अगर अंबेडकर आज होते...
मुद्दा
अगर अंबेडकर आज होते...
रघु
ठाकुर
14 अप्रैल डॉ. बाबा साहब अम्बेडकर का जन्मदिन है. इस अवसर पर वे किस सन् में पैदा
हुये थे या किस सन् में उनकी मृत्यु हुई यह बात महत्वपूर्ण नही है बल्कि महत्वपूर्ण
यह है कि आज अगर बाबा साहब जिंदा होते तो अपनी मान्यताओं, विचारों व स्थापनाओं की
रक्षा के लिये, उन्हे किन-किन शक्तियों से जूझना पड़ता. मैं समझता हूं कि बाबा साहब
को सर्वाधिक निराशा या अंतःसंघर्ष उन लोगों से ही करना पड़ता जिनकी तरक्की व समता के
लिये उन्होने आजीवन संघर्ष किया. वे अपने जीवन के अंतिम दिनों में कहते भी थे कि
मुझे सबसे ज्यादा शिकायत उन अपने ही लोगों से है जिन्होने मेरी बातों को या तो नजर
अंदाज किया या तो फिर मुझे केवल पूजने की प्रतिमा बना दिया.
अक्सर देश या दुनिया में ऐसी धारणा बनी है कि बाबा साहब केवल दलितों के नेता थे या
उन्होने केवल दलित उत्थान के लिये कार्य किया परन्तु यह आंशिक सत्य है. निःसंदेह
बाबा साहब दलितों के उत्थान व उन्हे बराबरी दिलाने के लिये एक सतत संघर्षशील सेना
नायक थे परन्तु उन्होने समूचे समाज को बराबरी का तथा प्रगतिशील व मानवीय समाज बनाने
के लिये अपना जीवन लगा दिया. उन्हे केवल दलितों का नेता या मसीहा कहा जाना उन्हे
सिकोड़ना होगा.
बाबा साहब, जिन्हे आमतौर पर संविधान निर्माता या संविधान शिल्पी कहते हैं, अपने
द्वारा प्रस्तुत किये गये संविधान की सीमाओं को बेहतर जानते थे. इसीलिये उन्होने
संविधान पारित होने के तत्काल बाद विधि मंत्री के नाते आपने प्रथम साक्षात्कार में
कहा था कि "आज हम अंर्तविरोध के एक नये युग में प्रवेश कर रहे हैं जिसमें राजनैतिक
समानता तो होगी यानी एक व्यक्ति – एक वोट परन्तु आर्थिक व सामाजिक समानता नही
होगी."
उनका नैराश्य इस सीमा तक पहुंचा था कि उन्होने संसद में गृहमंत्री श्री काटजू व
अन्य सदस्यों की टीका - टिप्पणी का उत्तर देते हुये कहा था कि "श्रीमान, मेरे
मित्र कहते हैं कि भारत का संविधान मैने बनाया है परन्तु मैं यह बात कहने के लिये
तैयार हूं कि मैं ही इसे जलाने वाला प्रथम व्यक्ति होऊंगा. मैं इसको नही चाहता
क्योंकि यह किसी के लिये भी नही है". बाबा साहब ने संविधान की जिन सीमाओं को उसके
पारित होने के कुछ ही दिनों बाद पहचाना था, आज देश उन संवैधानिक समस्याओं से रूबरू
हो रहा है. पिछले कुछ वर्षों से देश की सर्वोच्च न्यायपालिका व विधायिका तथा सत्ता
के टकराव के जो मामले सामने आ रहे हैं, वे इसी का द्योतक हैं. संविधान का मूल खंड
भी अपने लक्ष्यों में लगभग असफल जैसा हो गया लगता है.
