यह चुनावी मुस्लिम-प्रेम
मुद्दा
यह चुनावी मुस्लिम-प्रेम
राहुल राजेश
वर्ष 2014 का लोकसभा चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आता जा रहा है, वैसे-वैसे
आरोपों-प्रत्यारोपों की जुबानी जंग बेलगाम होती जा रही है. हर कोई एक-दूसरे पर
यथासंभव और यथाधिक कीचड़ उछालने में लगा हुआ है. वैसे भी चुनाव के समय नेताओं का
'सेकुलरिज्म' और 'मुस्लिम-प्रेम' ज्यादा गाढ़ा हो जाता है और दंगों पर राजनीति कुछ
ज्यादा ही जोर मारने लगती है. फलत: आरोपों-प्रत्यारोपों का दौर अपने चरम पर पहुँच
जाता है और नेताओं की बदजुबानी सारी सीमाएँ लाँघने लगती हैं.
इस बार निशाने पर गुजरात के वर्तमान मुख्यमंत्री और भाजपा के पीएम उम्मीदवार
नरेंद्र मोदी सबसे ज्यादा हैं. वर्ष 2002 के गुजरात दंगों का जिन्न उनका पीछा नहीं
छोड़ रहा है. गुजरात दंगों को लेकर जितने आरोप मोदी पर लगाए गए हैं, शायद ही किसी
और पर कभी लगे हों. गुजरात दंगों को लेकर मोदी पर आरोप लगाते हुए वर्तमान विदेश
मंत्री सलमान खुर्शीद ने उन्हें 'नपुंसक' तक कह डाला. लालू यादव ने उन्हें 'खून
बेचने वाला' कहा. समाजवादी पार्टी के नेता आजम खान ने एक चुनावी भाषण में मोदी को
'हिटलर' कह डाला. मोदी को सोनिया गाँधी पहले ही 'मौत का सौदागर' कह चुकी हैं. यूपी
के सहारनपुर में कांग्रेस के लोकसभा उम्मीदवार इमरान मसूद ने तो मोदी की बोटी-बोटी
कर देने की बात तक कह डाली. अब तो फारूख अब्दुल्लाह और उमर अब्दुल्लाह जैसे नेता भी
मोदी को कोसने-गरियाने में भाषायी भद्रता और संयम की हदें पार करने लगे हैं.
दरअसल आजकल कोई भी नेता-मंत्री अपने भाषण में मोदी पर गुजरात दंगों का आरोप लगाए
बिना नहीं रहता. मानो गुजरात दंगों के जिक्र के बिना उनका भाषण अधूरा रह जाएगा और
उनका 'मुस्लिम-प्रेम' प्रकट नहीं हो पाएगा. और यह भी कि गुजरात दंगों की भर्त्सना
किए बिना और इसके लिए नरेंद्र मोदी को 'हत्यारा' कहकर जिम्मेदार ठहराए बिना वे
'सेकुलर' नहीं कहलाएँगे और मुसलमान उन्हें अपना नहीं मानेंगे. लेकिन सवाल यह है कि
चुनाव के मौसम में नेताओं का यह 'मुस्लिम-प्रेम' और यह 'सेकुलरिज्म' क्या वाकई
सच्चा है?
यह सही है कि गुजरात दंगों की जितनी निंदा की जाए, वह कम है. किसी भी सभ्य समाज में
किसी भी हाल में दंगे नहीं होने चाहिए- चाहे वह 2002 का गोधरा कांड हो या गुजरात
दंगे, 1984 के सिख-दंगे हों या 2013 के मुजफ्फरनगर दंगे. लेकिन दंगों पर राजनीति
हो, यह भी किसी सभ्य समाज में उतनी ही निंदनीय है. पर हमारे देश में दंगों को लेकर
राजनीति सालों-साल तो क्या, दशकों-दशक तक चलती रहती है. दंगों को लेकर
आरोपों-प्रत्यारोपों का दौर बदस्तूर जारी रहता है और राजनीतिक नफा-नुकसान देखकर
राजनीतिक जोड़-तोड़ भी बदस्तूर होते रहते हैं. अपने-अपने राजनीतिक मतलब के हिसाब से
धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता की परिभाषाएँ भी बदलती रहती हैं. कल तक जदयू
बीजेपी के साथ थी. आज एलजेपी बीजेपी के साथ हो गई है.
