सत्यदेव दुबे की अनुपस्थिति का मतलब
सत्यदेव दुबे की अनुपस्थिति का मतलब
बिलासपुर. 26 दिसंबर 2011. सतीश जायसवाल
हिन्दी रंगमंच के जिन नामों ने भारतीय कला फिल्मों के आन्दोलन के लिये मजबूत जमीन
तैयार की और उसे संभावनाओं का पोषण देते रहे, बिलासपुर के पंडित सत्यदेव दुबे का
नाम उन में प्रमुख है. सत्यदेव दुबे अब हमारे बीच नहीं रहे. अब हमारे पास उनका नाम
और इस नाम के साथ जुड़ी हुयी स्मृतियाँ हैं.
25 दिसंबर को उनका मुंबई में निधन हो गया. वे सितंबर महीने से दौरा पड़ने के बाद से
ही कोमा में थे और एक अस्पताल में भर्ती थे. उनके निधन के समय पृथ्वी थियेटर्स के
कलाकार उनके साथ थे, जिनके साथ सत्यदेव जी का जीवन भर साथ रहा. यह कुछ कलाकारों या
कुछ नामों तक सीमित साथ नहीं, बल्कि हिंदी रंगमंच की परंपरा के साथ व्यापक जुड़ाव
का साथ था. इस लिये उन के बाद भी यह बना रहेगा.
दिसंबर 2007 के अपने एक अंगरेजी आलेख 'ड्रामा विद अ डिस्टिंक्ट विजन' में गिरीश
कर्नाड ने सत्यदेव दुबे के रंगमंच के साथ जुड़ाव के बारे में एक दिलचस्प जानकारी दी
थी कि वो अंतर्राष्ट्रीय टेस्ट क्रिकेट खेलने के लिये बिलासपुर से मुम्बई गए थे,
लेकिन वहाँ नाटक खेलने लगे. मुम्बई में हिन्दी नाटक को स्थापित करने का श्रेय सत्य
देव दुबे को जाता है. अपने उस आलेख में गिरीश कर्नाड ने लिखा था- सत्यदेव दुबे 72
के हो चुके हैं, फिर भी पूरे तौर पर जीवंत और चैतन्य हैं.
दिसंबर-जनवरी 2000-2001 में बिलासपुर में नेशनल बुक ट्रस्ट ने, पदुम लाल पुन्ना लाल
बक्शी सृजन पीठ के साथ मिल कर राष्ट्रीय पुस्तक मेला आयोजित किया था. उस समय मैं
सृजनपीठ का अध्यक्ष था, इसलिए मैंने आग्रह किया था कि समारोह की अध्यक्षता सत्यदेव
जी करें. उस पुस्तक मेला में मेरे एक कहनी संकलन 'कहाँ से कहाँ' का विमोचन भी होना
था. उस के लिये भी मैंने उन से आग्रह किया था.
संकलन का विमोचन करते हुए उन्होंने पुस्तक पर लिख कर पूछा था- “लिखते तो रहोगे ना
?” यह प्रश्न वही कर सकता था, जो 72 की उम्र में भी जीवंत और चैतन्य हो. लेकिन अब
मैं अब किसे बताऊँ कि हाँ, मैं लिख रहा हूँ और लिखता रहूँगा.
सत्य देव दुबे की जीवन्तता, उनकी उस ऊर्जा से शक्ति पाती थी, जो दूसरों में जीवन के
प्रति विश्वास जगाने में समर्थ थी. 1981-82 में फिल्म इंस्टीटयूट में मेरी मुलाकात
रंगमंच के एक कलाकार, जयदेव हट्टंगडि से हुयी थी. जयदेव के साथ एक स्वाभाविक आकर्षण
मुझे यह भी रहा कि रोहिणी उनकी पत्नी हैं. जयदेव ने मुझे बताया कि किन्हीं कारणों
से वह तो एक गहरे अवसाद में चले गए थे और आत्मह्त्या की बात भी सोचने लगे थे. लेकिन
सत्यदेव दुबे उन्हें आत्मह्त्या के दरवाजे से वापस खींच कर रंगमंच में फिर से ले
आये थे. शायद, सत्यदेव दुबे ने तब उनसे भी कुछ ऐसे ही पूछा होगा- अब रंगमंच में बने
तो रहोगे ना ?
रंगकर्म सत्यदेव का रचना व्यक्तित्व था और उसकी जीवंतता रंगमंच पर दिखती थी. उनके
जाने के बाद भी वहाँ कोई रिक्ति नहीं आयेगी, अब वहाँ जीवन की रचना शक्ति में उन के
विश्वास का स्पंदन होगा. रंगमंच उनका जीवन भी था और विश्वास भी था. और जो उनके पास
था, वही उन्होंने अपने साथ के लोगों को और अपने बाद के लोगों को भी दिया. वह मैं भी
था और जयदेव भी थे और वो दूसरे लोग भी रहे होंगे, जिन्हें विश्वास की ऊर्जा से
रचना-शक्ति मिलती है.