बाबा साहब में भारतीयता गहरे तक थी. उनके दो ही लक्ष्य थे, ’एक भारत महान बने’ और
दूसरा ’सामाजिक अन्याय समाप्त हो. ’ जो लोग उन पर यह आरोप करते हैं कि वे भारत की
आजादी के पक्ष में नहीं थे, वे उनका गलत विश्लेषण करते हैं. वे भारत को आजाद देखना
चाहते थे परन्तु उसके पूर्व अपनी दलित कौम की भी आजादी चाहते थे. उनके मन में यह
संशय अवश्य रहता था जो कि स्वाभाविक भी था कि कहीं ऐंसा न हो कि देश तो आजाद हो
जाये परन्तु देश की अनुसूचित जातियॉं, उच्च जातियों की गुलाम बनी रह जायें.
इसीलिये बाबा साहब ने 1938 में बंबई विधानसभा में कहा था कि "मुझे
अक्सर गलता समझा जाता है. इसमें कोई संदेह नही होना चाहिये कि मैं अपने देश से
प्यार करता हूं लेकिन मैं इस देश के लोगों को यह बात भी साफ-साफ बता देना चाहता हूं
कि मेरी एक और निष्ठा है जिसके लिये मैं प्रतिबद्ध हूं. यह निष्ठा है अस्पृश्य
समुदाय के प्रति जिसमे मैने जन्म लिया है और मैं इस सदन में पूरे जोर - शोर से कहना
चाहता हूं कि जब कभी देश हित और अस्पृश्यों के हित के बीच टकराव होगा तो मैं
अस्पृश्यों के हितों को तरजीह दूंगा. मेरे अपने हित और देश हित के साथ टकराव होगा
तो मैं देश हित को तरजीह दूंगा."
बाबा साहब के मन में भारतीय राष्ट्रवाद बहुत स्पष्ट था. वे भाषावाद प्रांतों के
विरोध में थे क्योंकि वे महसूस करते थे कि भाषावाद प्रांत आगे जाकर किसी दिन
क्षेत्रवाद व देश के विभाजन के कारण बन सकते हैं. उनके ही शब्दों में
- भाषावाद
प्रांतों में छोटे-छोटे समुदायों अर्थात अल्पसंख्यक जातियों का क्या भविष्य है?
क्या ये विधायिका में चुने जाने की आशा रखें ? क्या उन्हे राज्य सेवा में कोई पद
मिलने की आशा है? उनकी आर्थिक उन्नति के लिये क्या कोई ध्यान देने वाला है?
इन परिस्थितियों में भाषायी प्रांत के गठन का अर्थ होगा स्वराज को किसी एक
बहुसंख्यक समुदाय के हाथों सौंप देना. जो लोग समस्या के इस पहलू को नही समझते या
समझना नही चाहते वे इसे तभी भली भांति समझेंगे जब हम भाषायी राज्य जैसे शब्द का
प्रयोग न कर जाट राज्य, रेड्डी राज्य या मराठा राज्य कहेंगे. जो ऐसे समेकन या
एकीकरण की मांग करते हैं उनसे पूछा जाना चाहिये कि क्या वे अन्य राज्यों के साथ
युद्ध करने जा रहे हैं ? यदि समेकन से पृथकता का भाव पुष्ट होता है तो आगे चलकर
हमारा भारत ठीक उसी स्थिति में पहुंच जायेगा जैसी स्थिति इस देश की मौर्य साम्राज्य
के पतन या बिखराव के बाद हुई थी. क्या भाग्य हमे उसी ओर धकेल रहा है?’’
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भाषावाद राज्यों के गठन के बारे में जो चेतावनी बाबा साहब ने 1938 में दी थी, वह आज
स्पष्ट नजर आती है. भाषावाद राज्यों के गठन से भाषावाद की कट्टरता व क्षेत्रीयता
बढ़ी है तथा राष्ट्रीय एकता कमजोर हुई है. जब शिवसेना सुप्रीमो कहते हैं कि ’’आमची
मंबई मराठी मुबई’’ या अन्य प्रांतों के निवासियों को हेय दृष्टि से ’’भैया माणुस’’
कहकर अपमानित करते हैं या फिर अन्य राज्यों के निवासियों के साथ दंगे फसाद कर उन्हे
भगाने का प्रयास करते है तो बाबा साहब की 70 वर्ष पूर्व दी गई चेतावनी याद आ जाती
है.