दरअसल, दंगों को लेकर कोई भी राजनीतिक पार्टी पूरी निष्पक्षता के साथ कभी अपना
स्टैंड नहीं रखती. उन्हें बस मुस्लिम वोट-बैंक से मतलब है. सच यही है कि हर कोई
मुस्लिम-वोट पाने मात्र के लिए ही दंगों का जिक्र बार-बार करता है. हर कोई अपने
चुनावी नफा-नुकसान के हिसाब से ही दंगों को तोलता-उछालता है. काँग्रेस नरेंद्र मोदी
को हरदम ललकारती रहती है कि वह गुजरात दंगों की जिम्मेदारी लेते हुए पूरे देश से
माफी माँगें, जबकि एसआईटी की जाँच और निचली अदालत में नरेंद्र मोदी कहीं भी दोषी
करार नहीं दिए गए हैं. वहीं काँग्रेस 1984 के सिख-दंगों के लिए माफी माँगने को कभी
तैयार नहीं हुई और उल्टे यह तर्क देती रही कि 'जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती
तो हिलती ही है.'
हरेक नेता नरेंद्र मोदी की पीएम पद की दावेदारी को इसलिए नकार देने की कोशिश करता
है कि उनके मुख्यमंत्री पद पर रहते गुजरात दंगे हुए. फिर तो इसी पैमाने पर काँग्रेस
को भी तौला जाना चाहिए और सिख-दंगों की जिम्मेदारी लेते हुए सोनिया गाँधी और राहुल
गाँधी को भी माफी माँगनी चाहिए. इतना ही नहीं, राहुल गाँधी को काँग्रेस के भावी
पीएम के रूप में भी पेश नहीं किया जाना चाहिए. लेकिन जब सिख-दंगों की बात आती है तो
काँग्रेस का स्टैंड बदल जाता है.
मुजफ्फरनगर दंगों के मामले में भी कुछ ऐसा ही है. मुलायम सिंह यादव गुजरात दंगों के
लिए मोदी को जी-भर कर कोसते हैं लेकिन मुजफ्फरनगर दंगों की नैतिक जिम्मेदारी तक
लेने से इंकार करते हैं जबकि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भी यूपी सरकार को ही
सीधे जिम्मेदार ठहराया है. सांप्रदायिक ताकतों को सत्ता से दूर रखने के मंशे से
'थर्ड-फ्रंट' एकजुट हो रहा है. लेकिन यदि मुलायम सिंह यादव और समाजवादी पार्टी के
शासन में मुजफ्फरनगर दंगे हुए तो मुलायम सिंह यादव किस आधार पर 'थर्ड-फ्रंट' में
पीएम पद के लिए अपनी दावेदारी पेश करते हैं? और उनके रहते 'थर्ड-फ्रंट' 'सेकुलर'
कैसे हुआ?
भाजपा पर यह भी आरोप लगाया जाता है कि भाजपा में मुस्लिम चेहरे नहीं के बराबर हैं
और उनको पार्टी का प्रतिनिधित्व नहीं दिया जाता है. लेकिन यह भी तो उतना ही सच है
कि 'सेकुलर' कही जाने वाली पार्टियों में भी मुस्लिम चेहरे उंगलियों पर गिनने लायक
ही हैं. जब अटल बिहारी बाजपेयी के प्रधानमंत्री रहते भाजपा द्वारा राष्ट्रपति पद के
लिए ए. पी. जे. अब्दुल कलाम को उम्मीदवार बनाया गया और वे राष्ट्रपति चुने गए, तो
जाति-धर्म-संप्रदाय से ऊपर उठकर पूरे देश ने उनका तहे-दिल से स्वागत किया और वे
सबसे लोकप्रिय राष्ट्रपति भी साबित हुए. लेकिन इसके बावजूद कुछ लोगों ने यह कहकर
भाजपा को घेरने की कोशिश की कि कलाम साहब तो 'प्रैक्टिसिंग मुस्लिम' ही नहीं हैं.
यह बिल्कुल हास्यास्पद आरोप था.
