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भगत सिंह के बारे में कुछ अनदेखे तथ्य
बहस
भगत सिंह के बारे में कुछ अनदेखे
तथ्य
कनक तिवारी
मैं भगतसिंह के बारे में कुछ भी कहने के लिए अधिकृत व्यक्ति नहीं हूं. लेकिन एक
साधारण आदमी होने के नाते मैं ही अधिकृत व्यक्ति हूं, क्योंकि भगतसिंह के बारे में
अगर हम साधारण लोग गम्भीरतापूर्वक बात नहीं करेंगे तो और कौन करेगा. मैं किसी
भावुकता या तार्किक जंजाल की वजह से भगतसिंह के व्यक्तित्व को समझने की कोशिश कभी
नहीं करता. इतिहास और भूगोल, सामाजिक परिस्थितियों और तमाम बड़ी उन ताकतों की, जिनकी
वजह से भगतसिंह का हम मूल्यांकन करते हैं, अनदेखी करके भगतसिंह को देखना मुनासिब
नहीं होगा.
पहली बात यह कि कि दुनिया के इतिहास में 24 वर्ष की उम्र भी जिसको नसीब नहीं
हो, भगतसिंह से बड़ा बुद्धिजीवी कोई हुआ है? भगतसिंह का यह चेहरा जिसमें उनके
हाथ में एक किताब हो-चाहे कार्ल मार्क्स की दास कैपिटल, तुर्गनेव या गोर्की या
चार्ल्स डिकेन्स का कोई उपन्यास, अप्टान सिन्क्लेयर या टैगोर की कोई किताब-ऐसा
उनका चित्र नौजवान पीढ़ी के सामने प्रचारित करने का कोई भी कर्म हिन्दुस्तान में
सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों सहित भगतसिंह के प्रशंसक-परिवार ने भी लेकिन
नहीं किया. भगतसिंह की यही असली पहचान है.
भगतसिंह की उम्र का कोई पढ़ा लिखा व्यक्ति क्या भारतीय राजनीति का धूमकेतु बन
पाया? महात्मा गांधी भी नहीं, विवेकानन्द भी नहीं. औरों की तो बात ही छोड़ दें.
पूरी दुनिया में भगतसिंह से कम उम्र में किताबें पढ़कर अपने मौलिक विचारों का
प्रवर्तन करने की कोशिश किसी ने नहीं की. लेकिन भगतसिंह का यही चेहरा सबसे
अप्रचारित है. इस उज्जवल चेहरे की तरफ वे लोग भी ध्यान नहीं देते जो सरस्वती के
गोत्र के हैं. वे तक भगतसिंह को सबसे बड़ा बुद्धिजीवी कहने में हिचकते हैं.
दूसरी शिकायत मुझे खासकर हिन्दी के लेखकों से है. 17 वर्ष की उम्र में भगतसिंह
को एक राष्ट्रीय प्रतियोगिता में 'पंजाब में भाषा और लिपि की समस्या' विषय पर
'मतवाला' नाम के कलकत्ता से छपने वाली पत्रिका के लेख पर 50 रुपए का प्रथम
पुरस्कार मिला था. भगतसिंह ने 1924 में लिखा था कि पंजाबी भाषा की लिपि
गुरुमुखी नहीं देवनागरी होनी चाहिए.
