योजना आयोग का मतलब समझिए
विचार
योजना आयोग का मतलब
समझिए
रघु
ठाकुर
15 अगस्त के भाषण में प्रधानमंत्री श्री मोदी ने योजना आयोग को समाप्त करने का
इरादा व्यक्त किया था और उसके बाद से निरंतर समाचार पत्रों में योजना आयोग के पक्ष
विपक्ष में बयान या लेख आदि आ रहे हैं और आना स्वाभाविक भी है. हमारे देश की आम
बीमारी के अनुसार योजना आयोग के पक्ष या विपक्ष में बहस भी अपने अपने राजनैतिक
नजरिये या संपर्कों पर आधारित है. बहस के मूल प्रश्न लगभग अचर्चित है.
वयोजना आयोग जैसी संस्था का प्रावधान भारतीय संविधान के बनाते समय संविधान
निर्माताओं की कल्पना या विचार में नही था और इसलिये संविधान में योजना आयोग का कोई
प्रावधान नही है. योजना आयोग को समाप्त करने के बारे में हम लोग श्री नरेन्द्र मोदी
के प्रधानमंत्री बनने के पहले से ही कहते रहे हैं.
हमारे समाजवादी साथी श्री रविकरण जैन, जो इलाहाबाद उच्च न्यायालय के ख्यातिनाम वकील
है तथा पी. यू. सी. एल. जैंसी संस्थाओं से जुड़े हुये है, पिछले कई वर्षों से यह
अभियान विचार के स्तर पर चला रहे थे कि योजना आयोग संविधानेत्तर संस्था है जिसका
कोई संवैधानिक प्रावधान नही है और उसे समाप्त किया जाना चाहिये. 2013 के सितम्बर
माह में दिल्ली में लोक राजनीति मंच की बैठक भी हुई थी जिसमें मैं, स्वतः भी शामिल
था, उसमें यह तय हुआ था कि योजना आयोग को समाप्त करने के लिये योजना भवन के सामने,
जो योजना आयोग का मुख्यालय है, के समक्ष प्रर्दशन किया जाये तथा उसे समाप्त करने की
मांग उठायी जाये.
योजना आयोग की उत्पत्ति प्रथम प्रधानमंत्री स्व. नेहरू की कल्पना से हुई थी और उसके
पीछे उनके मस्तिष्क में रूसी तर्ज पर जो पंचवर्षीय विकास योजना बनाने की कल्पना थी,
वह मुख्य कारक था. पंचवर्षीय योजना बनाने का एक तार्किक आधार भी था चूंकि देश में
संविधान के अनुसार संसद और विधानसभा की अवधि तथा चुनाव 5 वर्ष के लिये होते हैं अतः
पंचवर्षीय योजना सरकार ने बनाई ताकि 5 साल के लिये सरकार के विकास कार्यों का
अग्रिम निश्चय हो और इस प्रारूप पर सरकारें 5 वर्ष तक काम करें.
दरअसल इस पंचवर्षीय योजना की कल्पना विकास के कामों की मात्रा तो तय करती थी परन्तु
एक अर्थ में केन्द्रीयकरण, जो संविधान की कल्पना के विपरीत है, की भी परिस्थितियों
का निर्माण करती थी . महात्मा गॉंधी देश में ग्राम स्वराज चाहते थे जो आर्थिक,
राजनैतिक विकेन्द्रीकरण का चरम लक्ष्य था. समाजवादी नेता डॉ. लोहिया ने चौखम्भा
राज्य की कल्पना प्रस्तुत की थी जो तत्कालीन सत्ता के केन्द्रीयकरण और महात्मा
गॉंधी के ग्राम स्वराज की कल्पना के बीच एक विश्राम बिन्दु था जो आर्थिक, राजनैतिक,
प्रशासनिक शक्तियों को चार हिस्सों में बॉंटने की कल्पना प्रस्तुत करता था.
लोहिया कहते थे कि भारतीय लोकतंत्र दो खम्भों पर टिका है केन्द्र और राज्य, इसमें
जिले और पंचायत के दो खम्भे और जोड़े जाना चाहिये तथा केन्द्र और राज्य की उन
शक्तियों को जिनका संबंध जिले और पंचायत से है, के निर्णय का अधिकार क्रमशः जिला
पंचायत और ग्राम पंचायत को सौंप देना चाहिये जो केन्द्रीय विषय है, विदेश नीति,
विदेश व्यापार, रक्षा, वाणिज्य आदि उन्हे केन्द्र सरकार के पास, जो राज्य के स्तर
के विषय है वे राज्य के पास, बकाया सारे जिला या पंचायत स्तर के विषय जिला और ग्राम
पंचायत के पास रहे.
लोहिया का कहना था कि गॉंव में कहॉं कुंआ खुदना है, कहॉं हैण्ड पम्प लगना है, शाला
भवन बनाना है, इसका फैसला गॉंव वाले ही करे. साथ ही केन्द्र के आर्थिक संसाधनों में
जिले और ग्राम पंचायत की हिस्सेदारी अधिकारपूर्वक हो न कि कृपा के बतौर परन्तु स्व.
नेहरू ग्रामीण समाज को असभ्य और बर्बर मानते थे तथा वे उनके हाथ राजनैतिक सत्ता
देने की कल्पना से भी भयभीत थे इसलिये वे महानगरों के विकास के पक्षधर थे और योजना
आयोग उनकी इसी केन्द्रीयकरण की कल्पना की संतान था और जब इसका प्रारंभिक गठन हुआ,
वह महज एक सरकारी आदेश से हुआ था यहॉं तक कि संसद में भी इस बारे में तब तक कोई
कानून पारित नही हुआ था याने अपने जन्मकाल में योजना आयोग प्रधानमंत्री की सहयोगी
भ्रात संस्था थी और जिसका काम प्रधानमंत्री की कल्पना के आधार पर विकास का ढ़ॉंचा
खड़ा करने में सहयोग करना था.
नेहरू की कल्पना के भवन निर्माण के लिये मिस्त्री का काम करने वाली जमात योजना आयोग
थी और इसीलिये प्रधानमंत्री उसके अध्यक्ष होते थे तथा उपाध्यक्ष नामजद कर वे उसके
माध्यम से आर्थिक सूत्र निर्धारित और संचालित करते थे परनतु कालांतर में और विशेषतः
1990 के बाद कुछ केन्द्रीय सत्ता के कमजोर होने की वजह से, कुछ प्रधानमंत्रियों की
कमजोर ताकत की वजह से योजना आयोग स्वशाशी निकाय का रूप लेने लगा तथा प्रधानमंत्री
सचिवालय के समकक्ष एक समानान्तर आर्थिक सत्ता का रूप लेने लगा.
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