पत्नी का पत्र प्रेमिका के नाम
कहानी
पत्नी का पत्र प्रेमिका के नाम
पुष्पा तिवारी
प्रिय......
पता नहीं क्यों कलम तुम्हारा नाम नहीं लिखना चाह रही.शायद इस पत्र को देखते ही तुम
सकपका जाओ या डर जाओ लेकिन घबराओ नहीं यह पत्र मैंने तुम्हें डराने धमकाने या
मिन्नतें करने के लिए नहीं लिखा है. बल्कि मैं तो तहे दिल से शुक्रिया अदा करना
चाहती हूँ.
मुझे अब तुमसे कोई ईर्ष्या नहीं. न कोई डर. अनजाने ही तुमसे एक नेक काम हो गया.
तुमने मुझे मेरे खुद से मिला दिया. मुझे अपने औरतपन से परिचित करा दिया. वरना मैं
तो 'मन फूला फूला फिरे जगत में' के बाद 'कैसा नाता रे' से परिचित ही नहीं हो पाती.
तुमने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया. अपने ही दिल की जिस आवाज को मैंने कभी मन के
कुएँ में दफन कर दिया था......अब स्पष्ट सुन सकती हूँ. इंद्रियों के जंग लगे ताले
खुल गए. खुद के पहचाने जाने की इच्छा जागृत हो चली है. मेरे अंदर के सारे डर समय
समय पर फन काढ़कर रोकते रहते थे. आज मर चुके हैं. तभी तो निडर होकर तुम्हें पत्र लिख
रही हूँ. हम 'मिडिल क्लास' औरतें बिना बात के डरने का स्वभाव लेकर ही पैदा होती
हैं. तुम हमेशा मुझे ताना मारती थीं न ‘मिडिल क्लास मेन्टेलिटी‘ का.
हाँ, मैं मानती हूँ कि मैं मिडिल क्लास संस्कारों वाली औरत हूँ. मेरी दुनिया में उन
मूल्यों की अहमियत है. लेकिन मध्यवर्गीय औरत होने का मुझे कोई अफसोस नहीं है. मिडिल
क्लास की सीमित जिन्दगी, सीमित आकांक्षाएँ, सीमित सुविधाएँ हमें दूसरा चेहरा नहीं
ओढ़ने देतीं. हमारे ही कंधों पर परिवार का स्वरूप बचा रह गया है. हम भले ही अपना मन
मसोसते रहें लेकिन दूसरों के लिए जीने को आदर्श समझते हैं. तुमसे औरतें ईर्ष्या
करती हैं क्योंकि तुम पुरुष मित्रों को आकर्षित करती हो. तुम्हें तुम्हारी थोड़ी देर
की ये खुषियाँ मुबारक! फिर उन्हीं खुशियों की राख पर बैठकर रोती क्यों हो? तुम्हारे
लिए तो कुछ भी स्थायी नहीं. न प्रेम, न उत्तेजना, न अवसाद. तुम चार दिन की चाँदनी
में जीकर कितना अँधेरा बटोर लेती हो. दया आ रही है तुम पर. लेकिन मेरी खुदी किसी की
दया स्वीकारने तैयार नहीं. हम बहुमत में हैं. हमारा सोच तकरीबन एक जैसा हो. बकौल
तुम्हारे हममें कोई विशिष्टता नहीं. उससे क्या होता है?
दो अक्टूबर मेरी डायरी में भले ही काला दिन बन गया हो वैसे तो जन्मदिन है किसी का.
मैं उसे कभी नहीं भूल पाऊँगी. जब बंद दरवाजों के अंदर की बात बाहर आ ही गई तब मेरा
भी हक बनता है अपनी बात कहने का. अब तो यह भी समझ आ गया है कि शायद हम बुरी से बुरी
स्थिति के लिए हमेशा तैयार रहते होंगे लेकिन जानते नहीं. अब तो लोग हमसे डरने लगे
हैं.शायद तुम भी? मेरे रहते कुछ नहीं कर सकीं न तुम....न ब्लैकमेल.....न और कुछ.
मुझे घुटन से बाहर निकाल कर तुम खुद घुटन के दायरे में अपनी असफलता के लिए रो रही
होगी. तुम्हें तो ‘न माया मिली न राम.' वैसे यह बता दूँ ‘आहत अभिमान कभी शांत नहीं
होता. साँप भले ही न काटे समय समय पर फुफकारता जरूर है. मुझे लगता है मेरी करुणा
में ही हिंसा भी है. भले ही मैं खुद को हिंसक होने से बचाती रही हूँ. मैं तुम्हें
सारी बातें नहीं लिखूँगी. यदि लिख दूँ तो उनका दंश शायद निकल ही जाए. लेकिन इस पत्र
में वह सब जरूर कहूँगी जिससे हमारे जीवन में दंश आया है. मेरे लिए रिश्ते का अर्थ
सीधा जुड़ाव ही रहा है जिसे यादों, घावों और तकलीफों को अपने कंधों पर लादने की
जरूरत महसूस नहीं होती लेकिन ये रिश्ते......अनचाहे......तकलीफदेह......जिन्दगी पर
बोझ बन जाते हैं. दीमक की तरह चाटते रहते हैं.
कितने गर्व से मैं अपनी जिन्दगी बखानती थी. लेकिन तुमने......नहीं...... तकदीर ने
किस चौराहे पर लाकर पाथेय ही छीन लिया. कहीं कोई अपराधी वृत्ति होती होगी जो तुम
जैसों को अपना दोस्त बनाए फिरती है. चलो अच्छा ही हुआ इसी बहाने हमारे विश्वास का
लिटमस टेस्ट हो गया......और सोने का भाव मिट्टी मोल हो गया. इस टेस्ट के लिए
तुम्हें ही धन्यवाद दूँ.
पता है, प्रकृति के विरुद्ध मैंने जब भी कोई काम करने की चेष्टा की किसी न किसी
बहाने मुझे आघात ही मिला है. मेरा अहंकार (सुखी परिवार का) मेरा दर्प (अपने खुशहाल
दांपत्य का)......सब......काफूर हो गये. भले ही मेरी हँसी खत्म हो गई लेकिन जीने का
सलीका तो आ गया. इश्क में गाफिल लगते पुरुषों को आशिक बनाकर क्या किसी पट्टे से
बांध लेती हो? बहुत समय तक वह होता कहाँ है? यह हम पत्नियों के बस में ही है किसी
को जिन्दगी भर बांधे रखें. चाहे लड़ झगड़कर ही सही. वफादारी की ही कीमत होती है.
तुम्हारे आशिक बहुत जल्दी पट्टा छुड़ाकर भाग जाते हैं (भगवान उन्हें ऐसी अक्ल सदा
देते रहें.) तुम हमारे घर आकर देखो......कैसे बिना पट्टे के बांध रखा है. अब कहीं
नहीं जायेगा साला......?
