रेगिस्तान बनता मालवा
मुद्दा
रेगिस्तान बनता मालवा
राजेन्द्र बंधु,
इंदौर से
मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र के बारे में कही जाने वाली “डग-डग रोटी, पग-पग नीर” की
कहावत अब गुजरे जमाने की बात हो गई है. उपजाऊ काली मिट्टी और पर्याप्त पानी से
संपन्न मालवा अब रेगिस्तान की ओर बढ़ रहा है.
यह स्थिति टयूबवेल से अत्यधिक पानी निकालने के कारण निर्मित हुई है. हरित क्रांति
की तर्ज पर यहां अधिक पानी की जरूरत वाले बीजों की खेती की गई, जिससे तात्कालिक रूप
से तो उपज में बढ़ोतरी तो हुई किन्तु उसने ज़मीन का पानी तेजी के साथ खत्म करना शुरु
किया और मालवा को रेगिस्तान में बदलने की प्रक्रिया शुरू कर दी.
पश्चिम मध्यप्रदेश में राजधानी भोपाल से लेकर राजस्थान की सीमा तक फैले मालवा
क्षेत्र में देवास, इंदौर, उज्जैन, शाजापुर, मंदसौर, नीमच, रतलाम जिले शामिल हैं.
भौगोलिक रुप से सीहोर और भोपाल जिले भी मालवा के पठार पर स्थित माने जाते हैं. इस
साल कम वर्षा के कारण प्रदेश के सूखाग्रस्त 34 जिलों में मालवा के सभी 9 जिले भी
शामिल हैं.
मालवा में सूखा और जल संकट का इतिहास कोई तीन दशक पुराना है. इस इलाके में जल संकट
की शुरूआत सत्तर के दशक से ही हो गई थी, जब आधुनिक कृषि पद्धति के विकास के साथ ही
नलकूपों को सिंचाई के एक बेहतर विकल्प के रूप में प्रचारित किया गया था. पिछले 30
सालों में सरकार द्वारा सिंचित क्षेत्र के विस्तार के प्रयास किए गए, जिसमें नलकूल
खनन और पानी खींचने वाली विद्युत मोटर के लिए बड़े पैमाने पर ऋण व सुविधाएं उपलब्ध
करवाई गई.
इसका नतीजा यह हुआ कि इस इलाके के गांव-गांव में नलकूप खनन की बाढ़ आ गई. लोगों को
लगने लगा कि यही सिंचाई का एक मात्र विकल्प है. सन् 1977 से 1989 के बीच मालवा में
टयूबवेलों द्वारा सिंचित क्षेत्र में 17 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ोतरी हुई,
वहीं 1989 से 1992 के बीच यह गति 24 प्रतिशत प्रति वर्ष हो गई.
उद्योग बनाम पानी
टयूबवेल से सिंचाई की गति का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि कई गांवों में
टयूबवेल की संख्या 500 से 1000 के बीच पाई गई है. जाहिर है, पानी निकालने की इस
तकनीक के गंभीर परिणाम तो आने ही थे. हाल ही के एक अध्ययन में पाया गया कि देवास
जिले के इस्माईल खेड़ी नामक गांव में खोदे गए 1000 टयूबवेलों में से 500 से ज्यादा
टयूबवेल सूख चुके हैं. जमीन से लगातार पानी के दोहन के कारण इस गांव की सदियों
पुरानी 12 कुण्डियां भी सूख चुकी है. जिससे गांव में पीने के पानी का संकट पैदा हो
गया है. आश्चर्य की बात यह है कि भूजल स्तर की इस गिरावट से सबक लेने के बजाय लोग
टयूबवेल को गहराकर 400 फिट नीचे से पानी निकालने लगे.
क्षिप्रा का पानी पशुओं तक को पानी पिलाना संभव नहीं रह गया है. इसका खास कारण इस
क्षेत्र में उद्योग, पेयजल एवं सिंचाई के लिए खोदे गए टयूबवेल हैं. |
मालवा में जल संकट को ज्यादा भयावह बनाने में औद्योगिकरण की भी खास भूमिका रही है.
