नर्मदा आंदोलन का मतलब
विचार
नर्मदा आंदोलन का मतलब
योगेंद्र
यादव
नर्मदा की धार पर पिछले दिनों नाव में हिचकोले खाते मन में सवाल उठा. पिछले तीस
सालों में नर्मदा बचाओ आंदोलन ने क्या हासिल किया? सवाल मेरा अपना नहीं था. खासतौर
पर पिछले दस साल में यह सवाल कई बार पूछा गया है. सिर्फ उन लोगों द्वारा नहीं,
जिनका स्वार्थ नर्मदा के बांधों से जुड़ा रहा है.
बांध और विस्थापन के घोर विरोधी भी पूछते हैं कि तीस साल के इस अहिंसक सत्याग्रह से
आखिर क्या मिला? आंदोलन का नारा था "कोई नहीं हटेगा, बांध नहीं बनेगा" लेकिन बांध
तो बने. एक, दो नहीं, सरकारी योजना के मुताबिक सारे बांध बने. और इस योजना का
प्रतीक सरदार सरोवर बांध भी धड़ल्ले से बना. बाकायदा सुप्रीम कोर्ट की रजामंदी के
साथ बना. यह 122 मीटर ऊंचा बन चुका है और 139 मीटर तक चढ़ने वाला है. हिंसक संघर्ष
को मानने वालों की ओर से बड़वानी के राजघाट पर यह सवाल तैरता रहा है. मैं पिछले
दिनों जीवन अधिकार सत्याग्रह में भाग लेने वहीं गया हुआ था.
इस सवाल के जवाब में आंकड़े गिनाये जा सकते थे. मसलन यह कहा जा सकता था कि इस
आंदोलन के चलते कोई 11,000 विस्थापित परिवारों को भूमि के बदले भूमि मिली. इतनी
बड़ी मात्रा में जमीन पहले कभी नहीं मिली. इसी आंदोलन के चलते सुप्रीम कोर्ट ने इस
सिद्धांत को मान्यता दी कि डूब से पहले पुनर्वास अनिवार्य है. इसी सिद्धांत के
सहारे आज भी विस्थापितों ने बांध की ऊंचाई बढ़ाने के विरूद्ध स्टे लिया. इस आंदोलन
ने पुनर्वास के हकदार हर परिवार को सूचीबद्ध किया, जिससे पता लगा कि किनका हक मारा
जा रहा है. पुनर्वास में हर कदम पर हो रहे भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ भी इसी आंदोलन ने
किया.
जब सरदार सरोवर बांध की योजना बनी तो अनुमानित लागत कोई 9,000 करोड़ रूपए थी. अब
उससे दस गुना ज्यादा लागत का अनुमान है. इतने में गुजरात के किसानों के लिए कितने
छोटे बांध बन सकते थे? वादा था कि 8 लाख हेक्टेयर जमीन की सिंचाई हो सकेगी लेकिन
वास्तव में 2.5 लाख हेक्टेयर में भी सिंचाई का लाभ नहीं मिला. किसान के बदले सरदार
सरोवर का पानी अब उद्योगों और शहरों को दिया जा रहा है. कच्छ की प्यास बुझाने की
बजाय यह पानी कोका-कोला जैसी कंपनियों को बेचा जा रहा है. क्या इसलिए हजारों
परिवारों, मंदिर-मस्जिदों और जंगल को डुबाया गया था?
विफल नहीं है आंदोलन
सच यह है कि यह आंदोलन बांध बनने और विस्थापन होने को रोक नहीं पाया. जैसे
महात्मा गांधी का असहयोग आंदोलन अंग्रेजी राज को उखाड़ नहीं पाया था या जैसे कि
जेपी का बिहार आंदोलन भ्रष्ट सरकार से इस्तीफा नहीं ले पाया था. लेकिन, उनके
आंदोलनों ने दमनकारी सत्ता के विघटन की बुनियाद रखी, उसी तरह नर्मदा बचाओ आंदोलन ने
विकास के नाम पर विनाश के साम्राज्य की नैतिक आभा को तोड़ दिया है.
बांध पहले भी बने थे, शहर पहले भी उजड़े थे, विस्थापन की पीड़ा पहले भी रही थी.
लेकिन, नर्मदा बचाओ आन्दोलन से पहले इस दर्द के पास जुबां नहीं थी, इस पीड़ा की
अपनी भाषा नहीं थी. नर्मदा बचाओ आंदोलन ने पूरे देश को यह दर्द समझाया. यह बताया की
यह दर्द लाइलाज नहीं है, विकास की चालू अवधारणा पर सवालिया निशान लगाया, वैकल्पिक
विकास की सोच शुरू की. जल-जंगल-जमीन पर स्थानीय लोगों के स्वामित्व का सिद्धांत
रखा. अगर नर्मदा बचाओ आंदोलन न होता तो न इतने आंदोलन होते, न ही इन आंदोलनों में
इतनी नैतिक व राजनैतिक ऊर्जा होती.
अगर नर्मदा बचाओ आंदोलन न होता तो अंग्रेजों के 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून की
समीक्षा न होती, 2013 में संसद की सर्वसम्मति से नया कानून न बनता और 2015 में उस
कानून को निरस्त करने की मोदी सरकार की कोशिश का इतना सफल विरोध न होता. बेशक
नर्मदा बचाओ आंदोलन से सत्ता की बेहयाई नहीं रूकी, बांध की ऊंचाई नहीं रूकी लेकिन,
देश की आंख में डेढ़ मीटर की मेधा पाटकर का कद 122 मीटर के बांध और उसे बनाने वालों
से बड़ा है.
बड़वानी के राजघाट पर मेरा मन 30 साल आगे देखने लगा. सन् 2045 में देश का
प्रधानमंत्री इसी राजघाट पर खड़ा होकर देश की ओर से माफी मांग रहा है. आदिवासियों,
किसानों, मजदूरों से, उनकी पीढियों से. विकास के नाम पर हुए विनाश के लिए, आजीविका
छीनने, प्रकृति के ध्वंस, स्मृति-चिन्हों से हिंसा के लिए. माफी मांग रहा है नर्मदा
से, कह रहा है कि हमें इस घाटी की गूंज सुननी चाहिए थी, "नर्मदा बचाओ, मानव बचाओ".
31.08.2015,
11.30 (GMT+05:30) पर प्रकाशित