सच में तुम काबिले तारीफ भी हो. मैं क्या सभी मानते हैं तुम्हें. तुम्हारे सारे गुण
नाचना, गाना, पाक विद्या में पारंगत होना और सबसे बड़ा वह गुण लच्छेदार बातों को कई
भाषाओं में अपने 'शिकार' तक सुसंस्कृत तरीके से पहुँचाना. हम भी आपकी इस कला के
कायल हैं. सोचते भी हैं कि काश इस कला का प्रयोग हम रोजमर्रा करते. लेकिन बकौल
तुम्हारे हम वही......टेकन फॉर ग्रांटेड जो हैं. अपनी दिखाऊ भद्रता और गुड़पगी वाणी
का प्रयोग तुमने हर पल जी भर कर किया. उसमें जंग न लग जाए, इसलिए उसे माँजती भी
रहीं. अपने सारे गुणों को परोसना तुम्हें खूब आता रहा. और इन लटकों झटकों से ही
रिझाती रही मर्दों को.
तुम 'प्रेयसियों' की जात भी अजीब होती है. औरत होकर भी कहाँ हो तुम औरत. तुमसे
अच्छी तो वे रेड लाइट एरिया वाली होती हैं जो खुले आम लाइसेंसी होती हैं. किसी को
उनके घर से नहीं बुलातीं. न ही किसी के घर जाती हैं. न......न......ये मत कहना कि
तुम सच्चा प्यार करती हो. सच्चे प्यार में बैंक की पास बुक उपहार नहीं हो सकती.
अपनी और अपने अलग अलग सरनेम वाले (गुप्त ही सही) बच्चों की बर्थडे पर कीमती तोहफे
माँगने को क्या प्यार कहोगी? ऐसे में प्यार का सिर शर्म से झुक नहीं जाता? ऐसे
प्यार में सच कितना है भला. मुझे लगता है सच्चे की जगह तुम्हें सुविधा शब्द का
इस्तेमाल करना चाहिए. जब बूढ़ी होकर अपने अतीत को कुरेदोगी और तुममें थोड़ी सी बसी रह
गई औरत कितनी शर्मिन्दा होगी.
आगे पढ़ें
हमारा मन, हमारा घर, हमारा आर्थिक संतुलन कैसे एक औरत ने बिगाड़ने की कोशिश की. ऊपर
से तुर्रा यह कि सब कुछ वापस जरूर करोगी. इसके पीछे भी तुम्हारी मंशा गड़बड़ लगती थी.
लेकिन फिर भी तुम्हें धन्यवाद दूँगी.
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गलती मेरी थी मैं क्यों सो रही थी. मैंने इतना
भरोसा क्यों किया. चोरों को मौका तो मैंने ही दिया. मुझे खुद अलर्ट रहना था. अपनी
लापरवाही को कोस रही हूँ मैं. जिंदगी को देखने का अपना ही बेफिक्र नजरिया.‘‘सब कुछ
ठीक चल रहा है‘‘, बहुत महँगा पड़ा. लेकिन यह सब तुम्हें क्यों लिख रही हूँ. तुम क्या
लगती हो मेरी. लेकिन शायद समझो. छलना की नाव पर सवार दो औरतों का दर्द......हम
दोनों ने उन आँखों में खुद के लिए प्यार की लौ जलती और बुझती देखी है. हममें उस
गर्मी का अहसास है. हम उसे खुशी देने वाले बने और दुख का कारण भी......हमारी वजह से
ही उसने हमसे छल किया. यह अलग बात है कि छल तो हमारे साथ हुआ और तुम इस खेल में
शामिल रहीं. तुम दोनों ने मिलकर मेरा उपहास उड़ाया. मेरी बुराई की. कमियाँ निकालीं
लेकिन अब पाँसा पलटा है और वही स्थिति मेरे साथ है. मुझे तुम बहुत दयनीय, बेचारी
लगीं लेकिन मैं किसी भी खेल में शामिल नहीं हो पाई. मेरे लिए तुम दोनों एक जैसे
थे......बेईमान, दगाबाज. हाँ मुझे पहले के व्यवहार पर शर्मिन्दगी हुई कि मैंने
तुम्हें जिन विशेषणों से सम्मानित किया था तुम तो उसके लायक भी नहीं थीं. फिर अब
क्यों प्रेमिका से पत्नी बनने का ढोंग करके ढेरों पत्र लिखकर फिर से हमारे जीवन में
प्रवेश करने के रास्ते खोज रही हो. एक बात जरूर याद रखना. प्रेमिका मक्खी की तरह जब
फेंक दी जाती है तो दुबारा कोई नहीं उठाता. पत्नी को भले ही सम्मान देना मजबूरी बन
जाये. अपनी मजबूरी याद है इसलिए किसी की मजबूरी का फायदा नहीं उठा सकती हूँ.
पहले पहल पता लगने पर मुझमें अजीब अजीब से परिवर्तन हुए. (तुम्हें इसलिए बता रही
हूँ कि तुम खुद को मैन ईटर कहती थी. तो तुम्हें एक आम औरत की संवेदना का शायद पता न
हो.) पहले गुस्से से पागल हो गई थी. मारपीट, गाली-गलौज, झगड़े बिल्कुल हॉरर फिल्म के
हीरो हीरोइन बने हम......और वे ......हाँ...... यह सब अकेले में होता. बच्चे, नौकर,
आने जाने वाले इसे ताड़ नहीं पाए. इतना होश तब भी था. बेवक्त के आँसू अजीब व्यवहार,
किसी काम में मन का न लगना भला साथ रहने वालों की नजर से छुपते रहे. पता नहीं वह
समय कैसे कटा. या शायद मुझमें ठहर गया. होश नहीं था. भूख प्यास, लोक लाज सब कहाँ
चले गए. जिससे गुस्सा उससे ही सवाल जवाब. जितना प्रेम, उतनी ही नफरत. मत पूछना कि
कैसे सम्हाला खुद को. पुरुष जाने किस साँचे में ढले होते हैं. पहले दुख देंगे फिर
दवा भी खुद ही करेंगे. इतनी मान मनौव्वल, सेवा खुशामद की...... ....जो तुम्हें चौदह
वर्षों में मिला होगा वह तो मुझे चौदह महीनों में ही. ब्याहता औरत को ही सब सम्हाल
कर रखना होता है. बात इतनी भी न बिगड़े कि घर ही उजड़ जाए. सोचने पर मजबूर हो
गई......पहले घंटे दिनों की तरह बीते, फिर दिन घंटों की तरह. साथ साथ गुस्सा भी
बीतता गया. यही जिन्दगी है. यही जीने का तरीका. या यूँ कहूँ अगर यह सब उठा पटक नहीं
हो तो शायद रंग विहीन हो जाये जिन्दगी. फर्क इतना है कि दुर्घटना होने पर
इन्द्रधनुष के सारे रंग कलर बाक्स में छुपने लगते हैं. अन्यथा जिन्दगी से ही रंगों
के त्रिपार्श्व झरने लगते हैं.