देवास, इंदौर, उज्जैन एवं पीथमपुर स्थित औद्योगिक इकाइयों द्वारा टयूबवेल के जरिये
पानी का असीमित दोहन किया गया. ज्यादातर उद्योगों में पानी के पुनरउपयोग के संयत्र
न लगाने से पानी की खपत लगातार बढ़ती गई, जिससे भूजल इतना कम हो गया कि पानी के अभाव
में कई उद्योगों के बंद होने की नौबत आ गई. देवास के उद्योगों को बचाने के लिए तो
सवा सौ किलोमीटर दूर नेमावर नामक स्थान से नर्मदा का पानी लाने की तैयारी की जा रही
है. उद्योगों द्वारा भूजल के असीमित दोहन के कारण क्षेत्र के पुराने कुएं, बाबड़ियां
और नदी-नाले सूख चुके हैं.
मैदान बनती क्षिप्रा नदी
कभी मालवा की जीवन रेखा मानी जाने वाली क्षिप्रा नदी आज मैदान में तब्दील हो चुकी
है. यह नदी 200 किलोमीटर परिक्षेत्र से गुजर कर उज्जैन, देवास, महिदपुर आदि शहरों
की करीब छह लाख आबादी की प्यास बुझाती रही है. साथ ही क्षेत्र के लघु एवं मंझोले
किसानों को सिंचाई और पशुपालन के लिए क्षिप्रा नदी से ही पानी प्राप्त होता था.
लेकिन पिछले दो दशकों में इसकी दुर्गति इस हद तक हुई है कि क्षिप्रा का पानी पशुओं
तक को पानी पिलाना संभव नहीं रह गया है. इसका खास कारण इस क्षेत्र में उद्योग,
पेयजल एवं सिंचाई के लिए खोदे गए टयूबवेल हैं, जिनकी गहराई ज्यादा होने के कारण
क्षिप्रा का पानी उल्टी दिशा में होकर उनमें चला गया. आज हालात यह है बारिश को
छोड़कर किसी भी मौसम में इसमें पानी नहीं मिलता. क्षिप्रा नदी की इस दशा के बावजूद
उसके संरक्षण और विकास की कोई योजना आज तक नहीं बनी.
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क्षिप्रा नदी के खत्म होने से उसके आसपास के क्षेत्र में जनजीवन को हुए नुकसान की
ओर आज तक किसी का ध्यान नहीं गया. इस क्षेत्र के लघु एवं सीमान्त किसान पशुपालन के
जरिये अपनी आजीविका चलाते थे लेकिन पानी के अभाव में उन्हें अपने पशु बेचने पड़े.
200 किलोमीटर के क्षेत्र में क्षिप्रा नदी के आसपास के करीब 35 गांवों के लोगों की
आजीविका का यह साधन हमेशा के लिए खत्म हो गया. इस क्षेत्र के कई लोग आज उद्योगों
में मजदूरी करने को विवश है.
प्यास बुझे तो कैसे
हाल ही में इंदौर शहर में लागू जल आपातकाल मालवा के पेयजल संकट का ताजा सबूत है.
जमीन में पानी खत्म होने के बाद इंदौर शहर की प्यास बुझाने के लिए नर्मदा नदी से
पानी लाया जा रहा है. इसी के साथ ही उज्जैन और देवास शहर में भी नर्मदा की मांग की
जा रही है. आश्चर्य की बात यह है कि इन शहरों के अपने जल स्रोत क्यों खत्म हो चुके
हैं, इस पर विचार करने की किसी को फुर्सत नहीं हैं.
जल स्रोतों और जल उपयोग के प्रति अपना नजरिया बदले बिना यदि एक नदी पर प्रदेश के
सभी शहर निर्भर होंगे तो उस नदी की उम्र कितनी होगी, यह आसानी समझा जा सकता है.
देवास शहर मध्यप्रदेश में सबसे ज्यादा जल संकट वाला शहर माना गया हैं, जहां नब्बे
के दशक में इंदौर शहर से रेल द्वारा पानी पहुंचाया गया था. देवास में जल संकट की
समस्या गलत नीतियों की वजह से ज्यादा जटिल हुई है. खासकर 1973 में शुरू हुए नलकूप
खनन की सिलसिले ने यहां भूजल का तेजी से दोहन कर समस्या को और भी गहरा कर दिया.
देवास के पांच स्थानों पर 13 टयूबवेल कॉम्प्लेक्स स्थापित किए गए थे और हर टयूबवेल
काम्प्लेक्स में 10-12 टयूबवेल खोदे गए. टयूबवेल कॉप्लेक्स के जरिये देवास की जनता
को पानी पिलाने का तरीका इतना घातक सिद्ध हुआ कि आज यहां इंदौर के रास्ते नर्मदा का
पानी लाना पड़ रहा है. नर्मदा के पानी के बावजूद इंदौर व देवास शहर भीषण जल संकट की
चपेट में हैं.
