सरकार के हाथ में आपकी प्राइवेसी
विचार
सरकार के हाथ में
आपकी प्राइवेसी
प्रीतीश
नंदी
जॉर्ज ऑरवेल के क्लासिक उपन्यास ‘1984’ के साये में पले-बढ़े किसी भी व्यक्ति की तरह
मैं हमेशा इस बात से आतंकित रहा हूं कि कहीं मैं मोहरा बनकर न रह जाऊं. इसीलिए बिना
किसी राजनीतिक कारण के मैंने आधार की अनदेखी कर दी..
मैं इसे मेरी प्राइवेसी का उल्लंघन मानता हूं. मेरे पास पेन कार्ड है लेकिन, मुझे
नहीं पता कि इसका का क्या अर्थ है और मैंने यह क्यों ले रखा है. मैं शायद ही कभी
कीमती चीजें खरीदता हूं और जब खरीदता भी हं तो चेक देता हूं. यह पुरानी आदत है,
जिससे मुक्त होना कठिन है.
तो मैं अपने वॉलेट में ड्राइविंग लाइसेंस के साथ पेन कार्ड और कुछ क्रेडिट कार्ड
रखता हूं, जिन्हें मैं बड़े संकोच के साथ इस्तेमाल करता हूं. मैं महीने में दो बार
बैंक से नकद राशि निकालता हूं और उसे खर्च करता हूं. बाकी समय मैं चेक देता हूं
जैसा मेरे पिताजी किया करते थे. मैं जानता हूं कि यह बहुत ही पुराना तरीका है.
लेकिन, सुविधा देखकर तरीका चुना जाता है और मैं पैसे को लेकर बहुत ज्यादा चिंता
नहीं करता फिर चाहे कमाने की बात हो, खर्च करने की या निवेश करने की.
मैंने अपनी ज़िंदगी में अन्य चीजों का चुनाव किया है. इसका मतलब यह नहीं कि मैं
डिजिटल नहीं समझता लेकिन, मैं इसके बगैर भी खुश हूं और मुझसे बेहतर महिला-पुरुषों
को इसका उपयोग कर वे सारे अद्भुत फायदे उठाने दीजिए, जिसकी सिफारिश सरकार करती है.
मैंने तो अपना रास्ता चुन लिया है.
डिजिटल दुनिया के प्रलोभनों की मुझ पर चाहे जितनी बमबारी कर दी जाए पर मैंने दौड़कर
आधार कार्ड बनाने के विचार को आसानी से दबा दिया.इसे मैं सिर्फ इसलिए बनवाऊं कि
मेरे बैंकर मुझे धमकियां दे रहे हैं और मेरे टैक्स संबंधी लोग कह रहे हैं कि इसके
बिना मैं अपना अाईटी रिटर्न नहीं भर पाऊंगा.
सच तो यह है कि इससे तो मैं और भी अड़ जाता हूं. मैंने तब से टैक्स रिटर्न भर रहा
हूं जहां तक मेरी याददाश्त जाती है. मेरे परिवार का हर सदस्य (सिर्फ चार पैरों वाली
मेरी बेटियों मोजो और मोगली को छोड़कर) भी अपने रिटर्न भरता है. मैं यह तब तक करता
रहूंगा जब तक कि लोग मुझे पेमेंट करने लायक समझते रहेंगे. फिर मुझे आधार की क्या
जरूरत है?
मैं सरकार से किसी फायदे का दावा नहीं करता (घर, लालबत्ती वाली कार, चीखता साइरन,
लंबे.. लंबे समय से कोई अवॉर्ड नहीं, क्योंकि सरकार अपनी अलग राय रखने वाले लेखकों
व पत्रकारों को पसंद नहीं करती) बशर्ते आप उस 21 हजार रुपए पर विचार न करे, जो मुझे
छह साल सांसद रहने के बदले में पेंशन के रूप में मिलते हैं. फिर बांहें क्यों मरोड़ी
जा रही हैं?
इस सबकी शुरुआत ऑरवेल (असली नाम: एरिक ऑर्थर ब्लैयर, मोतीहारी में जन्म) से हुई और
हालांकि ‘1984’ आकर चला गया है, खतरा बना हुआ है. विभिन्न राष्ट्रों में एक बाद
दूसरी सत्ताओं ने अपने नागरिकों पर टैग लगाने के विभिन्न तरीके आजमाए हैं.
ब्रिटिश सरकार ने इस पर बहुत भारी रकम खर्च की और फिर यह प्रयास छोड़ दिया, जो
बुद्धिमानी ही थी. उन्हें अहसास हो गया कि लोगों की पूरी ज़िंदगी आसानी से हेक होने
या चुराए जा सकने वाले कार्ड पर रखने की बजाय गलत काम करने वालों को पकड़ने के सरल
तरीके भी हैं.