बाबा साहब यह जानते थे कि परिवर्तनशीलता का गुण विकास के लिये जरूरी है. उन्होने
इसीलिये ’इमर्सन’ को उद्धृत करते हुये कहा था कि स्थिरता गधे का गुण है. उन्होने
अपने विचारों में भी समय - समय पर बड़े परिवर्तन किये जो उनके अनुभवों पर आधारित थे.
आज राष्ट्रीय हितों के बजाय क्षेत्रीय हितों के पर्याय बन रहे हैं. आजादी के 60
वर्श के बाद भी कर्नाटक व तमिलनाडू के बीच कावेरी जल विवाद नही सुलझ पाया. पंजाब
तथा हरियाणा के बीच सतलज यमुना जल विवाद नही निपट पाया. क्षेत्रीय भाषा प्रेम या
मातृभाषा प्रेम, भाषावाद में संकुचित हो रहा है जिसके परिणाम स्वरूप राष्ट्रभाषा का
फैलाव भी रूक गया है. आज तमिलनाडू, पंजाब, बंगाल, केरल, आंध्र, कर्नाटक, उड़ीसा में
क्रमशः तमिल, गुरूमुखी, बंगाली, मलयाली, तेलगू, कन्नड़ या उड़िया के साथ अंग्रेजी
होती है न कि हिन्दी या हिन्दुस्तानी.
हिन्दी के विरोध में क्षेत्रीय राजनैतिक शक्तियॉं दंगे कराने को तत्पर रहती हैं
परन्तु अंग्रेजी से उन्हे कोई गुस्सा नही होता. अगर राज्य केवल एक ही भाषा व
परंपराओं के लोगों का बंद किला बन जायेगा तो भारत राष्ट्र कहॉं व कब तक टिकेगा? यह
जो प्रश्न बाबा साहब ने खड़ा किया था अब आज और ज्यादा प्रासंगिक हो गया है.
उनके मन
में अपना राष्ट्रप्रेम कितना गहरा था इसका प्रमाण उनके इस कथन से मिल जाता है
’’मुझे अच्छा नही लगता जब कुछ लोग कहते हैं हम पहले भारतीय हैं बाद में हिन्दू या
मुसलमान, मुझे यह स्वीकार नही है. धर्म, संस्कृति, भाषा आदि की प्रतिस्पर्धा निष्ठा
के साथ रहते हुये भारतीयता के प्रति निष्ठा नही पनप सकती. मैं चाहता हूं कि लोग
पहले भी भारतीय हों और अंत तक भारतीय रहे, भारतीय के अलावा कुछ नहीं. आज कितने
राष्ट्रवादी यह कह सकते हैं, चाहे वे मुसलमान हो या हिन्दू?
बाबा साहब मानते थे कि राज्य तभी लोकतांत्रिक हो सकता है जब समाज भी लोकतांत्रिक
हो. आज हमारा समाज मानस अलोकतांत्रिक है परन्तु राज्य की प्रणाली लोकतांत्रिक है
इसलिये हमारा लोकतंत्र कुछ अर्थों में असफल हो रहा है. अगर लोकतांत्रिक प्रणाली को
सफल बनाना है तो राष्ट्र मानस या लोक मानस को भी लोकतांत्रिक बनाना होगा. बाबा
साहब, राजकीय समाजवाद के पक्षधर थे. उन्होने दलित रेल मजदूरों की सभा को संबोधित
करते हुये कहा था कि ’’हमारे दो शत्रु हैं, एक ब्राम्हणवाद व दूसरा पूंजीवाद.’’ वे
ब्राम्हण जाति के विरोधी नही थे बल्कि उन्होने तो यहॉं तक कहा कि महाराष्ट्र के
मराठावाद से ब्राम्हण भी पीड़ित हैं. वे ब्राम्हणवाद को भेदभाव की मानसिकता का
पयार्य मानते थे.
