वाम-वाम दिशाहीन
मुद्दा
वाम-वाम दिशाहीन
राजकिशोर
उर्दू के रोमांटिक शायर मजाज की ये लाइनें मुझे बहुत पसंद हैं-बहुत मुश्किल है
दुनिया का संवरना, तेरी जुल्फों का पेच-ओ-खम नहीं है. इसमें निराशा जरूर है पर
निराशावाद नहीं है. मजाज यह नहीं मानते कि ‘दुनिया के पेच-ओ-खम’ को सुलझाना असंभव
है. जो यह मान लेते हैं, वे निराश हो कर बैठ जाते हैं या धर्म-अध्यात्म और ईश्वर की
शरण में चले जाते हैं. मजाज का यकीन मार्क्सवाद में था.
फैज ने लिखा है कि इंकलाब को नगमा बनाना हमने मजाज से सीखा है. ऐसा लगता है कि भारत
की दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों-सीपीआई और सीपीएम में मजाज या फैज, किसी का भी जज्बा
नहीं रह गया है. एक जमाने में यह जज्बा था जरूर; पर वह धीरे-धीरे कमजोर और शिथिल
होता गया. सीपीआई और सीपीएम के नेता और कार्यकर्ता नारा तो अब भी ‘इंकलाब जिंदाबाद’
का ही लगाते हैं पर इंकलाबी होना इन्होंने बहुत पहले छोड़ दिया था. तेलंगाना में
हिंसक क्रांति के अ-सुनियोजित प्रयास के बाद इन्होंने मंजूर कर लिया कि इंकलाब
हमारे देश में मुमकिन नहीं है. इसलिए जो करना है, इस बुर्जुआ पूंजीवादी ढांचे में
ही करना होगा.
दिक्कत यह है कि मार्क्सवाद की किसी भी किताब में यह नहीं बताया गया है कि क्रांति
का लक्ष्य छोड़ देने के बाद पूंजीवादी जनतंत्र को कैसे ज्यादा से ज्यादा जनवादी
बनाया जा सकता है? मेरा अपना खयाल है, यह संभव ही नहीं है. गाय के पेट से बछड़ा ही
पैदा हो सकता है, शेर का बच्चा नहीं. यही वजह है कि हमारे दोनों ब्रांड के
कम्युनिस्ट; न इधर के रहे, न उधर के. यह दुर्घटना न होती, यदि उन्होंने पूंजीवादी
जनतंत्र के माध्यम से प्रगतिशील लक्ष्यों को हासिल करने का शास्त्र विकसित करने का
प्रयास किया होता.
बड़े परिवर्तनों के लिए शस्त्र के पहले शास्त्र की जरूरत होती है. हमारे ये
कम्युनिस्ट न क्रांति के लिए काम करते रहे हैं, न वर्तमान जनतंत्र को उसकी अधिकतम
ऊंचाई पर ले जाने के लिए. यही उनके क्रमिक पतन और पराभव का मूल कारण है.
दुर्भाग्यवश पार्टी मंचों पर इस समस्या से कभी मुठभेड़ नहीं की गई. बीमारी से
मुठभेड़ किए बगैर सेहत की ओर नहीं बढ़ा जा सकता. गालिबन बीमारी भीतर ही भीतर बढ़ती
गई. हाल ही में सीपीआई और सीपीएम दोनों की कांग्रेस संपन्न हुई. इन कांग्रेसों में
जो रपटें पेश की गई, जो प्रस्ताव पारित किए गए और जो घोषणाएं की गई, उनमें कहीं भी
इस बात की कोई खोज नहीं है कि हम कौन थे, क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी?
बासीपन जब बहुत बढ़ जाता है, तो दुर्गंध आने लगती हैं. यह स्वीकार करने में किसे
हिचक हो सकती है कि एक देश और एक समाज के रूप में, भारत के वर्तमान संकट की जैसी
समझ इन दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों के पास है और जिस समझ के दर्शन इन दोनों
सम्मेलनों में भी हुए, वह देश की बाकी सभी पार्टियों की समझ से कहीं बेहतर है.