तुम्हें तो बताया था-बचपन से बड़ी चुहलबाज थी. बाकी लड़कियों के बरक्स मेरे पास रोने
के लिए कोई बहाना भी नहीं. तब कभी आँख में अँगुली गड़ा गड़ा कर आँसू निकालते सोचती थी
एक दुख तो होना चाहिए. मुझे क्या पता भविष्य मुस्करा रहा था मुझ पर......बहुत कठिन
दौर होता है वह. जीने की इच्छा तक खत्म हो जाती है. अचानक घुस आए थे बड़े बड़े दुख
मेरे घर. मैं तैयार नहीं थी. लड़ना, झगड़ना, क्रोध सब स्थायी बनते लग रहे थे. हम
दोनों अपनी अपनी तरह से आई विपत्ति से जूझ रहे थे. मध्यवर्गीय परिवारों की सबसे बड़ी
पूंजी-झूठी इज्जत-को बचाते हुए सामाजिक जिन्दगी भी जीनी होती है. कितना क्रूर हो
गया था समय. परीक्षा की घड़ी चुनौतियां समेटे टिक टिक करती रहती और अकेलापन आंखों का
ढूंढ़ता. द्वन्द्व हमें दूर रखते. पास आने की कोशिश में नफरत और घृणा लगती. मैं उनके
वर्तमान के साथ साथ उनका सारा अतीत जीना चाहती. वे थे कि कुछ सुनना सुनाना ही नहीं
चाहते. उन्हें समय की ही टच थैरेपी पर भरोसा रहा होगा. घुटन विस्फोटक होती जा रही
थी. वह समय समय ही नहीं लग रहा था. सिनेमा, टीवी या कहानी का कोई दुखी पात्र मुझे
अपने जैसा रोने का बहाना लगता. आँसू ही सुकून पहुँचाते. पत्नियों के लिए सात वचनों
में प्यार जैसा कोई वचन कहां होता है. पंडितों ने भी अपने सुविधानुसार वचन लिख मारे
हैं. पहली बार लगा कि मुझ पानी को घी में मिला दिया गया है. जो मिले रहने का ढोंग
तो अच्छी तरह करता है लेकिन मिल कभी नहीं पाता. लेकिन कभी कभी ही मिलने का बोध होता
है. यही है दांपत्य. जिसमें हम बिंधे हैं.
पुरुष औरत को उसकी सम्पूर्णता में कहाँ देख पाता है. उसे न तो चाहत होती है जानने
की न ही फुरसत. स्त्री के बाहरी रूप को देख लेना ही उसे पहचानने, जानने की कसौटी बन
जाता है. जहाँ तक मैं इन्हें जानती हूँ. उतना ही तो तुम्हें भी जान पाये होंगे. फिर
आकर्षण भी कितने समय का......? तभी तो खुशामद करते हुए कहा था ‘‘तुम मेरी शुभ
कुंडली हो. मुझ मूर्ख को देखो तुम्हें छोड़कर चांडाल वृत्तियों और राक्षसियों के
चक्कर में पड़ गया था. हसीन चेहरों में कितना ज़हर होता है (आह भरते हुए). तुम्हारी
निश्कलंक, दमदमाती, चरित्रवान छवि बादलों की धुंध हटने के बाद ही दिख रही है. तुम
मुझे उस काली छाया से बचा लो. यह प्रार्थना है मेरी.‘‘ घर, परिवार, बच्चे बचाना
मेरा फर्ज बनता है. उनकी निगाह में माता पिता को अच्छे भी बने रहना है. यहीं से
मुखौटा लग गया मेरे चेहरे पर. दरअसल हम औरतें होती ही इतनी कमजोर है कि जब खुद पर
बीतती है तो अपने को बचाने सारे नुस्खे आजमाती हैं. वरना दूसरों के लिए उपदेश देती
रहती हैं. संवदेनशील औरतों का ही गुस्सा कभी कहर बनकर टूटता है. वही नदी बनकर बहता
भी है. आत्महत्या तक का न केवल विचार आता बल्कि माचिस भी तकिए के नीचे पहुँच जाती.
हर जगह दो आंखें घूरती रहतीं हिकारत से. वे आंखें किसी की भी होतीं.
आगे पढ़ें ‘‘मेरा क्या होगा?‘‘ ‘‘मुझे क्यों रिजेक्ट किया गया?‘कितना सहना होगा? सब सहना पड़ा,
अब तक किया गया समर्पण मुझमें प्रतिशोध जगाने लगा. उस समय रो कर, घर छोड़ कर, मर कर
या मार कर मैं जीत नहीं सकती थी.
जीतने की इच्छा कितनी बुरी हो सकती है, यह मैं उस
समय नहीं समझ पाई. मेरी हार ने मेरा चैन छीन लिया था. मैं बेचैन हो उठी थी. तुम कभी
पहली हार को नहीं समझ पाओगी. हारा हुआ जुआरी चारों तरफ बदहवासी से देखता है. अपने
जीतने का मुझे ही तो इंतजाम करना था और सही अर्थों में जीने के लिए.‘‘पति को जीतना
ही सब कुछ है‘‘ जैसे कितने मुगालते पाल रखे थे मैंने. बरसों से प्रेम करते प्रेम की
व्यर्थता के बोध से खालीपन भर चला था. निकट संबंधों में भी कोई कैसे तटस्थ हो सकता
है?
पत्नी का मन चोट खाकर भी अपने साथ गहरी उदासी, दिखा दी गई औकात की समझ को नासमझी के
नाटक के साथ जीने पर मजबूर करता है. लेकिन उसे अपने पति के उस उदास मन का भी ख्याल
रखना पड़ता है जिसमें पत्नी के सामने हर समय नंगे हो जाने का अहसास है. यह अहसास तो
खत्म होना चाहिए न! वरना एक मन की हत्या का कलंक लेकर मैं नहीं जी पाऊँगी. कितना
मुष्किल हो गया था यह सब......नये सिरे से संघर्ष...... खाली हो गया मन बैंक. और
नये सिरे से संघर्ष......विश्वासघात का दंश मन पर गुदने की तरह अंकित. पहले दर्द
था, अब नासूर. मैंने समझा कि मुझमें समय के साथ साथ सब कुछ जज्ब करने की ताकत भी
आती जा रही है.
मन संशय की आंधियों में घिरा घिरा. तन लालची-जो मिला नहीं उसके लिए व्याकुल......
वही कनबतियां......उसी थ्रिल की पुकार. मान्यताएं ही मेरी खंडित हो गई थीं. सब
अशांत......शांति तो शायद उस प्रेम की पुनरावृत्ति से मिलती जो मुझसे अब तक छूटा
रहा. गंभीर प्यार भी उत्तेजित नहीं करता. प्यार की गदहपचीसियां शायद मन को सहला
पातीं. वही सब चाहिए की ज़िद! कैसा पागलपन है!
मन कभी करता कि गहरी नींद सो जाऊँ......कोई मुझे थपथपाकर सुलाए. लेकिन नींद
कहाँ......मैं जिन्दगी के सारे नियम तोड़कर उन्मुक्त चिड़िया सी उड़ जाना चाहती थी.