आज कुछ ऐसी जमाते देश में हैं जो बाबा साहब का नाम ’’तोता रटंत’’ लेती है या फिर
बाबा साहब को अपने सामाजिक समूह का बड़ा व्यक्ति मानकर उनका नाम लेते हैं परन्तु
बाबा साहब के विचारों को अपने कार्यों से खंडित करते हैं. ऐंसे मित्र बाबा साहब के
अनुयायी नही है बल्कि केवल मूर्ति पूजक हैं जबकि बाबा साहब कहते थे कि
"वे मूर्ति
पूजक नहीं वरन् मूर्ति भंजक हैं."
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कांशीराम या मायावती जब
भारतीय समाज व्यवस्था को, जो सीधी लाईन की व्यवस्था है जिसमें कोई नीचे है कोई उपर,
उलटना चाहते हैं ताकि नीचे वाला उपर आ जाये, बीच वाला ज्यों का त्यों रहे तथा उपर
वाला नीचे चला जाये तो वे जाति व्यवस्था को नष्ट नहीं करना चाहते बल्कि अपनी जाति
को शोषक जाति के शीर्ष स्थान पर बिठाना चाहते हैं. बाबा साहब ने तो एक पुस्तक भी
लिखी थी ’एनीहेलेशन ऑफ कास्ट’ (जाति प्रथा की समाप्ति)
. वे जातिप्रथा को, जो जन्मना भेदभाव की व्यवस्था है, समाप्त करना चाहते थे.
डॉ. राम मनोहर लोहिया कहते थे कि - "भारतीय खड़ी लाईन की समाज व्यवस्था को, आड़ी
यानि समान समाज व्यवस्था में बदलना होगा जिसमें न कोई छोटा होगा न कोई बड़ा बल्कि
सभी समान होंगे, समान पैदा होंगे, समान मरेंगे". भारतीय विषमता मूलक जातीय व्यवस्था
की ही पीड़ा थी जिसने बाबा साहब को यह कहने को बाध्य किया था कि
"मैं हिन्दू पैदा
हुआ था परन्तु हिन्दू मरूंगा नही."
यद्यपि बाबा साहब धार्मिक व्यक्ति थे पर आज उनका नाम लेकर राजनैतिक रोटियॉं सेंकने
वाले कुछ लोग ’’नवब्राम्हणवाद’’ स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं. वे जातिप्रथा
की विषमता को मिटाना नही चाहते बल्कि अपनी जाति को श्रेष्ठ बनाना या शीर्ष पर
बिठाना चाहते हैं तथा विद्यमान जाति व्यवस्था के शीर्ष पर बैठी जातियों को शूद्र
बनाना चाहते हैं. शूद्र को ब्राम्हण बनाना व ब्राम्हण को शूद्र भी उतनी ही
ब्राम्हणवादी सोच है जिस प्रकार ब्राम्हण को ब्रम्हा के मुख से पैदा होना तथा शूद्र
को पैर से पैदा होना बताना. यह पुराने ब्राम्हणवाद का नव ब्राम्हणवाद में रूपांतरण
करना होगा. यह समता की व्यवस्था नही होगी जिसे बाबा साहब बनाना चाहते थे.
