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शहरोज़ की दो कवितायें

कविता

 

शहरोज़ की दो कवितायें

शहरोज़


एक
तुम हँसते-हँसते चुप हो जाते हो
तुम कहते-कहते गुम हो जाते हो
तुम खेलते-खेलते लड़ पड़ते हो

दरअसल यह तुम भी नहीं जानते
ऐसा अचानक क्यों करते हो
क्या हो जाता है तुम्हें
कि एक थाली में कौर निगलते हुए
तुम्हें खाने से मांस की गंध आने लगती है
कि अच्छा सा शेर सुनाते हुए
मेरी प्रेमिका का तुम्हें धर्म याद आ जाता है
कि कभी मध्य प्रांत की राजधानी रहा शहर
तुम्हें देश की राजधानी लगने लगता है.

कि अचानक तुम्हें ध्यान आता है
पंद्रह अगस्त पर किसी मदरसे पर फहराते तिरंगे की
फेसबुक पर शेयर तस्वीर के नीचे मैंने वंदे मातरम् लिखा या नहीं
जबकि तुम अपनी उस राजधानी के मुख्यालय पर तिरंगे का फोटो
कभी लगा नहीं पाये।
लगा भी नहीं सकोगे(क्योंकि मुख्यालय एक रंगा है )।
पर यह तुम्हारी पीड़ा नहीं बन सका.

हालांकि इससे कोई अब फ़र्क़ नहीं पड़ता
पर भरे दफ़्तर में मुख्यालय का सदस्य
होने की सगर्व घोषणा करते
तुम मेरे चेहरे के भय को अनदेखा कर जाते हो.

दरअसल हम सभी शोक मुद्रा में हैं
लेकिन तुम क्षणिक आवेश में उत्साह समझने की भूल कर जाते हो.
हर्ष और विषाद की लहर में डूबते-उतरते हुए

अब सभी रास्ते एक ओर जाते हैं
कहने का ढोंग हमें तुरंत बंद कर देना चाहिए।
वरना हर्ष और विषाद की परिभाषा बदलनी होगी
अब हमें पहनावे भी बदल देने चाहिए
और बढ़ा लेने चाहिए अपने-अपने केश
परंपरागत धार्मिक बुर्जों पर चढ़ने का यही अंतिम उपाय है
आओ लौट चलें आदिम कंदराओं में
तेज़ कर अपनी-अपनी धार

रूहें गर हों, तो लौटेंगी फीनिक्स की तरह
प्रेम और स्नेह बनकर

दो
आफ़त कभी आती थी
हमने इतना विकास कर लिया कि
आफ़त जब चाहा, जहाँ चाहा उंडेल दी जाती है
बवंडर बवा भी कर ली जाती है निमंत्रित।

आपके और आपके परिवार की रातों रात
बनाई जा सकती है वंशावली
बदल दी जा सकती पहचान।

दुःख और पीड़ा ने भी
बदल लिया है अपना धर्म।
जाति और संप्रदाय भी
सुविधानुसार कर सकता है तब्दील।

मेरी त्रासदी जैसे आपकी ख़ुशी का बायस हो सकती है
आपका दर्द मेरे हर्ष कारण।

नर्क और जहन्नुम से मुक्ति के अपने-अपने हैं यत्न
जन्नत की ख़रीद क़त्ल और ग़ारत के बाज़ारों में होती है

17.12.2015, 15.51 (GMT+05:30) पर प्रकाशित


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