जहां बैठूँ अपनी ठाँव हो. न कोई डर, न आशंका. दरअसल अपनी अब तक की पहचान से घिन आने
लगी थी. मिटा देना चाहती थी उसे. लेकिन मुझे पता है रेखा की मर्यादा को मिटाकर कोई
बड़ा नहीं बन सकता. उसके लिए तो बड़ी रेखा ही खींचनी होगी. जो भी था, उससे उलट जीवन
जीना चाहती थी मैं. सारे मूल्य, अवधारणाएँ, संस्कार मुझे चिढ़ाते लगते. कोई व्यवधान,
कोई बहाना और किसी की भी उपस्थिति मुझसे बर्दाश्त नहीं होती. इन सबसे बेखबर होती
चली गई मैं. इसी ने शायद मेरा रास्ता खोला. सच की तलाश में अंदर शोधरत थी मैं. और
बाहर केवल जीने की दिनचर्या.
मंदिर की तरह अचानक मेरे मन और शरीर के सारे खिड़की दरवाजे खुलने लगे. एक प्रण जीवित
था कि बच्चों को दुनिया की हिकारत से बचा सकूँ. आत्म केन्द्रित स्वार्थी बनने की ओर
यह मेरा पहला कदम था. संवदेनशील औरत होने की वजह से गुस्सा कभी दुख बनकर फूट पड़ता.
हीन भावना पनपती लगती. हर वक्त दो घूरती आंखें ................ मैं सच में डूब
जाना चाहती थी ऐसी गहराई में जहां से मैं खुद को भी नजर न आऊँ. निस्वार्थ जीवन का
फायदा देख चुकी थी.
फिर एक दिन मैं अपने आप से पूछ रही थी ‘‘जीना है या मरना‘‘? आत्मा की आवाज थी
‘‘जीना.‘‘ जैसे कोई अंदर आ बैठा था. वह कह रहा था ‘सोचो और कुछ करो.‘ भूल गई थी
अपनी अंगुलियों की कलात्मकता को. औरत अपना घर-संसार रचने में किस कदर अपने निजी
वजूद को खत्म कर देती है. उसका यथार्थ लेकिन उसे अपने सपनों से ज्यादा रंगीन लगता
है. मातृत्व और पत्नीत्व के पंखों पर वह उड़ती फिरती है. जमीन पर पैर नहीं पड़ते थे
मेरे. घर की हरियाली में एक बीरबहूटी भी उड़ती रहती थी. लेकिन विश्वासघात चैन नहीं
लेने देता था. पति से जितना प्यार, उतनी ही गहरी नफरत. लगता यह रिश्ता सड़ रहा है.
तीसरा हमेशा बीच में दिखाई पड़ता. अकेले होने पर सहज दीखते हम झगड़ने लगते. लगता हम
खोखले होते जा रहे हैं. खत्म होते जाने की मजबूरी ही शायद मेरी ताकत बनती चली गई.
रंगों को फिर समेटा मैंने अपनी तूलिका में. इन्द्रधनुष फिर उतरने लगा. जितनी गहरी
नफरत का उफान आता, उतना बढ़िया पोर्ट्रेट बनता......गिनती बढ़ी तो नुमाइश कर डाली
चित्रों की...... नासूर से उपजे चित्र लोगों के मन में उतरने लगे......कहाँ तक आ
पहुँची हूँ. तुम सुन रही होगी. उसी पति ने (जिसने इतना बड़ा विश्वासघात करने के पहले
एक पल नहीं सोचा) उसी मेरे एकमात्र प्यार ने, एकमात्र साथी ने मेरे चित्रों की
नुमाइषों का प्रबंध किया. मेरी प्रशंसा सुन फूल फूल कर कुप्पा भी होता है और यह सब
मुझे...... हाँ खुशी देता है. निष्छल हँसी की गैरहाजिरी अखरती है. इसलिए भी तुम्हें
धन्यवाद.
बहुत समय लगा......पाँच साल. पता नहीं तुम क्या कर रही होगी? किस हाल में होगी?
क्या पता अपने किसी नये शिकार के साथ जीवन की रंगीनियों में हो. दीवाली की जलती
बुझती लडी़ की तरह तुम्हारा जीवन. बस साल में एक बार त्यौहार की तरह. सब कुछ अजीब
नहीं लगता? घर में रोज जलने वाली रोशनी की तरह मैं अपने घर में बिल्कुल सुरक्षित.
बिजली चली जाने पर दीपक या मोमबत्ती बनकर ही रोशनी बिखेरती मैं. घर के लोग मेरे साथ
जीने की आशा में जीते हैं. सच कहूँ- तुमने मुझे ऐसा वरदान दे दिया जो ईश्वर की
बिसात के भी बाहर है. चोट कुछ ऐसी जो दर्द के साथ दवा बनती गई. बहुत रोई धोई. बहुत
कसमें वादे जो शायद झूठे भी निकले क्योंकि विश्वास और आस्था जब टूटते हैं तो सब पर
से उठ जाते हैं. यही तो पहला पाठ सीखा है मैंने. क्या जिन्दगी के पाठ यूँ ही चलते
फिरते पढ़े जाते हैं. जिन्दगी अगर कुछ सिखाती है तो भारी मुआवजा मांगती है. मैंने
आँसुओं को सुखाकर, भावनाओं को मार कर, संवेदनाओं का हनन कर भरपाई की. लेकिन चीज
उससे भी बड़ी हासिल की है. आत्मा की आवाज सुनना, खुद को पहचानना सच पूछो तो तुमने
मुझसे मेरी पहचान करा दी है.
मैं कल्पना के रंगों का सहारा बन प्रकृति का रस भोगने लगी. कानों में हुई कोई
फुसफुसाहट, मन में कैद कई वर्णन सुनाने के लिए कैनवस ले आए. कसैलापन अपने ही कंठ
में धारण कर मैं जीने की कोशिश में लग गई. मैं चाहती कि मैं दौड़ती हुई किसी पेड़ को
छू लूँ तो वह मेरे साथ अदृश्य हो जाए. मेरी बेचैनी मेरी पेंटिंग सीरीज़ बनती चली गई.
आगे पढ़ें
मेरी साँसें फूल फूलकर रुकीं फिर गहरी साँसों में बदलने लगीं. मैंने ढूँढ़ लिया था
ऐसा माध्यम जो मेरी अभिव्यक्ति को केवल ध्वनि न समझे. जो मेरी भाषा को किसी देश,
जाति की न समझ कर हृदय की भाषा समझे. मेरी चीखें चीखती रहीं......लेकिन सुनी नहीं
गईं थीं. वे अंकित होती गईं कागज और कपड़े पर.
बेचैनी के हर रंग ने मेरा सहारा लिया.
अपनी विवशता और अवसाद को मैंने समय के साथ पहना, ओढ़ा, जिया और वक्त आने पर तहाकर
आलमारी में रख भी लिया. मेरे इस कृत्य ने दांपत्य में ही स्पर्धा घोल दी. सच तो यह
है चुनौती बन गया मेरा प्यार, मेरी देह. सांस्कारिक विरासत के रहते अनैतिक नहीं हो
सकती थी. मुझे जो भी पाना था यहीं इसी घर इसी आदमी से. मुट्ठी भर या जीभर. बंधन
उतने ही रखे जितने जरूरी लगे. संयम मेरा बड़ा भाई बन मेरी रक्षा कर रहा था- वाणी से
लेकर अंतत्वोगत्वा तक. कूची मेरी सबसे बड़ी दोस्त और रंग मेरी महफिल. फिर भी मैं रोज
रोज इंद्रधनुष लीपना चाहती थी. ऐसा नहीं कि पहले मेरी आकांक्षाएँ थी ही नहीं- दरअसल
वे इतने सालों से सोई पड़ीं थीं.