यह आज तक हिन्दी के किसी भी लेखक-सम्मेलन ने ऐसा कोई प्रस्ताव पारित नहीं किया
है. आज तक हिन्दी के किसी भी बड़े लेखकीय सम्मेलन में भगतसिंह के इस बड़े इरादे
को लेकर कोई धन्यवाद प्रस्ताव पारित नहीं किया गया है. उनकी इस स्मृति में
भाषायी समरसता का कोई पुरस्कार स्थापित नहीं किया गया. इसके बाद भी हम भगतसिंह
का शहादत दिवस मनाते हैं. भगतसिंह की जय बोलते हैं. हम उनके रास्ते पर चलना
नहीं चाहते. मैं तो लोहिया के शब्दों में कहूंगा कि रवीन्द्रनाथ टेगौर से भी
मुझे शिकायत है कि आपको नोबेल पुरस्कार भले मिल गया हो. लेकिन 'गीतांजलि' तो
आपने बांग्ला भाषा और लिपि में ही लिखी. एक कवि को अपनी मातृभाषा में रचना करने
का अधिकार है लेकिन भारत के पाठकों को, भारत के नागरिकों को, मुझ जैसे नाचीज
व्यक्ति को इतिहास के इस पड़ाव पर खड़े होकर यह भी कहने का अधिकार है कि आप हमारे
सबसे बड़े बौद्धिक नेता हैं. लेकिन भारत की देवनागरी लिपि में लिखने में आपको
क्या दिक्कत होती.
मैं लोहिया के शब्दों में महात्मा गांधी से भी शिकायत करूंगा कि 'हिन्द स्वराज'
नाम की आपने अमर कृति 1909 में लिखी वह अपनी मातृभाषा गुजराती में लिखी. लेकिन
उसे आप देवनागरी लिपि में भी लिख सकते थे. जो काम गांधी और टैगोर नहीं कर सके.
जो काम हिन्दी के लेखक ठीक से करते नहीं हैं. उस पर साहसपूर्वक बात तक नहीं
करते हैं. सन् 2009 में भी बात नहीं करते हैं. भगतसिंह जैसे 17 साल के तरुण ने
हिन्दुस्तान के इतिहास को रोशनी दी है. उनके ज्ञान-पक्ष की तरफ हम पूरी तौर से
अज्ञान बने हैं. फिर भी भगतसिंह की जय बोलने में हमारा कोई मुकाबला नहीं है.
तीसरी बात यह है कि भगतसिंह जिज्ञासु विचारक थे, क्लासिकल विचारक नहीं. 23 साल
की उम्र का एक नौजवान स्थापनाएं करके चला जाये-ऐसी संभावना भी नहीं हो सकती.
भगतसिंह तो विकासशील थे. बन रहे थे. उभर रहे थे. अपने अंतत: तक नहीं पहुंचे थे.
हिन्दुस्तान के इतिहास में भगतसिंह एक बहुत बड़ी घटना थे. भगतसिंह को इतिहास और
भूगोल के खांचे से निकलकर अगर हम मूल्यांकन करें और भगतसिंह को इतिहास और भूगोल
के संदर्भ में रखकर अगर हम विवेचित करें, तो दो अलग अलग निर्णय निकलते हैं.
मान लें भगतसिंह 1980 में पैदा हुए होते और 20 वर्ष में बीसवीं सदी चली जाती.
उसके बाद 2003 में उनकी हत्या कर दी गई होती. उन्हें शहादत मिल गई होती. तो
भगतसिंह का कैसा मूल्यांकन होता. भगतसिंह 1907 में पैदा हुए और 1931 में हमारे
बीच से चले गये. ऐसे भगतसिंह का मूल्यांकन कैसा होना चाहिए.
भगतसिंह एक ऐसे परिवार में पैदा हुए थे जो राष्ट्रवादी और देशभक्त परिवार था.
वे किसी वणिक या तानाशाह के परिवार में पैदा नहीं हुए थे. मनुष्य के विकास में
उसके परिवार, मां बाप की परवरिश, चाचा और औरों की भूमिका होती है. भगतसिंह के
चाचा अजीत सिंह एक विचारक थे, लेखक थे, देशभक्त नागरिक थे. उनके पिता खुद एक
बड़े देशभक्त नागरिक थे. उनका भगतसिंह के जीवन पर असर पड़ा. लाला छबीलदास जैसे
पुस्तकालय के प्रभारी से मिली किताबें भगतसिंह ने दीमक की तरह चाटीं. वे कहते
हैं कि भगतसिंह किताबों को पढ़ता नहीं था. वह तो निगलता था.
