मोदी की जीत के सवाल
विचार
मोदी की जीत के सवाल
योगेंद्र यादव
छोटे परदे की भागती, हांफती तसवीरें कहीं हमारे मानस को छोटा करती हैं. हमसे छोटे
सवाल पुछवाती हैं, हमें छोटे झगड़ों में उलझाती हैं और आधे-अधूरे उत्तरों से मना
लेती हैं. छोटा सवाल यह था कि चुनावी खेल में मोदी जीतेंगे या नहीं? कुल जमा 117
सीट का आंकड़ा पार करेंगे या नहीं. दिल्ली में भाजपा के नेतृत्व की कुश्ती में मोदी
दूसरों को चित करेंगे या नहीं.
बड़ा सवाल ‘नरेंद्र मोदी’ का नहीं ‘मोदीत्व’ का था. लोकतंत्र के खेल में मोदीत्व
जीतेगा या नहीं? अगर मोदीत्व का अश्वमेघ होगा, तो उसमें लोकतंत्र जीतेगा या नहीं?
छोटे सवालों के सरल उत्तर हैं. गुजरात में नरेंद्र मोदी की स्पष्ट और निर्णायक जीत
हुई है. सीटों का अंतिम आंकड़ा जो भी हो, इसमें कोई शक नहीं कि गुजरात की जनता ने
उन्हें स्पष्ट जनादेश दिया है. पिछले बीस सालों से गुजरात में भाजपा अपने निकटतम
प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस से दस फर्लाग (फीसद वोट) आगे रही है. इस बार भी उसने कमोबेश
यही स्थिति बनाये रखी.
यह जीत शहरी इलाकों में ज्यादा बड़ी है, तो गांवों में कुछ हल्की. सौराष्ट्र, मध्य
और दक्षिणी गुजरात में एकतरफा जीत है, तो उत्तर में मुकाबला कांटे का रहा.
मोदी को अगड़ों और खासतौर पर पटेल समुदाय में कुछ नुकसान हुआ. (हालांकि उतना नहीं,
जितना प्रचार था), तो उसकी भरपाई पिछड़े क्षत्रीय समाज और कोली समुदाय से हो गयी.
हमेशा की तरह दलित, आदिवासी, मुसलिम और गरीब मतदाताओं में कांग्रेस आगे रही. लेकिन
कुल मिलाकर इसे खंडित जनादेश नहीं कहा जा सकता.
कांग्रेस के प्रवक्ताओं की ख्वामख्याली को नजरअंदाज कर दें, तो मोदी के जनादेश पर
सवालिया निशान लगाना आसान नहीं है. लेकिन उधर हिमाचल प्रदेश का चुनाव परिणाम हमें
यह याद दिलाता है, कि भाजपा के पक्ष में कोई राष्ट्रीय लहर नहीं थी. अगर गुजरात में
कांग्रेस का बोलबाला अब एक स्थायी नियम जैसा लगने लगा है, तो हिमाचल में हर बार
सरकार पलटने का नियम रहा है. दोनों जगह नियम कायम रहा.
इन परिणामों के आधार पर कांग्रेस या भाजपा कोई भी अपनी हवा का दावा नहीं कर पायेगी.
न तो सत्तारूढ़ दल की गिरती लोकप्रियता और घटती साख का क्रम टूटा है और न ही देश के
सबसे बड़े विपक्षी दल के दिग्भ्रम और संकल्पहीनता का सिलसिला थमा है.
बस एक बदलाव हुआ है. नेतृत्व के संकट से जूझती भाजपा अंदरूनी कुश्ती का फैसला हो
गया जान पड़ता है. इस स्पष्ट जनादेश के साथ नरेंद्र मोदी का कद बढ़ना लाजिमी है.
चाहे इसकी औपचारिक घोषणा हो, न हो, आज हो या कल हो, जाहिर है, अब वे अगले लोकसभा
चुनाव में भाजपा के सबसे बड़े नेता के रूप में उभरेंगे. इसकी वजह मोदी की मजबूती से
ज्यादा भाजपा की मजबूरी है.
उधर हिमाचल के परिणाम से कांग्रेस की अंदरूनी समीकरण पर कोई खास असर पड़ने वाला
नहीं है. वीरभद्र सिंह को आगे कर चुनाव जीतने से कांग्रेस को कर्नाटक, राजस्थान,
मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में नेता की घोषणा करने का दबाव पड़ेगा. लेकिन लोकसभा
चुनाव में कांग्रेस के प्रधानमंत्री पद की दावेदारी की कुर्सी युवराज के लिए
आरक्षित थी और रहेगी.
