घृणा के बीज से वोटों की फसल
मुद्दा
घृणा के बीज से वोटों की फ़सल
राम पुनियानी
अपनी चुनावी सभाओं में वरूण गांधी अल्पसंख्यकों के खिलाफ जहर उगल रहे हैं.
मुसलमानों के बारे में जो भी पूर्वाग्रह और भ्रांतियां हमारे समाज में आम हैं,
उन्हें श्री गांधी अत्यंत घृणास्पद तरीके से प्रस्तुत कर रहे हैं. वे मुसलमानों को
आक्रामक व हिंसक बता रहे हैं. वे कह रहे हैं कि मुस्लिम बस्तियों में हथियारों का
जखीरा बनाया जा रहा है. वे कह रहे हैं कि मुसलमानों का मुख्य निशाना हिन्दू हैं. वे
यह भी कह रहे हैं कि गोहत्या के सुबूत पाए जाने के बावजूद मुसलमानों के खिलाफ कोई
कार्यवाही नहीं हो रही है.
हमारे देश
में साम्प्रदायिक राजनीति का उदय एक ओर मुस्लिम लीग और दूसरी ओर संघ-हिन्दू महासभा
के उभरने के साथ ही हुआ और उसके साथ ही आया घृणा फैलाने वाली भाषा के इस्तेमाल का
युग
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ये
तो वे बातें हैं जिन्हें कहना उन्होंने प्रेस के सामने स्वीकार किया है. उन्होंने
उस सीडी को नकली बताया है जिसमें उन्हें यह कहते हुए दिखाया गया है कि वे हिन्दुओं
पर उठने वाले हाथों को काट डालेंगे और यह कि मुसलमानों के नाम ही डरावने होते है.
यह
सीडी चुनाव आयोग के पास पहुंच गई है. आयोग ने उन्हें नोटिस जारी कर आदर्श चुनाव
संहिता के उल्लघंन का दोषी करार दिया है. इस बीच, पहले तो उन्होने माफी माँगी और
बाद में सीडी को धोखाधडी बता दिया.
ऐसा लगता है कि श्री गांधी को यह सलाह दी गई है कि वे अपने भाषण के लिए माफी न
मांगे क्योंकि उससे भाजपा के ''समर्थकों'' तक सही संदेश पहुंचा है.
सीडी के जो हिस्से टीवी पर दिखाए गए, उनको देख कर मन वितृष्णा से भर उठता है. जो
भाषा इस्तेमाल की गई, जो बाते कही गईं और जिस ढंग से कही
गईं – यह सब देखकर उलटी करने को जी चाहता है.
इस तरह के घृणा फैलाने वाले भाषण, धर्म और भाषा की राजनीति का हिस्सा होते हैं. इस
तरह की भाषणबाजी का अंत हिंसा में होता है. साम्प्रदायिक पार्टियां यह अच्छी तरह
जानती हैं कि इस तरह की भाषा का कब और किस तरह से इस्तेमाल किया जाए.
इस रणनीति के इस्तेमाल के दो उदाहरण याद आते हैं. आरएसएस साध्वी ऋतंभरा को
प्रवचनकर्ता के रूप में सामने लाई. बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने के समय के आस-पास
ऋतंभरा का मुसलमानों पर ओछे और कटु हमले करने के लिए जम कर इस्तेमाल किया गया. जब
इस तरह के घृणा फैलाने वाले भाषणों की जरूरत नहीं रही तो साध्वी ऋतंभरा को किसी
गुमनाम आश्रम में भेज दिया गया.
इस तरह की भाषणबाजी विहिप के साधुओं और तोगड़िया जैसे फिरकापरस्ती फैलाने वाले
नेताओं के दल भी कर रहे हैं. कई और नेता इन्हीं ओछी और झूठी बातों को थोड़ी बेहतर
भाषा में कह रहे हैं. श्री नरेन्द्र मोदी के भाषणों का लब्बो-लुआब भी यही रहा है.
उनकी भाषा उनकी राजनीतिक आवश्यकताओं के अनुरूप बदलती रही है. जब उन्होंने कहा कि
गुजरात दंगों के शिकार मुसलमानों के राहत शिविर, बच्चे पैदा करने के कारखाने बन गए
हैं और उन्हें बंद कर दिया जाना चाहिए, तब वे इस दुष्प्रचार को हवा दे रहे थे कि
मुसलमान ढेर सारे बच्चे पैदा करते हैं. इस तरह की बातों से अल्पसंख्यकों का और
आतंकित हो जाना स्वाभाविक था. वरूण गांधी पर तो मीडिया की नजर थी परंतु मीडिया की
नजरों से दूर बड़ी संख्या में साम्प्रदायिक नेता जहर फैलाने में जुटे हुए हैं.