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1914 से 1919 के बीच पहला विश्वयुद्ध हुआ. उसका भी भगतंसिंह पर गहरा असर हुआ.
भगतसिंह के पिता और चाचा कांग्रेसी थे. भगतसिंह जब राष्ट्रीय राजनीति में
धूमकेतु बनकर, ध्रुवतारा बनकर, एक नियामक बनकर उभरने की भूमिका में आए, तब 1928
का वर्ष आया. 1928 हिन्दुस्तान की राजनीति के मोड़ का बहुत महत्वपूर्ण वर्ष है.
1928 में इतनी घटनाएं और अंग्रेजों के खिलाफ इतने आंदोलन हुए जो उसके पहले नहीं
हुए थे. जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा भी है कि 1928 का वर्ष भारी
उथलपुथल का, भारी राजनीतिक हलचल का वर्ष था. 1930 में कांग्रेस का रावी अधिवेशन
हुआ. 1928 से 1930 के बीच ही कांग्रेस की हालत बदल गई. जो कांग्रेस केवल पिटीशन
करती थी, अंग्रेज से यहां से जाने की बातें करती थी. उसको मजबूर होकर लगभग
अर्धहिंसक आंदोलनों में भी अपने आपको कभी कभी झोंकना पड़ा. यह भगतसिंह का
कांग्रेस की नैतिक ताकत पर मर्दाना प्रभाव था. हिन्दुस्तान की राजनीति में
कांग्रेस में पहली बार युवा नेतृत्व अगर कहीं उभर कर आया है तो सुभाष बाबू और
जवाहरलाल नेहरू के नाम. कांग्रेस में 1930 में जवाहरलाल नेहरू लोकप्रिय नेता
बनकर 39 वर्ष की उम्र में राष्ट्र्रीय अध्यक्ष बने. उनके हाथों तिरंगा झंडा
फहराया गया और उन्होंने कहा कि पूर्ण स्वतंत्रता ही हमारा लक्ष्य है. भारतीय
राष्ट्रीय कांग्रेस का यह चरित्र मुख्यत: भगतसिंह की वजह से बदला. भगतसिंह इसके
समानांतर एक बड़ा आंदोलन चला रहे थे.
लोग गांधीजी को अहिंसा का पुतला कहते हैं और भगतसिंह को हिंसक कह देते हैं.
भगतसिंह हिंसक नहीं थे. जो आदमी खुद किताबें पढ़ता था, उसको समझने के लिए
अफवाहें गढ़ने की जरूरत नहीं है. उसको समझने के लिए अतिशयोक्ति, अन्योक्ति,
ब्याज स्तुति और ब्याज निंदा की जरूरत नहीं है. भगतंसिंह ने 'मैं नास्तिक क्यों
हूं' लेख लिखा है. भगतंसिंह ने नौजवान सभा का घोषणा पत्र लिखा जो कम्युनिस्ट
मेनिफेस्टो के समानांतर है. भगतसिंह ने अपनी जेल डायरी लिखी है, जो आधी अधूरी
हमारे पास आई है. भगतसिंह ने हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी एसोसिएशन का घोषणा
पत्र, उसका संविधान बनाया.