अभी ही तो समझ में आ पाई है उन बेबस औरतों की बेबसी जिसमें वे चरित्रहीन कहलाना
पसंद कर लेती हैं लेकिन अपने आनंद अपनी आदत नहीं छोड़ सकतीं. क्या करें एकदम मिडिल
क्लास सोच. नैतिक और अनैतिकता की बातें. इस खोज में सच इतना रूखा मिला कि मुक्ति तो
दे गया लेकिन तृप्ति नहीं. जीना सिखा गया लेकिन मन को नहीं छू सका. हो सकता है मेरे
शब्द तुम्हें कड़े बेढंगे लगे. पर मकसद कतई ऐसा नहीं है. यह तो लंबा स्वगत है एक
पत्नी का- जिसे कम से कम प्रेयसी को तो जानना ही चाहिए. बताने में कोई हर्ज नहीं
है. यह तो मेरे अंधे प्यार के नशे का उतार है. इस वक्त न तो मैं अंधी हूँ न
मोहग्रस्त. अब मैं केवल बीरबहूटियों के बीच हूँ.
मुझे कहाँ पता था कि एक साधारण लड़की अति साधारण भाग्य लिए मध्य वर्ग में पैदा हुई.
जिसके माता पिता के ममत्व ने उसे बहुत ऊँचे आसमान में उड़ा दिया था लेकिन वहाँ उड़ते
रहने की तरकीब नहीं सिखा पाए. जितनी अकेली हो गई थी या शायद छोड़ दी गई थी उतना ही
साथी के लिए मन बेचैन हो उठता.
अपनी हार का अहसास अंदर ही अंदर दीमक की तरह चाटता रहता. महँगे कपड़े, जेवर, मेक अप,
गर्ज यह कि फैशन स्टाइल, अभिजात्य सबको ओढ़ती बिछाती रही लेकिन सब व्यर्थ. अपने
अप्रतिहत नहीं होने का. अहसास किस कदर जीवन बदल देता है. मेरे अंदर की कोमल स्त्री
कब खूंखार होने लगी मुझे नहीं दिखी. यह परिवर्तन चेहरे के कैनवस पर दिखाई पड़ने लगा.
लोगों की टिप्पणियों से कुछ कुछ समझ भी आता. कोमलता सपनों की गठरी लेकर जीवन में आई
थी और समय ने उसे सरे आम लूट लिया. मैं नादान अपने भविष्य के सुनहरे संसार की
कल्पना में जीती रही और वह मुझे मृगतृष्णा की तरह छलता रहा. आएगा मेरा सुनहरा
भविष्य. लेकिन मन की भावनाओं, कोमलताओं और कल्पनाओं के साथी की बलि लेकर.
भविष्य तो होता है वायदों की गठरी......वह गठरी कभी भारी नहीं लगती क्योंकि इन
वायदों में सपने, उन्मत्तता, रंगीनियां और खुशियां दूर से दिखाई पड़ती है. बहुत हो
गया......बातें, शब्द, भाषा. ये सब कितने विस्फोटक होते हैं. क्या से क्या कह देते
हैं. सारा खेल, सारा दारोमदार इन्हीं का रचा हुआ तो है.
इन घटनाओं के बावजूद हमारे रिश्ते किसी आंतरिक प्रक्रिया के तहत सहज और परस्पर होते
दीख रहे हैं. किसी के मन में प्रायश्चित और पूरे मामले को लेकर विकसित हुई
पुर्नदृष्टि मुझे आत्मिक रूप से समृद्ध कर रही है. अनुभव भले ही कष्टप्रद रहा हो
लेकिन बहुमूल्य रहा. बाहर से अंतर की यात्रा में कई घाटियां ऐसी मिलीं जिन्हें मैं
अन्यथा पार नहीं कर पाती. लगता है एक नहीं अनेक अंतःसलिलाओं में डूब रही हूँ. अब
कितने ही संकट, बाधाएँ, हस्तक्षेप आएँ यह यात्रा नहीं रुक सकती.
अब जिन्दगी जाग गई है वह सोना नहीं चाहती और अपने आपको खोना भी नहीं. आकांक्षाएँ
उसकी दहलीज पर उन्मत्त हैं. अपने शौक पूरे कर रही हूँ. दोस्तों के साथ गाने बजाने,
नाचने की महफिलें, यारबाजी, मस्ती, हुल्लड़ करने का मौसम उग आया है.‘आई एम ए ग्रेट
फ्रेंड मटीरियल‘ मेरी सहेलियाँ कहती रही हैं. उन सबको ढूँढ़ रही हूँ. पते नोट कर रही
हूँ. मिल रही हूँ. फोन कर रही हूँ. चिट्ठियाँ लिख रही हूँ. परिवार के साथ पिकनिक और
लंबी यात्राओं पर हूँ. व्यस्त रहने की कला सीख ली है. तुम यह सब नहीं कर पाओगी.
दुनिया से नजरें बचाकर नजरें मिलाने को प्यार कहते हैं क्या? वह तुम्हें मुबारक. वह
प्यार नहीं, प्यार की हेराफेरी है. एक तो चोरी, उस पर सीनाजोरी वाली तुम्हारी अदा
के नीचे से मैंने तुम्हारी जमीन पैरों तले से खींच ली है. अब तुम कोई दूसरा शिकार
ढूंढो
मैं किसी से प्यार माँग तो नहीं सकती, दे सकती हूँ. मेरे अंदर की औरत अंतहीन यात्रा
पर है. उसकी गाड़ी भ्रम और कल्पना के पेट्रोल से चल रही थी अब प्रतिक्रिया से
उत्पन्न साफ पावर पेट्रोल है. अब शायद गाड़ी कभी नहीं टकराएगी. खुद को लताड़ना छोड़
दिया है मैंने. विद्रोह भी मेरे खून में बहने लगा है. मुझमें आत्म सम्मान जाग गया
लगता है मैं गर्वोन्मत्त हो उठी हूँ. बच्ची मन की मालकिन अब तक दूसरों के गर्व से
ही महिमामंडित होती रही. कभी खुद पर गर्व नहीं कर सकी. और अब जब खुद में झाँका तो
ढेर कचरे के बावजूद ऑक्सीजन है जो मुझे साँसें देकर जिलाए हुए है. मैं ही उसे अब तक
महसूस नहीं कर पाई थी. अपने बीहड़ में भी कितने रास्ते थे...... जिन्हें छोड़ मैं
मूर्ख पगडंडियों पर चलती रही. चौगड्डे की चकाचौंध में भूल गई थी ‘मैं कौन हूँ?‘
बड़ी तोपचंद बनी इतराती औरत ही तुम्हारे सम्पर्क में रही आई. वाकई क्या क्या नहीं
सीखा इन दिनों. हाँ प्रक्रिया थोड़ा पुराने जमाने की हो गई. रोना धोना, मरने की
सोचना ये सब आउट डेटेड चीजें हैं आजकल. लेकिन पुराने जमाने की होने पर भी एक काम
मैं नये जमाने का कर गई. कसमों पर विश्वास न कर बस तुम्हारे साथी को अकेले में सब
तरह से प्रताड़ित किया. एक एक माफी माँगने पर एक एक दंड. उस समय का रूप अगर देखती तो
तुम्हारे रोंगटे खड़े हो जाते, अपना सारा रूप घमंड भूल जातीं. एक एक पैसे को तरसा
दिया बंदे को. हालांकि यह हम दोनों के बीच का गुप्त समझौता अब नहीं रह गया. क्या
करूँ इसी साले के लिए तो मैंने अपना धर्म बदला. माता पिता की मरजी के खिलाफ शादी
की. जीवन में बहुतेरे कष्ट उठाए. लेकिन तुमने तो फिल्मी अंदाज़ में मुझे दवाइयों के
साथ नींद की गोलियाँ खिलवाकर ताला बंद करवा दिया था. तुम्हारी साजिश तुम्हीं को
मुबारक.