इंदौर शहर में 3350 सार्वजनिक टयूबवेल में से 750 टयूबवेल सूख चुके हैं और करीब
1000 टयूबवेल सूखने के कगार पर है. अनुमान लगाया जा रहा है कि आने वाले एक महीने
में यहां करीब डेढ़ हजार सार्वजनिक टयूबवेल पानी देना बंद कर देंगे. इंदौर, देवास के
साथ ही प्रदेश के अन्य कस्बों और गांवों में जल संकट भीषण रूप ले चुका है. टयूबवेल
के जरिये पानी निकालने के कारण एक ओर जहां जमीन में पानी खत्म हो चुका है, वहीं
कुए, बाबड़ियां, तालाब जैसे पारंपरिक जल स्रोत भी सूख चुके हैं.
मालवा में कुएं, बाबड़ी और तालाब निर्माण
की लम्बी परपंरा रही है. किन्तु खेती और सिंचाई की आधुनिक पद्धति में पारंपरिक जल
स्रोतों के बजाय टयूबवेल को बढ़ावा दिया गया. |
धरती का इंकार
मालवा की भूगर्भीय स्थिति टयूबवेल के जरिये पानी के दोहन की इजाजत नही देती. इसके
बावजूद पिछले 30 सालों में यहां सिंचाई, पेयजल और उद्योगों के लिए पानी की आपूर्ति
टयूबवेल के जरिये की जाती रही है. मालवा का पठार काली चट्टान यानी बेसाल्ट से बना
हुआ है. ये चट्टानें छह करोड़ साल पहले ज्वालामुखी के विस्फोट के कारण उत्पन्न लावा
से बनी हैं, जो अत्यन्त कठोर है, उनमें पानी का रिसाव नहीं होता.
इस तरह की चट्टानें गुजरात, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के 320,000 वर्ग किलोमीटर
क्षेत्र में पाई जाती है. इन चट्टानों में उत्पन्न कुछ दरारों और छिद्रों के रास्ते
ही पानी जमीन के अंदर पहुंचता है. यही कारण है कि मालवा में जहां लोग 400 फिट गहराई
से पानी निकाल रहे हैं, वहां पानी का पुनर्भण्डारण आसान नहीं है. इस दशा में वहां
एकत्र पानी को निकालने के बाद टयूबवेल का सूखना एक आम प्रक्रिया है. यही कारण है कि
इतनी गहराई तक खोदे गए टयूबवेल भी लम्बे समय तक नहीं चलते.
विशेषज्ञों का मानना है कि मालवा के इलाके में पानी की आपूर्ति भूजल के बजाय बारिश
के पानी को सहेज कर सतही जल से किया जाना ज्यादा उपयोगी हैं. मालवा में कुएं, बाबड़ी
और तालाब निर्माण की लम्बी परपंरा रही है. किन्तु खेती और सिंचाई की आधुनिक पद्धति
में पारंपरिक जल स्रोतों के बजाय टयूबवेल को बढ़ावा दिया गया, जिसके घातक परिणाम आज
हमारे सामने हैं.
इस मामले में पंजाब-हरियाणा के अनुभवों से भी सबक लिया जा सकता है, जहां पर्याप्त
मात्रा में भूजल होने के बावजूद उसके अत्यधिक दोहन से पर्यावरण का संकट पैदा हो गया
है और कृषि वैज्ञानिक खेती के तरीकों में बदलाव की बात कर रहे हैं.
मालवा के रेगिस्तानीकरण को रोकने के लिए यह जरूरी है कि पानी के दोहन के टयूबवेल
आधारित आधुनिक तरीके को रोका जाए और सतही जल व उससे संबंधित जल स्रोतों के विकास पर
ध्यान दिया जाए. यहां ऐसी कृषि पद्यति और फसलों को प्रचलित करना होगा, जिनमें पानी
की खपत कम से कम हो. हमारे यहां इस तरह कई देसी बीज और पारंपरिक तरीके मौजूद हैं,
किन्तु आधुनिक खेती के चलते वे लुप्त होने के कगार पर हैं. यदि पानी के दोहन की
मौजूदा पद्धति नहीं बदली गई तो मालवा को रेगिस्तान बनने से रोकना मुश्किल होगा.
28.04.2009,
03.44 (GMT+05:30) पर प्रकाशित