लेकिन अच्छे-अच्छे श्लोक पढ़ने भर से भेड़िया गांव से भाग कर जंगल की ओर नहीं चला
जाता. बड़ा से बड़ा सिद्धांत बेकार है, अगर उससे कार्यक्रम नहीं निकलता और अच्छा से
अच्छा कार्यक्रम निस्सार है, अगर उस पर अमल करने की योजना नहीं बनाई जाती.
इसलिए बड़े दुख के साथ हमें यह कहना पड़ रहा है कि सीपीआई और सीपीएम ने दुनिया के
इतिहास से शिक्षा लेने में भले कुछ न उठा रखा हो पर वे अपने खुद के इतिहास से
शिक्षा लेने में पहले की तरह इस बार भी असमर्थ साबित हुई हैं. दोनों ही दलों के
नेताओं ने अपने व्याख्यानों में बार-बार कहा कि हमसे गलतियां हुई हैं. उन्होंने
कुछ गलतियों की ओर इशारा भी किया लेकिन उनमें से किसी की हथेली पर भविष्य का वह
संकल्प पत्र नहीं दिखाई दिया, जिसके कारण बूढ़े भारत में भी जवानी आ सकती है.
यह चिंता की बात है. बहुत अधिक चिंता की बात है. कांग्रेस में जवाहरलाल नेहरू के
प्रारंभिक 10 वर्षो के बाद कभी दम नहीं रहा. बीच-बीच में उसमें नई ऊर्जा का संचार
होता रहा-जैसे राजीव गांधी के शासन के पहले डेढ़ वर्ष में, लेकिन अब अपने को नया
करने की उसकी बची-खुची शक्ति भी खलास हो चुकी है. उसके नेतृत्व में देश सिर्फ एक
संकट से दूसरे संकट की ओर छलांग मार सकता है.
भाजपा ने तय कर लिया है कि वह विदूषक बन कर ही रहेगी. क्षेत्रीय पार्टियों में कभी
कोई मौलिकता नहीं रही. आज वे अपना ही कार्टून नजर आ रही हैं. उनके लिए भारत कोई
राष्ट्र नहीं है, जिसकी सामूहिक नियति के बारे में विचार किया जा सके. मंडलवाद के
लिए सबसे उचित जगह इस समय संग्रहालय ही है. दलित राजनीति का एक हश्र उत्तर प्रदेश
में सामने आ चुका है.
गैरसंसदीय वामपंथ के हाथ खून से रंगते जा रहे हैं. फिर भी उसके प्रति जनसाधारण के
एक वर्ग में अनुराग दिखाई देता है तो इसीलिए कि वहां एक तुर्श किस्म की प्रतिबद्धता
और जोखिम-भरी सक्रियता दिखाई देती है. लेकिन कोई भी होशमंद आदमी यह दावा नहीं कर
सकता कि इस रास्ते पर चलते हुए कोई भारी सफलता हासिल की जा सकती है.
जंगलों और झाड़ियों से इतने विशाल देश का मुक्ति संघर्ष संचालित नहीं किया जा सकता.
खुले में आना ही होगा और माओवाद की कार्य पद्धति ऐसी नहीं है कि वह खुलेपन की धूप
का सामना कर सके. ऐसे संकटापन्न और नाजुक समय में संसदीय वामपंथ में ही आशा के कुछ
बीज हैं लेकिन जब तक जमीन की कोड़ाई-सिंचाई और देखभाल न हो, अकेला बीज क्या कर सकता
है? धीरे-धीरे वह भी सूखने या सड़ने लगेगा. एक महान वैचारिक विरासत की यह अखिल
भारतीय परिणति राष्ट्रीय विचार-विमर्श का विषय बनना चाहिए.
15.04.2012, 10.18 (GMT+05:30) पर प्रकाशित