आगे पढ़ें दरअसल एक बात तुम्हें बताऊँ ‘‘मैं इन्हें बहुत प्यार करती हूँ.‘‘ मेरी कमजोरी हैं
ये. इनसे शुरू होकर इन्हीं पर खत्म होने वाली मेरी दुनिया में मेरे बच्चों तक का
प्रवेश सीमित है. दरअसल बहुत प्यार करने वाले लोग केवल प्यार ही समझते हैं छल कपट
नहीं. बेवकूफ! पगलाए रहते हैं.
पूरी दुनिया में प्यार के सिवा कुछ सूझता नहीं. एक
अगर बहुत दूर भी चला जाए तो दूसरे की साँसें तक सुनाई पड़ती हैं. यह कहाँ पता था ‘यह
मेरा ही प्यार मेरे ही सर चढ़कर बोल रहा है.‘ अपने प्यार की छाया को मैं प्रति प्यार
समझती रही और भ्रम....... अवसाद में भी बहुत कुछ सीखती गई. जब लोग कहते हैं कि
टी.वी. सीरियल्स में ऊटपटाँग रिश्ते दिखाते हैं तो मैं कहती हूँ कि ऐसा तो मैं अपनी
ही जिन्दगी में देख चुकी हूँ.
तुमने कितने पत्र भेजे हमारे घर. बिना संबोधन के. तुम्हारा मतलब शायद....... मैं
जानती हूँ कि वे मेरे लिए तो हरगिज नहीं थे वरना तुम मुझे मेरे पहले नाम से लिखतीं
जैसा कि तुमने इस हादसे के पहले हमेशा किया. सम्बोधनहीन पत्र किसके लिए हैं मैं जान
गई हूँ. उसमें तुम्हारे प्रेम में बीते वो पल वो उत्तेजनाएँ वर्णित थीं जिनका अहसास
तुमने जिया होगा. और वे अहसास......भला कोई क्यों बाँटे. वे तो जीने के जरूरी होते
हैं. सुख अनुभूति की चीज है. तो क्या तुमने जानबूझकर अनभिज्ञ बने रहने का नाटक करते
हुए मुझे सूचित करने की कोशिश की. मुझे चिढ़ाने के लिए पत्र लिखना जरूरी समझा? क्या
यह ब्लैकमेंलिंग नहीं है? हमेशा बहुत सगी बनती थीं. इस हरकत के समय सगापन कहाँ था.
तुमने एक बार नहीं सोचा कि जिन अहसासों का वर्णन कर तुम मुझे जलाना चाहती हो, उनसे
तो मैं बीस सालों से गुजर रही हूँ. और निर्लज्जता से तुमने....... पता नहीं तुम
अपनी जिन्दगी में इन नाटकों का पटाक्षेप कब करोगी?
पुरुष भले ही अलग अलग औरत ढूँढ़ता चले लेकिन उसे हर बार अलग औरत मिलती कहाँ है? यह
भला कहाँ समझेंगे! इतनी समझ तो उन्हें अपने हाथ आजमाते रहने के अंतिम पड़ाव में ही
जाकर प्राप्त होती है. बेचारे! और तुम! तुम्हें क्या कहूँ. मूरख हो तुम. तीन
शादियों और न जाने कितनी बेवफाइयों के बाद भी औरत और आदमी के रिश्ते को अभी तक नहीं
समझ पाईं. हर बार नये सिरे से गिनती गिनना शुरू करती हो और फिसल कर वहीं की वहीं.
सच! कभी कभी मुझे तुम जैसों पर तरस आता है. किसलिए......आखिर किसलिए! नाटक ही कहती
हूँ मैं इसे. चँद रुपये......चँद सुविधाएं या ज्यादा भद्दे रूप में कहूँ तो कुछ
पलों का सुख......! घिन आ रही है मुझे. कभी कभी लगता है कि तुम तो ऐसी न
थीं......कितनी ब्रिलियन्ट, संवेदनशील, सुन्दर. आखिर तुम ऐसी बन कैसे गईं? तुम्हारे
माता पिता संस्कारी, खानदानी और अगर वे जान पाते यह सब. मन करता है आँटी को एक
चिट्ठी लिखकर तुम्हारे पतन का इतिहास लिखूँ. (इस जगह को अण्डरलाइन कर खाली जगह में
तुम जरूर कमेन्ट लिखोगी मेरी मिडिल क्लास मानसिकता के लिए.) ठीक है, मैं हूँ ही
वैसी, अपने घर के दुख सुख में पूरी तरह डूबी रहे. किसी औरत का दिल दुखाना मैंने
नहीं सीखा. न सीखना चाहती हूँ. तुम्हारे मेकअप, तुम्हारे फैशन, तुम्हारे भड़कीले
कपड़े भले ही तुम्हें आधुनिक बनाते रहे और बदलता समय भी इसे हाई क्लास समझता रहे. यह
सब तुम्हें ही मुबारक.
सभी पत्रों में तुम्हारा गर्वीला दुख सिसकता नजर आता है. आज तुम्हारी इनके लिए लिखी
गालियाँ भी पढ़ीं. (अच्छा है, यही इस आदमी की सजा है और तुम्हारी भी.). मुझे पढ़कर
दुख में भी हँसी आ रही है.‘खिसियानी बिल्ली खम्बा नोचे‘ जैसी तुम्हारी शक्ल! (मेरी
नजरों के सामने) काश! यह वे सारे मर्द देखते जो तुम्हारे रूप के पीछे भागते रहे.
भागते तो ये भी रहे मेरे रूप के पीछे लेकिन दौड़ नहीं पाये. रास्ता बदल लिया. मेरा
दुख तुमसे बड़ा है या...... तुम्हें कम लगता है. बेशर्मी की हद तो तब हुई जब तुमने
मेरे ही घर में मुझे दूसरी औरत बना कर रखने का सपना देखा और मैं समझ ही न पाई.शायद
इसे ही जादू कहते हैं. याद आते हैं वो सारे बरस जब तुम्हारे नाम का ग्रहण लग गया था
हमें और सूतक में हम जीते रहे. हमारी आँखों के सामने ही तुमने कितने खेल खेले.
