फ शिकार को मिटा देना नहीं था, बल्कि हर उस व्यक्ति तक संदेश
पहुंचाना था, जो बदलाव में मूर्खता की हद तक विश्वास रखता है.
तानाशाह हिंसा को उकसा सकता है और उस हिंसा को आसन्न अव्यवस्था की भविष्यवाणी के तौर पर पेश कर सकता है. |
भारत पिछले दशक में केवल
मुबारक ही नहीं, उनके बेटे जमाल भी देश पर छाए रहे, जिनकी एकमात्र योग्यता मुबारक
का पुत्र होना ही है. यह मुबारक के अनुकूल था कि एकमात्र विपक्ष के तौर पर मुस्लिम
भ्रातृत्व को बर्दाश्त कर लें (बेशक, पैमानों के भीतर). वे उन्हें अपने विकल्प के
रूप में दिखाकर पश्चिम से चयन के लिए कह सकते थे.
अमरीका और यूरोप ने खुद को समझा लिया कि इजराइल की सुरक्षा के लिए मिस्री जनता के
दमन की कीमत वाजिब है. मिस्र के शासक वर्ग ने फिलीस्तीन के एक स्वतंत्र राष्ट्र के
सपने को इस तरह उदासीन कर दिया कि वह सपना ही बना रहे. अमरीका प्रायोजित
काहिरा-तेजअवीव डील ने मौजूदा राष्ट्रों के मध्य दर्जे और उनके वंशानुगत शासन को तो
बनाए रखा, लेकिन फिलीस्तीन की जगह को वृक्ष दर वृक्ष, बाग दर बाग, गज दर गज, साल दर
साल, परिनिर्धारण और परिनिर्धारण करके काटा.
यह एक शानदार फंदा था. यह फंदा खुलकर सामने आ गया है. मुबारक दो चीजें नहीं कर सके,
जिनमें से दूसरी के मुकाबले पहली, तार्किक तौर पर उनके लिए कम खतरनाक थी. वे हर
शुक्रवार को होने वाली मुस्लिम सामूहिक प्रार्थना पर प्रतिबंध नहीं लगा सके. ये
हजारों लोगों की आम बैठक बन गईं- ईश्वर के प्रति श्रद्धा में एकजुट, लेकिन उस
व्यक्ति के प्रति संदेह बढ़ रहा था, जिसने काहिरा पर अपना अधिकारवादी शासन थोप रखा
था.
यह महज संयोग नहीं है कि नमाज काहिरा के तहरीर चौक पर बार-बार दोहराए जाने वाले
विरोध का प्रतीक बन चुकी है. मुबारक मिस्री हास्यबोध पर सेंसर भी नहीं लाद सके.
लतीफे विरोध का शानदार हथियार बन गए हैं. मुखबरत लाचार है. लतीफे का कोई लेखक नहीं
होता. आप श्रीमान अनाम को कैसे जेल भेजेंगे?
जनता से मुकाबले के दौरान राज्य को कई सुविधाएं होती हैं. वह व्यवस्था बनाए रखने के
बहाने कानून में तोड़-मरोड़ कर सकता है, यहां तक कि तब भी, जब यही अव्यवस्था की
मुख्य वजह हो. एक तानाशाह को तो और भी फायदे होते हैं. तानाशाह हिंसा को उकसा सकता
है और उस हिंसा को आसन्न अव्यवस्था की भविष्यवाणी के तौर पर पेश कर सकता है.
मुबारक के पूर्वनियोजित पासे का यह आखिरी दांव है. शुरुआत की स्थिति पर वापस
पहुंचने के लिए तानाशाह के पास कई रास्ते होते हैं. लोकतंत्र के अपने क्षितिज की ओर
जाने के लिए जनता के पास सिर्फ एक राह होती है. मिस्र कंपकंपा रहा है. यदि जनता
विफल होती है, तो देश खतरनाक रसातल में जा गिरेगा.
*लेखक ‘द संडे गार्जियन’ के संपादक और इंडिया टुडे के एडिटोरियल डायरेक्टर हैं.
06.02.2011, 03.03 (GMT+05:30) पर प्रकाशित