छोटे सवालों के सीधे उत्तर से आगे बढ़कर जब हम बड़े सवाल पूछते हैं तब हम अपने आपको
एक कठिन और कांटों भरी पगडंडी पर पाते हैं. गुजरात में मोदीत्व की जीत लोकतंत्र के
लिए एक नहीं कई चुनौतियां पेश करती हैं. इसमें कोई शक नहीं कि यह जीत केवल भाजपा की
नहीं, नरेंद्र मोदी की अपनी व्यक्तिगत जीत है. लोग एक दमदार, निर्णायक और दबंग नेता
को सत्ता की बागडोर सौंपना चाहते थे. लेकिन मजबूत नेता की इस चाहत में कहीं
लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से थकान के संकेत तो नहीं है.
मोदी जो चाहते हैं, करके दिखाते हैं, नियम कायदे को आड़े नहीं आने देते हैं, मीडिया
से लेकर मानवाधिकार संगठनों तक सबको काबू में रखना जानते हैं, खुद अपनी पार्टी के
स्थानीय और राष्ट्रीय नेताओं की परवाह नहीं करते. आज उनके ये सदगुण गुजरात की जनता
को भाते हैं, लेकिन दुनिया भर में लोकतांत्रिक व्यवस्था के भीतर तानाशाही की शुरुआत
इसी तरह से होती है.
इसमें कोई शक नहीं कि गुजरात की जनता कुल मिलाकर मोदी सरकार के कामकाज से नाखुश
नहीं थी. पिछले दस साल में देशभर में आर्थिक वृद्धि हुई है. गुजरात में आर्थिक
वृद्धि की दर देश के औसत से ज्यादा थी. निवेश बढ़ा, उद्योग लगे, समृद्धि आयी, आम
लोगों को बिजली और सड़क की सहूलियत भी हुई, लेकिन यह समृद्धि अंतिम व्यक्ति तक नहीं
पहुंची, लेकिन शिक्षा और स्वास्थ्य में कोई खास सुधार नहीं हुआ.
मोदी पर स्वयं भ्रष्ट होने का आरोप नहीं लगा, लेकिन प्रधानमंत्री की तरह उनके राज
में भी बड़े घोटालों और बड़े उद्योगपतियों की तरफदारी के आरोप लगे. अगर इन सबके
चलते गुजरात को विकास का मॉडल मान लिया जाता है, तो समता और न्याय के संवैधानिक
मूल्यों का क्या होगा.
बेशक! यह चुनाव सांप्रदायिक मुद्दों पर नहीं लड़ा गया. न भाजपा ने सांप्रदायिक
ध्रुवीकरण की कोशिश की, न ही कांग्रेस ने 2002 के दंगों का जिक्र भी किया.
पिछली बार की तरह 20 फीसदी मुसलमानों का वोट भी भाजपा को मिल गया, लेकिन दंगों के
आरोपी नेताओं को टिकट का ईनाम देकर और एक भी मुसलमान को टिकट न देकर मोदी ने फिर यह
साबित किया कि इस सवाल पर वो कहां खड़े हैं. बेशक! पिछले दस साल से गुजरात में दंगे
नहीं हुए, लेकिन कहीं इसलिए तो नहीं कि वहां अल्पसंख्यकों ने दोयम दर्जे की
नागरिकता स्वीकार कर ली है. ‘शांति’ का यह मॉडल विविधता संपन्न भारत के सपने को
चुनौती देता है.
ये सब बड़े सवाल हमें एक यक्ष प्रश्न की ओर ढकेलते हैं कि लोकतंत्र के सामने
मोदीत्व की चुनौती का अंजाम क्या होगा? क्या मोदीत्व लोकतंत्र को दबा देगा या कि
लोकतंत्र का ताना-बाना मोदी को मोदीत्व छोड़ने पर मजबूर करेगा? क्या कांग्रेस या
दूसरे स्थापित दल मोदीत्व की चुनौती का मुकाबला कर पायेंगे? अगर नहीं, तो विकल्प
कहां से आयेगा? इतने बड़े सवाल टीवी के छोटे परदे में कैसे समायेंगे.
21.12.2012, 22.52 (GMT+05:30) पर प्रकाशित