श्री बाल ठाकरे, जो वरूण गांधी की प्रशंसा के गीत गा रहे हैं, ने मुंबई दंगों के
दौरान शिव सेना कार्यकर्ताओं को हिंसा करने के लिए भड़काया था. श्री ठाकरे इसलिए बच
निकले क्योंकि पहले तो उन्होंने बड़ी चालाकी से अपनी जहरीली बातें कहीं और दूसरे
इसलिए क्योंकि हमारे देश का कानून अभिव्यक्ति की आजादी और घृणा फैलाने वाले
वक्तव्यों में बहुत साफ अंतर नहीं करता.
हमारे देश में साम्प्रदायिक राजनीति का उदय एक ओर मुस्लिम लीग और दूसरी ओर
संघ-हिन्दू महासभा के उभरने के साथ ही हुआ और उसके साथ ही आया घृणा फैलाने वाली
भाषा के इस्तेमाल का युग. नवाबों, राजाओं और जमींदारों ने इस राजनीति को मजबूती दी.
धर्म को राष्ट्रवाद से जोड़ने से इस प्रवृत्ति की शुरूआत होती है. दूसरे धार्मिक
समुदाय से घृणा करना अगला कदम है और मन की इस घृणा को होंठों पर आने में देर नहीं
लगती. इस प्रवृत्ति ने देश में पिछले छ:ह-सात दशाकों में सैकड़ों छोटे-बड़े
साम्प्रदायिक दंगे करवाए हैं.
संघ की शाखाओं में युवकों के मन में योजनाबद्ध तरीके से अल्पसंख्यकों के प्रति घृणा
भरी जाती है. यद्यपि वरूण गांधी ने शाखाओं में हाजिरी नहीं दी है, परंतु भाजपा
नेताओं से मेल-मिलाप के दौरान शायद घृणा का ''वायरस'' उनके अंदर भी प्रवेश कर गया
है. मन में भरी यह घृणा उनके भाषण में जाहिर हुई है
वरुण गांधी की सीडी से एक और बात बहुत स्पष्ट है औऱ वह यह कि रैली में उपस्थित भीड़
का एक बड़ा हिस्सा उनके हिंसक इरादों का समर्थक था. वो गाय को बचाने के लिए
मनुष्यों के हाथ काटने के लिए तैयार है.
इस तरह के घृणा से लबरेज़ भाषणों से समाज की सोच पर असर पड़ता है और साम्प्रदायिक
दंगे करवाना आसान हो जाता है. साम्प्रदायिक हिंसा से समाज का धु्रवीकरण होता है और
दोनों समुदाय अपने-अपने मोहल्लों मे सिमट जाते हैं. यह सब कुछ गुजरात में हो चुका
है.
भारत में घृणा की राजनीति करने वाले सभी नेता संकीर्ण, साम्प्रदायिक विचारधारा के
रहे हैं. बाल ठाकरे ने पहले दक्षिण भारतीयों और फिर मुसलमानों के खिलाफ जहर फैलाया.
उनके भतीजे अब उत्तर भारतीयों को मुंबई से खदेड़ना चाहते हैं.
जिस समुदाय के खिलाफ घृणा फैलाई जाती है उसके सदस्य अपने आस-पास न केवल भौतिक वरन्
मनोवैज्ञानिक दीवारें बना लेते हैं. आपसी भाईचारा, सद्भाव और प्रेम-जो प्रजातंत्र
के मूल तत्व हैं-बिखरने लगते हैं. अंतत:-जैसा कि जर्मनी में हुआ था- घृणा का शिकार
समुदाय सामाजिक अलगाव और भेदभाव का भी शिकार हो जाता है और कभी-कभी यहूदियों की
तरह, उस समुदाय का सफाया करने की बात भी उठने लगती है.
आज जरूरत इस बात की है कि सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक स्तर पर मेल-जोल, सद्भाव
और भाईचारे का वातावरण बनाया जाए. ऐसे कानून बनें जिनसे वरूण गांधी और बाल ठाकरे
जैसे लोग विष-वमन करने के पहले दस बार सोचें.
23.03.2009, 17.47 (GMT+05:30) पर
प्रकाशित