यहां तो हम निजता यानी प्राइवेसी की परवाह ही नहीं करते. हम ज्योतिषियों और
हस्तरेखा विषारदों को हमारी निजी ज़िंदगी में दखल देने देते हैं. वास्तु और योगा
गुरु घर पर आकर बताते हैं कि हम कौन हैं. अब आधार यही करना चाहता है. मैं तो खुद को
खोलना चाहता हूं. मैंने अपनी ज्यादातर ज़िंदगी में यही करने का प्रयास किया है.
संभव है मैं हमेशा सफल नहीं रहा हूं लेकिन, इसका अर्थ यह नहीं कि आधार मेरी आत्मा
में खिड़की खोल देगा. इसके लिए कविता मुझे बेहतर लगती है. कला या संगीत का तो किसी
भी दिन स्वागत है.
इसलिए प्रिय सरकार, जरा दयालु, उदार और बुद्धिमान बनें. अपने जनादेश पर जमे रहिए.
हमें बेहतर सड़कें, सुरक्षित घर दीजिए. ऐसे पुल बनाइए, जो गिर न जाएं. महिलाओं और
बच्चों को पुरुषों की शिकारी नज़रों से बचाएं, हत्याएं करने वाली बुद्धिहीन भीड़ को
रोकें, अपराध खत्म करें, ऐसी मानवीय जेलें बनाएं जहां कैदियों को यंत्रणा न दी जाती
हो, उनकी हत्या न होती हो, अवैध वसूली करने वालों को रोकें, नफरत और शत्रुता फैलाने
वालों को हिरासत में बंद करें लेकिन, उन पर निष्पक्ष मुकदमा चलाएं. भ्रष्टाचार
रोकें, दहेज प्रथा पर रोक लगाएं, बूढ़े और बीमार लोगों को संरक्षण दें. गरीबों को
गरिमा हासिल करने में मदद करें. वे 70 वर्षों से इसके लिए रो रहे हैं.
कल विस्कॉन्सिन की टेक्नोलॉजी कंपनी थ्री स्क्वैयर मार्केट ने अपने कर्मचारियों की
त्वचा में -अंगूठे और तर्जनी अंगूली के बीच- माइक्रोचिप लगा दी. किसी ने विरोध नहीं
किया बल्कि कर्मचारियों ने तो इसे पसंद किया. स्वीडन की स्टार्टअप एपीसेंटर भी यही
कर रही है. दुनियाभर की कंपनियों की निगाह इस नई टेक्नोलॉजी पर है.
ठीक ऑरवेल के ‘1984’ का दृश्य जहां शिकार हुए लोग अपने को शिकार बनाए जाने से नाराज
भी नहीं होते. एक बार चिप लगा दी जाए तो आरएफआईडी टेक्नोलॉजी वाला कोई भी काम किया
जा सकता है- दफ्तर की इमारत में कार्ड स्पाइपिंग, लंच का भुगतान- यह सिर्फ हाथ
लहराकर संभव है. कर्मचारी इसे सुविधा समझ रहे हैं लेकिन, सुविधा किसके लिए? उनके
लिए जो माइक्रोचिप को कंट्रोल करते हैं.
आज यह आपको किसी इमारत में प्रवेश देती है या लंच की सुविधा देती है, कल यह आपको
एयरपोर्ट पर चेकिंग से बचाकर जाने देगी लेकिन, अंतत: आपकी पूरी ज़िंदगी उस
माइक्रोचिप पर होगी. यह मालिक व कर्मचारी के रिश्ते को बदल देगी. इससे प्राइवेसी,
व्यक्तिगत पहचान जैसे महत्वपूर्ण प्रश्न खड़े होते हैं, जिनपर सुप्रीम कोर्ट में हाल
ही में जिरह पूरी हुई है.
हर कोई दावा करता है कि माइक्रोचिप्स एनक्रिप्टेड होने से सुरक्षित है. आधार वाले
भी यही कहते हैं. लेकिन, घुटे हुए माहिर हैकरों की दुनिया में कुछ भी सुरक्षित नहीं
है. इससे भी महत्वपूर्ण है कि सारी जानकारी तक पहुंच किसके नियंत्रण में है?
आज लगाई गई माइक्रोचिप या जारी किए गए कार्ड का सिद्धांतत: बहुत आसानी से भविष्य
में इतनी गहराई से दुरुपयोग किया जा सकता है कि आप और मैं कल्पना नहीं कर सकते.
सोचिए, क्या वाकई आप ऐसा होने देना चाहते हैं? आप रोबोट होना चाहते हैं?
13.08.2017,
15.15 (GMT+05:30) पर प्रकाशित