तुम्हारे पत्रों से जान पाई हूँ. चालाकियों के लिए कितने बहाने ढूँढे़ होंगे तुमने?
इन्होंने भी कितनी बार धोखा दिया होगा! क्या मैं समझ पाई? मैंने तो कुछ भी वापस
पाने की कोशिश नहीं की. फिर ग्रहण हटा कैसे? कारण जानने की कोशिश रहेगी. मैं आज तक
यही नहीं जान पाई कि पराए से ऐसा प्रेम कैसे होता है तो टूटने का कारण तो और भी
पेचीदा होता होगा.
अब इस आदमी से प्रेम? यह ज्वलन्त प्रश्न था? नाटक करने की अब मेरी बारी है. षरीफ
आदमी की भलमनसाहत तो देखो राज खुलने पर एक बार नहीं कहा कि ‘झूठ है‘ बल्कि उसके
जुड़े हाथ, खुद के प्रायश्चित से लबालब आँखें, मुझमें नरमी लाने लगीं. बहुत प्रताड़ित
किया है अपने प्रेम को. हम दोनों ने नौकरी छोड़ दी. और शुरु हो गई मेरी चौबीस घण्टों
की पहरेदारी. तुम्हारे एक भी फोन, पत्र उन तक नहीं पहुँचे. (मेरी वजह से नहीं. उनकी
दिलचस्पी तुममें खतम हो चुकी थी) अब तक तो वो तुम्हारा नाम तक भूल चुके हैं. मैं एक
एक पैसे का हिसाब, एक एक पल का हिसाब रखती हूँ. मैं मिडिल क्लास औरत अब तुम दोनों
हाई क्लास को अपनी जेब में रखे घूम रही हूँ. यह अहंकार तो मैं कर सकती हूँ न. बहुत
बड़ी कीमत देकर इसे कमाया है. मेरे औरत होने का अहंकार मेरे मिसेज सूद होने के
खामियाजे के बदले मिला है मुझे.
वैसे मैं तुम्हें यह बात बताना भी जरूरी समझती हूँ कि मैं मिसेज सूद थी और
मृत्युपर्यन्त मिसेज सूद ही रहूँगी. तुम्हारा दर्जा क्या रहेगा (अगर रहा तो) यह तुम
जानो. जब तुम्हें उस शब्द से कोई परहेज नहीं है तो भला मैं एक संभ्रांत महिला क्यों
परहेज करूँ. कई लोग कहते हैं कि मिस्टर सूद को क्या हो गया है नौकरी छोड़ने के
बाद-चुप रहते हैं, किसी से बात नहीं करते, न कहीं आते जाते. पता नहीं मेरा क्या
जवाब होता है. अंदर से मुस्कराती हूँ मैं! अपनी विजय पर-और......और......नजरें
बचाकर आँखें पोंछ लेती हूँ.
आगे पढ़ें पुरुषों का अनंत सागर तो तुम जैसे लोगों को ही दिखता है. तू नहीं और सही. चार दिन
दुख मनाओगी. क्या पता यह भी तुम्हारा अभिनय हो. फिर......चल पड़ोगी अगले शिकार की
ओर.
मेरी आत्मा ने उपेक्षा, एकाकीपन, अतृप्ति और खालीपन के दर्प के सामने घुटने नहीं
टेके, न ही डरकर हथियार डाले बल्कि उन्हें नंगा कर दिया उन्हें अपने चित्रों में
रंगों की जुबान में. बहुत आग से खेले हम. अब रंगों में आग पैदा हुई है. अब रात मेरे
घर आती तो है लेकिन सहमती हुई. दरअसल मेरे लिए प्रेम एक गहरी आंतरिक जिद भी है. हर
कोई नहीं समझ पाता. हमारा भावुक प्रेमी होना ही हमारे आवेग को रोकने की कोशिश तो
करता है लेकिन तब तक हम उसके वशीभूत हो चुकते हैं. मेरा मन उन विद्रोही लहरों के
समान हो चुका है-उत्तेजना के लिए लड़ती, झगड़ती, गाली देती और फिर शांत हो
जाती......लौटती लहरों की तरह. इसी में रोमांस, निकटता और इश्क की चाहत परवान चढ़ती
है.
मुझे हर वक्त पता नहीं क्यों यह लगता रहता है कि एक छाया हाथ में कटोरा लिए खड़ी है.
मेरी प्राणवायु तो प्यार है. अपने उस प्यार के लिए क्यों नहीं भूल जाती मैं उन पलों
को. रात रात भर पैरों पर माफी की धार, क्यों मुझे महान नहीं बनने देती. क्या करूँ.
उस चतुराई को भी तो नहीं भूल पाती जिसमें सब कर गुजरने के बाद कहा गया था- "औरत का
इतना घिनौना रूप कभी नहीं देखा." लगता है चतुराई खुद अपने जाल में फँस गई. हर वक्त
मैं खुद को गिजगिजा सा महसूस करती हूँ. दिन में कई कई बार नहाती हूँ. जब देखो तब
हाथ धोते रहती हूँ. क्या कोई मानसिक रोग......?
इस नाजायज़ इश्क के बम ब्लास्ट से जो सच मलबा बना था उसे सम्हालते कितने बरस लग गए.
अचानक चुप्पी सी छा गई है जीवन में. लेकिन इन पर पहरेदारी है जबरदस्त. इनसे क्या
बोलना...बात करने लायक ही नहीं समझती मैं. क्रूर भी नहीं हूँ इसलिए ज्यादा समय कठोर
बनने का नाटक नहीं चल पाता. तुम्हारे और इनके ग्रहों को दोष देकर उसे अपना भाग्य
समझ लिया है. इन्हें छूने का मन फिर कभी नहीं हुआ. मन से तो त्याग ही दिया है. मन
पर मेरा बस नहीं चला. कागज रंगने में समय बीतने लगा. रंग अब सब दर्दों की दवा बन गए
हैं. उपन्यासों की हर दुखी नायिका मुझे अपना प्रतिबिम्ब दीखती है और मैं उन्हें
सुखी जीवन जीने के टिप्स देना चाहती हूं. अपनी ऊर्जा को इन कामों में लगाना तुम्हें
कैसा लगा? एक कुत्ता पाल लिया है......उससे बातें करना तुमसे बातें करने से ज्यादा
अच्छा लगता है.