नरेंद्र मोदी पर यह भी आरोप लगता रहा है कि एक सार्वजनिक मंच पर उन्होंने मुस्लिम
टोपी पहनने से मना कर दिया, इसलिए वे 'सेकुलर' नहीं हैं. क्या ये दावे के साथ कहा
जा सकता है कि जो लोग मुस्लिम टोपी पहन लेते हैं, वे शर्तिया 'सेकुलर' हैं ही,
मुस्लिम हितैषी हैं ही? या फिर इस प्रकार मुस्लिम टोपी पहनना उनकी वोट-बैंक वाली
राजनीति का एक एजेंडा मात्र है? यहाँ यह भी सवाल उठाया जा सकता है कि इसी तर्ज पर
किसी मुस्लिम नेता को तिलक-चंदन लगाकर 'सेकुलर' बनने का पाठ क्यों नहीं पढ़ाया जाता?
किसी मुस्लिम नेता के तिलक-चंदन नहीं लगाने पर हिंदू समुदाय उन पर यह आरोप तो नहीं
लगाता कि आप 'सेकुलर' नहीं हैं.
गुजरात दंगों के बाद भी नरेंद्र मोदी यदि भारी मतों से गुजरात के मुख्यमंत्री
बार-बार चुने जाते रहे हैं तो इसमें मुस्लिम समुदाय का समर्थन भी यकीनन रहा है
क्योंकि बतौर मतदाता उनकी तादाद भी बेहद मायने रखती है. फिर 2002 के बाद गुजरात में
लगातार अमन-चैन और सौहार्द कायम है और राज्य तेजी से विकास की राह पर आगे बढ़ रहा
है. गुजरात दंगों को लेकर लंबे समय तक नरेंद्र मोदी से परहेज करने और उन्हें अपने
देश आने का वीसा देने से मना करते रहने के बाद, अब तो अमेरिका-ब्रिटेन जैसे देशों
के मंत्रियों, राजनेताओं, राजदूतों और राजनयिकों ने भी मोदी से मेलजोल बढ़ाना शुरू
कर दिया है और दिल्ली से पहले गुजरात का दौरा करने लगे हैं ताकि गुजरात दंगों से
आगे बढ़ते हुए, व्यापारिक और कारोबारी संबंध बढ़ाये जा सकें. इन तथ्यों को भी
नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. ऐसे में नरेंद्र मोदी की पीएम पद की दावेदारी को सिर्फ
इसलिए नकार देना तर्कसंगत नहीं है कि उनके रहते गुजरात दंगे हुए.
हाँ, नरेंद्र मोदी पीएम पद के सबसे योग्य उम्मीदवार हैं या नहीं, इस पर व अन्य कई
पैमानों पर उनका मूल्यांकन किया जा सकता है और अवश्य किया जाना चाहिए. मोदी के
विकास के दावे पर भी चर्चा की जा सकती है और नैतिकता के दूसरे मुल्यों को लेकर भी.
अन्य राजनैतिक दलों के पीएम उम्मीदवारों को भी अपने-अपने 'विजन' और 'मिशन' पेश करने
चाहिए. इससे देश की जनता को भी सबसे योग्य प्रधानमंत्री चुनने में मदद मिलेगी.
लेकिन ऐसा कहाँ हो रहा है? सब तो आरोप-प्रत्यारोप की धींगामुश्ती में ही व्यस्त
हैं. यदि हरेक राजनैतिक दल बस गुजरात दंगों का आरोप मढ़कर नरेंद्र मोदी को खारिज
करना चाहेंगे और 'सेकुलर' कहलाना चाहेंगे तो जनता तो यही समझेगी कि यह बस मुसलमानों
को लुभाना-भरमाना चाहते हैं. उन्हें मालूम है कि गुजरात दंगों से आगे जहाँ और भी
हैं. और यदि मान लें कि देश की जनता इसी आधार पर मोदी और अंतत: भाजपा को खारिज करने
को तैयार हो जाती है तो वह सिख-दंगों के लिए काँग्रेस को भी माफ नहीं करेगी और
मुजफ्फरनगर दंगों के लिए समाजवादी पार्टी से भी हिसाब माँगेगी.
06.04.2014, 13.00 (GMT+05:30) पर प्रकाशित