रिकॉर्ड फसल लेकिन किसान बेहाल
मुद्दा
रिकॉर्ड फसल लेकिन
किसान बेहाल
देविंदर
शर्मा
नितिन गावरे महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के एक छोटे किसान हैं. जब उन्हें टमाटर की
अपनी फसल के मुनासिब दाम नहीं मिले, तब उन्होंने अपने गुस्से और हताशा को जाहिर
करने का नायाब तरीका निकाला.
उन्होंने गांव के अपने साथियों को कागज पर छपा एक न्यौता भेजा कि वे सब उनके खेत
में आएं और देखें कि वह कैसे टमाटर की अपनी फसल को बर्बाद कर रहे हैं. फिर क्या था,
पूरे बैंड और बाजे के साथ उन्होंने भेड़ों और बकरियों के झुंड को चरने के लिए अपने
एक एकड़ के खेत में खुला छोड़ दिया.
खुद अपनी ही फसल का नाश करने के प्रदर्शन के जरिये नितिन गावरे दरअसल एक जोरदार
राजनीतिक वक्तव्य दे रहे थे.
मुंबई में हुए शांतिपूर्ण प्रदर्शन के एक महीने के बाद और सत्तासीन सरकारों द्वारा
बार-बार किए गए अनगिनत वायदों के कई वर्षों बाद भी अगर किसानों के पास अपनी फसल को
खुद ही बर्बाद करने के सिवाए कोई चारा न बचे, तो यह असंवेदनशीलता नहीं तो और क्या
है.
कड़ी मेहनत और तकरीबन साठ हजार रुपये खर्चने के बाद एक एकड़ में टमाटर की फसल उगाने
के बाद अगर वह कुछ कमाई की उम्मीद कर रहे थे, तो इसमें गलत कुछ भी नहीं था. जरा
उनकी नाराजगी का अंदाजा लगाइए, जब व्यापारियों ने उनके टमाटरों के लिए एक रुपया
प्रति किलो का दाम लगाया.
अभी कुछ ही दिन पहले नाराज किसानों ने छत्तीसगढ़ में जगदलपुर मार्केट यार्ड के
अहाते में पंद्रह क्विंटल टमाटर फेंक दिए. यह कोई पहली बार नहीं है. इससे पहले भी
कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में वर्षों से टमाटर
किसान अपनी फसल सड़कों पर फेंकते आए हैं.
हालांकि पिछले दो वर्षों में मानसून के फिर से सामान्य होने के बाद से भारत में
रिकॉर्ड उत्पादन हुआ है. चाहे टमाटर हो, या आलू या फिर प्याज समेत मिर्च, कपास,
सरसों और दालें, रिपोर्टें बताती हैं कि देश भर के किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य
प्राप्त नहीं हो सका है. किसानों को दालों के जो औसत दाम मिल रहे हैं, वह न्यूनतम
समर्थन मूल्य से 15 से 40 फीसदी कम है.
हालांकि इस वर्ष खाद्यान्न उत्पादन तकरीबन 27.75 करोड़ टन रहने की उम्मीद है. इसमें
2.39 करोड़ टन दालों का रिकॉर्ड उत्पादन शामिल है. अफसोस की बात है कि देश में नई
फसलों के संग्रहण के लिए जरूरी क्षमता नहीं है.
जहां तक चावल की बात है, तो पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष 25 लाख टन अधिक
उत्पादन की उम्मीद है, जिससे चावल का उत्पादन 11.1 करोड़ टन को पार कर जाएगा. इसी
तरह से गेहूं की पैदावार में भी मामूली बढ़त होगी और यह 9.68 करोड़ टन के आसपास हो
सकता है.
'ज्यादा उत्पादन और ज्यादा नष्ट करें' इस विरोधाभास से पूरा देश ग्रस्त है. भारतीय
कृषि व्यवस्था की सबसे बड़ी कमी है कि यहां उपज आधिक्य को संभालने का कोई प्रबंध
नहीं है.
1980 के दशक की शुरुआत में अर्थशास्त्री डॉ एस एस जोहाल की अध्यक्षता में गठित
पंजाब की फसल वैविध्य समिति की पहली रिपोर्ट में कहा गया कि फल और सब्जियों के
उत्पादन में एक फीसदी की बढ़ोतरी भी गंभीर संकट का सबब बन सकती है.
मुझे नहीं लगता कि इसके बाद भी कोल्ड स्टोरेज और सुप्रबंधित वेयरहाउस की पर्याप्त
व्यवस्था को लेकर किसी प्रकार का कोई निवेश किया गया है. तमाम बातें और वायदे किए
गए, लेकिन जब गेहूं और चावल को संग्रहीत करने की पर्याप्त व्यवस्था अब तक नहीं हो
पाई है, फिर सब्जियों की तो बात ही क्या.
तकरीबन 40 साल होने को आए, तमाम सरकारें आईं, लेकिन खाद्य संग्रहण और वितरण
व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने को प्राथमिकता पर लाने की दिशा में कोई काम नहीं हो पाया.
हालांकि 1979 में खाद्य और नागरिक आपूर्ति मंत्रालय द्वारा शुरू किए गए 'अधिक अन्न
उपजाओ' कार्यक्रम के तहत देश भर में पचास खाद्य संग्राहकों की स्थापना की बात की
गई. यह प्रस्ताव 40 वर्ष पहले का है.
इस प्रस्ताव के पीछे यह मंशा छिपी थी कि गेहूं उत्पादक राज्यों पर संग्रहण के बढ़े
हुए बोझ को कम करने के लिए देश भर में संग्रहण क्षमता का नेटवर्क विकसित किया जाए.
इससे गरीबों के बीच खाद्यान्न के वितरण को भी प्रभावशाली बनाया जा सकेगा. अगर यह
प्रस्ताव कार्यान्वित हो गया होता, तो पंजाब, हरियाणा और अब मध्य प्रदेश खुले में
खाद्यान्न संग्रहण की चुनौती से न जूझ रहे होते.
सवाल प्राथमिकताएं निर्धारित करने का है. कुछ महीने पहले देश के वित्त मंत्री अरुण
जेटली ने अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए एक आर्थिक पैकेज देने की घोषणा की थी.
इसमें राजमार्गों के निर्माण के लिए आवंटित 6.9 लाख करोड़ रुपये भी शामिल थे. समझ
नहीं आता कि आखिर क्यों नीति निर्माता छह लेन वाले राजमार्गों के अलावा कुछ देख
नहीं पाते.
विशाल खाद्य भंडारों को सुरक्षित रखने के लिए संग्रहण क्षमता में बढ़ोतरी करना क्या
राष्ट्रीय प्राथमिकता में नहीं आना चाहिए? यदि सरकार ने राजमार्गों के आवंटन से एक
लाख करोड़ रुपये ही इस मद में दे दिए होते, तो खाद्यान्न के लिए विशाल भंडार गृह का
निर्माण हो जाता.
जैसा कि मैं पहले भी कह चुका हूं कि 'खाद्य' कभी भी राष्ट्रीय एजेंडे में सर्वोच्च
स्थान पर नहीं रहा है. यूपीए के दस वर्षों के शासन में ढाई लाख पंचायत घर बनाने के
लिए बड़ा निवेश किया गया, लेकिन हैरत की बात है कि देश भर में भंडार गृह बनाने के
लिए सरकारों के पास पैसा नहीं है.
इसलिए किसान जब अपनी पैदावर को मिट्टी के मोल बेचने को या फिर सड़कों पर फेंकने को
मजबूर हों, तो हैरत नहीं होनी चाहिए.
19.09.2016,
19.39 (GMT+05:30) पर प्रकाशित