तभी तुम्हारा एक विचित्र पत्र मिला था. ऐसा ही कुछ लिखा था तुमने "तुमने मेरी इज्जत
लूट ली. मुझे कहीं का नहीं छोड़ा." हैरान होकर मैं सोचने लगी. ऐसा क्या था तुम्हारे
पास जो लूट भी सकता. क्या था तुम्हारे पास मुझ पत्नी से ज्यादा...... तुम्हें भी
क्या शौक चर्राया था. किस इज्जत की बात लिखी थी मुझे लगता है यह वर्जित आनंद ही कुछ
नहीं सोचता है न पाप, न पुण्य. मनोवैज्ञानिक तरीके से तुमने मेरे पति का समझदार
विश्लेषण किया है. कई नई नई बातें पता चलीं. एक बारगी मैं भूल गई कि तुमने मेरे साथ
क्या किया है. कई बार उस चिट्ठी को पढ़कर उसके अर्थ निकालती रही और तुम्हें दाद भी
देती रही. सोचती भी जाती थी कि इतना समझने के बाद भी......कितना ठीक लिखा है तुमने
‘पौरुष ग्रंथि के शिकार होते हैं पुरुष. अपनी मीठी बातों से औरत पर शिकंजा कसते
हैं.‘ पहली बार तुम्हारा पत्र पढ़ते समय मुझे सारी बातें जाने क्यों जानी पहचानी सी
लगीं. लगा मेरी अनुभूतियों संवेदनाओं को किसी ने जस का तस रख दिया है. मुझे जैसे
अभिव्यक्ति मिल गई. आई थिंक यह तुम दोनों की ही कोई ग्रंथि......
कुछ वर्षों पहले एक दिन इंद्रधनुष टूटा था. मैंने देखा था इंद्रधनुष के रंगों को
टूट टूटकर बिखरते......कैसे लाल पीले रंग आकाश से नीचे उतरते उतरते काले सफेद
बुलबुले बनकर रह गए थे. दरअसल मैं इन्हीं दो रंगों में सब रंगों को ढूंढ़ती रही.
सफेद काली परछाइयाँ न कोई आकार गढ़तीं न कोई आकृति. बस छाया में ही कुछ चलता फिरता
घूमता सा दिखाई देता है. दिमाग में बचकर रह गई यादों के सहारे कल्पना में ही कुछ
बनता तो कुछ मिटता है. इंद्रधनुष टूटने के पहले जो चटखने की आवाज आई थी न.....उसने
मुझे रोका था ‘टूटना नहीं देखो. जैसे वेल्डिंग की रोषनी आँखें खराब कर सकती हैं
वैसे ही कहीं यह चमक भी तुम्हें......मैं क्या कर सकती थी. चकमक चकमक रोशनी तो
कौतूहल जगाती है. भले ही आँखों के आगे अँधेरा......लम्बा......घना और शायद स्थायी
भी.......
मैं सम्हल गई हूं. जी रही हूं. रास्ता बना चुकी हूं. दुखों ने मुझे संघर्ष की
क्षमता दे दी है. सच कहूँ अगर मैं तुम्हारे जैसी केवल अपने सुख के लिए जीने वाली
लड़की होती तो सबको छोड़ छुट्टी कर सब खत्म कर देती. मेरे बच्चे और केवल जिस व्यक्ति
को मैंने प्यार किया था उसके बिना (भी) जीना संभव नहीं था. हमने साथ निभाने की
कसमें खाईं थीं. मैंने निभाईं. देने को ही मैं प्यार समझती हूँ. मुझे एकनिष्ठ प्यार
नहीं मिला तो मैं क्या कर सकती हूँ. तुम्हें तो बहुत प्यार मिला क्या तुम समृद्ध हो
प्यार के अनुभव में इन्द्रधनुष के टूटे रंगों की तरह?
वक्त किसी को नहीं बख्शता-घूम फिर कर सबके पास आता है. पुरुष के लिए औरत का कोई
चेहरा नहीं होता. वह तो अपने अपने अंदाज और सुविधा से लोग उसका चेहरा गढ़ लेता है.
उन्हें चेहरे की नहीं आकार की जरूरत होती है. आकार का छत्तीस बीस छत्तीस होना ही
औरत का अच्छा होना बन जाता है. मैं अपने मन की धरती पर वास्तविकता की धुम्मस चलाना
चाहती हूँ. ताकि अब कहीं कोई पोलापन न रह जाए. अतीत ने मुझ पर हथियारों से हमला
किया है. महाभारत तक का अंत शांतिपर्व में हुआ है. मेरे साथ जो हुआ, उसे दुर्घटना
के अतिरिक्त क्या कहें? अब उसका अंत हुआ है एक नये विश्वास पर्व में.
माँ बाप ने शिक्षा विश्वास की दी थी. जिन्दगी ने यथार्थ के सभी रूप दिखाए हैं. गर्ज
यह कि दिखाने के लिए विश्वास करो लेकिन खुद पर भी अविश्वास करते चलो-यही जीवन का
तर्क है. अपने अतीत से जो कुछ भी सीखा उसमें केवल तुमसे ही आधा सीखा है. अतीत
जिन्दगी भर पीछा नहीं छोड़ता लेकिन मैंने तुमसे सीख लेकर उससे पीछा छुड़ा लिया है.
मैंने अपना मकसद, यादें, सम्भावनाएँ फिर से हासिल कर ली हैं. तुम मेरे जीवन का
बोधिवृक्ष हो और यह घटना मेरे जीवन का सारनाथ बन गई है. अगले महीने ही दिल्ली में
मेरे चित्रों की प्रदर्शनी त्रिवेणी में लगेगी. मैं अपनी उपलब्धि पर खुश हूँ......
जिन्दगी में क्या बचपन ही ध्रुव तारे और सप्तऋषि के आसपास घूमता है. मेरा आज तो
चंद्रमा के आसपास है. एक लंबी नींद से जागकर स्वयं में लौट आई हूँ. मैं बहुत
स्वार्थी बनती जा रही हूँ. दुनियादार बनने के लिए अपने बारे में सोचने और आगे बढ़ने
की भावना बेचैन किए रहती है. धीरे धीरे ही सही मेरे कदमों ने अपनी सड़क पहचान तो ली
है......चलना भी सीख लिया है. इस सबके बावजूद भी वह काली बिल्ली जो बचपन से मुझे
रातों में नोंच लेती थी......और रोती हुई मैं केवल खून का टपकना देखती रहती
थी......सालों साल वही दृश्य दुहराता रहा. तब मुझे क्या पता था कि सपने भी सच होते
हैं?
मैं......मिसेज सूद
17.12.2015, 15.51 (GMT+05:30) पर प्रकाशित
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| इस समाचार / लेख पर पाठकों की प्रतिक्रियाएँ | |
| अरविन्द कुमार [tkarvind@yahoo.com] मेरठ - 2015-12-17 19:27:40 | |
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एक सुन्दर और भाव विभोर कर देने वाली कहानी...पुष्प जी को बहुत बहुत बधाई... | |
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| Vandana awasthi dubey [vandana.adubey@gmail.com] Satna - 2015-12-17 14:37:30 | |
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"तुम प्रेयसियों की जात भी अजीब होती है, औरत होकर भी कहाँ हो तुम औरत...."
कमाल की कहानी है पुष्पा दी। बधाई। | |
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| आभा दुबे [] - 2015-12-17 12:24:52 | |
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तुम मेरे जीवन का बोधिवृक्ष हो और यह घटना मेरे जीवन का सारनाथ बन गई है.
दूसरी पारी में कलम चलाई पर क्या खूब चलाई .बधाई | |
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