आज बाबा साहब का नाम लेने वाले कुछ जन्मना दलित बुद्धिजीवी जो अपने आपको ’दलित
बुद्धिजीवी’ कहते हैं, दलित पूंजीवाद की स्थापना करना चाहते हैं. मेरी राय में जो
बुद्धिजीवी हैं, वह दलित नही है. अगर पुराने वर्णाश्रम की कसौटी पर कसें तो ज्ञान
देने वाला व्यक्ति ब्राम्हण है तथा श्रम करने वाला शूद्र. विश्वविद्यालय का
प्राध्यापक भले ही दलित के घर क्यों न जन्मा हो वह उसी पुरानी व्यवस्था की कसौटी पर
ब्राम्हण होगा तथा कारखाने में या खेत में काम करने वाला श्रमिक, अगर ब्राम्हण के
घर भी जन्मा हो तो शूद्र होना चाहिये. परन्तु ये मित्र लोग अपने आपको ’दलित
बुद्धिजीवी’ कहकर ’ब्रान्ड’ बनाना चाहते हैं ताकि उनके उत्पाद का विक्रय हो सके.
जबकि वस्तुस्थिति यह है कि जन्मना दलित पर आज ’एलिट क्लास’ (श्रेष्ठ वर्ग) का
जीवन जीने वालो का अब दलितों से कोई तारतम्य या सरोकार ही नही बचा है.
ऐसे लोगों ने अपना वर्ग परिवर्तन कर लिया है. उनके लिये दलितों की पीड़ा या दुःख अब
भोगने या सहजीवन के लिये नही वरन् केवल शोषण व बेंचने के लिये है. यह दलित श्रेष्ठि
वर्ग जो वस्तुतः दलितो में उभरा नव ब्राम्हण वर्ग है आजकल दलित पूंजीवाद की चर्चा
करता है. वे अमेरिका की तर्ज पर ’प्रिंसिपल ऑफ डायवरसिटी’ या ’एफरमेटिव एक्शन’ के
समान कुछ दलितों को पूंजीपति या बड़ी कंपनियों के सी.ई.ओ. बनाना चाहते है. पिछले
दिनों उन्होने बड़ी शान से ऐलान किया था कि दिल्ली में एक लाख सूटबूटधारियों द्वारा
दलित मार्च किया जायेगा. इन्हे विभिन्न स्थानों से लाने के लिये निजी विमान आरक्षित
कराये गये थे तथा घोषित किया गया था कि यह ’दलित कैप्टिलिजम’ यानी दलित पूंजीवाद का
मार्च होगा. क्या यह सपना बाबा साहब के विचारों के अनुकूल है?
बाबा साहब ने दूसरा शत्रु पूंजीवाद को घोषित किया था. वे पूंजीवाद मिटाना चाहते थे,
न कि दलित पूंजीवाद चाहते थे. आज देश में 200-300 अरब खरबपति बड़ी जातियों के लोग
हैं जो देश की 100 करोड़ की आबादी का शोषण कर पूंजी के मालिक बने हैं. कल यदि इनमे
से 5-10 दलित के घर में जन्मे, पूंजीपति बन जाये तो क्या देश के 24 करोड़ दलितों का
उत्थान हो जायेगा? औसतन 53 लाख लोगों की कीमत पर या कहें तो लाश पर एक अरबपति बनता
है. वह चाहे सवर्ण बने या शूद्र. अगर 53 लाख शूद्रों की लाश पर एक दलित पूंजीपति
बने तो क्या इससे शूद्रों का कोई भला होगा ? यह व्यवस्था बाबा साहब की अभीष्ट नही
थी. वे आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक समानता चाहते थे. वे समाजवाद चाहते थे जो सभी के
लिये हो.
बाबा साहब मूल उद्योगों को सरकारी रखना चाहते थे तथा निजी पूंजी को समता के बंधनों
में कैद करना चाहते थे. क्या बाबा साहब के इन संदेशों को देश समझेगा, मानेगा और अमल
में लायेगा?
मैं, सोचता हूं कि आज अगर बाबा साहब होते तो, 1940-50 के दशक में तो वे अपनो से
निराश थे पर 21वीं सदी के आरंभ में अपनो व परायों के समाने समता के संघर्ष की
महाभारत के अर्जुन बनकर लड़ रहे होते.
03.04.2013, 00.24 (GMT+05:30) पर प्रकाशित