पहली बार भगतसिंह ने कुछ ऐसे बुनियादी मौलिक प्रयोग हिन्दुस्तान की राजनीतिक
प्रयोगशाला में किए हैं जिसकी जानकारी तक लोगों को नहीं है. भगतंसिंह के मित्र
कॉमरेड सोहन सिंह जोश उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी में ले जाना चाहते थे, लेकिन
भगतंसिंह ने मना कर दिया. जो आदमी कट्टर मार्क्सवादी था, जो रूस के तमाम
विद्वानों की पुस्तकों को चाटता था. फांसी के फंदे पर चढ़ने का फरमान पहुंचने के
बाद जब जल्लाद उनके पास आया तब बिना सिर उठाए भगतसिंह ने उससे कहा 'ठहरो भाई,
मैं लेनिन की जीवनी पढ़ रहा हूं. एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा
है. थोड़ा रुको.' आप कल्पना करेंगे कि जिस आदमी को कुछ हफ्ता पहले, कुछ दिनों
पहले, यह मालूम पड़े कि उसको फांसी होने वाली है. उसके बाद भी रोज किताबें पढ़
रहा है. भगतसिंह मृत्युंजय था. हिन्दुस्तान के इतिहास में इने गिने ही
मृत्युंजय हुए हैं.
भगतसिंह भारत का पहला नागरिक, विचारक और नेता है जिसने
कहा था कि हिन्दुस्तान में केवल किसान और मजदूर के दम पर नहीं, जब तक नौजवान उसमें
शामिल नहीं होंगे, तब तक कोई क्रांति नहीं हो सकती. |
भगतसिंह ने कुछ मौलिक प्रयोग किए थे. इंकलाब जिंदाबाद मूलत: भगतसिंह का नारा नहीं
था. वह कम्युनिस्टों का नारा था. लेकिन भगतसिंह ने इसके साथ एक नारा जोड़ा था
'साम्राज्यवाद मुर्दाबाद.' भगतसिंह ने तीसरा एक नारा जोड़ा था 'दुनिया के मजदूरों एक
हो.' ये तीन नारे भगतसिंह ने हमको दिए थे. कम्युनिस्ट पार्टी या कम्युनिस्टों का
अंतर्राष्ट्र्रीय क्रांति का नारा भगतसिंह की जबान में चढ़ने के बाद अमर हो गया.
'साम्राज्यवाद मुर्दाबाद' का नारा आज भी कुलबुला रहा है हमारे दिलों के अंदर, हमारे
मन के अंदर, हमारे सोच में. क्या सोच कर भगतसिंह ने 'साम्राज्यवाद मुर्दाबाद' का
नारा दिया होगा. तब तक गांधी जी ने यह नारा नहीं दिया था. क्या सोच कर भगतसिंह ने
कहा दुनिया के मजदूरों एक हो.
हम उस देश में रहते हैं, जहां अंग्रेजों के बनाए काले कानून आज भी हमारी आत्मा पर
शिकंजा कसे हुए हैं और हमको उनकी जानकारी तक नहीं है. हम इस बात में गौरव समझते हैं
कि हमने पटवारी को पचास रुपए घूस खाते हुए पकड़वा दिया और हम समाज के बेहद ईमानदार
आदमी हैं. हमें बड़ी खुशी होती है, जब लायंस क्लब के अध्यक्ष बनकर हम कोई प्याऊ या
मूत्रशाला खोलते हैं और अपनी फोटो छपवाते हैं. हमें बेहद खुशी होती है अपने पड़ोसी
को बताते हुए कि हमारा बेटा आईटीआई में फर्स्ट आया है और अमेरिका जाकर वहां की
नौकरी कर रहा है और सेवानिवृत्त होने के बाद उसके बच्चों के कपड़े धोने हम भी
जाएंगे. इन सब बातों से देश को बहुत गौरव का अनुभव होता है. लेकिन मूलत: भगतसिंह ने
कहा क्या था.
भगतसिंह भारत का पहला नागरिक, विचारक और नेता है जिसने कहा था कि हिन्दुस्तान में
केवल किसान और मजदूर के दम पर नहीं, जब तक नौजवान उसमें शामिल नहीं होंगे, तब तक
कोई क्रांति नहीं हो सकती. कोई पार्टी नौजवानों को राजनीति में सीधे आने का आव्हान
नहीं करती. यह अलबत्ता बात अच्छी हुई कि राजीव गांधी के कार्यकाल में 18 वर्ष के
नौजवान को वोट डालने का अधिकार तो मिला. वरना नौजवान को तो हम बौद्धिक दृष्टि से
हिन्दुस्तान की राजनीति में बांझ समझते हैं.
हम उस देश में रहते हैं, जहां की सुप्रीम कोर्ट कहती है कि जयललिता जी को इस बात का
अधिकार है कि वे हजारों सरकारी कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दें. और सरकारी
कर्मचारियों का कोई मौलिक अधिकार नहीं है कि अपने सेवा शर्तों की लड़ाई के लिए धरना
भी दे सकें. प्रदर्शन कर सकें. हड़ताल कर सकें. हम उस देश में रहते हैं, जहां
नगरपालिकाएं पीने का पानी जनता को मुहैया कराएं, यह उनका मौलिक कर्तव्य नहीं है.
अगर नगरपालिका पीने का पानी मुहैया नहीं कराती है तो भी हम टैक्स देने से नहीं बच
सकते. इस देश का सुप्रीम कोर्ट और हमारा कानून कहता है कि आपको नगरपालिका पीने का
पानी भले मत दे. आप प्यासे भले मर जाएं लेकिन टैक्स आपको देना पड़ेगा क्योंकि उनके
और नागरिक के कर्तव्य में कोई पारस्परिक रिश्ता नहीं है. ये जो जंगल का कानून है
1894 का है.
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हम नदियों का पानी उपयोग कर सकें इसका कानून उन्नीसवीं शताब्दी का है. भारतीय दंड
विधान लॉर्ड मैकाले ने 1860 में बनाया था. पूरे देश का कार्य व्यापार सारी दुनिया
से हो रहा है वह कांट्रेक्ट एक्ट 1872 में बना था. हमारे जितने बड़े कानून हैं, वे
सब उन्नीसवीं सदी की औलाद हैं. बीसवीं सदी तो इस लिहाज से बांझ है. अंग्रेजों की
दृष्टि से बनाए गए हर कानून में सरकार को पूरी ताकत दी गई है कि जनता के आंदोलन को
कुचलने में सरकार चाहे जो कुछ करे, वह वैध माना जाएगा.
आजादी के साठ वर्ष बाद भी इन कानूनों को बदलने के लिए कोई भी सांसद हिम्मत नहीं
करता. आवाज तक नहीं उठाता. भगतसिंह संविधान सभा में तो थे नहीं. भगतसिंह ने
आजादी तो देखी नहीं. वे कहते थे कि हमको समाजवाद एक जीवित लक्ष्य के रूप में
चाहिए जिसमें नौजवान की जरूरी हिस्सेदारी होगी. अस्सी बरस के बूढ़े नेता देश में
चुनाव लड़ना चाहते हैं. 75 या 70 बरस के नेता को युवा कह दिया जाता है. 60 वर्ष
के तो युवा होते ही होते हैं. हम 25 वर्षों के नौजवानों को संसद में नहीं भेजना
चाहते.
महात्मा गांधी भी कहते थे इस देश में 60 वर्ष से ऊपर के व्यक्ति को किसी पार्टी
को टिकट नहीं देना चाहिए. हम पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा आवारा पशुओं,
वेश्याओं और साधुओं के देश हैं. सबसे ज्यादा बेकार, भिखारी, कुष्ठ रोगी, एड्स
के रोगी, अपराधी तत्व, नक्सलवादी, भ्रष्ट नेता, चूहे, पिस्सू, वकील हमारे यहां
हैं. शायद चीन को छोड़कर लेकिन अब हमारी आबादी भी उससे ज्यादा होने वाली हैं.
क्या यही भगतसिंह का देश है. यही भगतसिंह ने चाहा था?
असेम्बली में भगतसिंह ने जानबूझकर कच्चा बम फेंका. अंग्रेज को मारने के लिए
नहीं. ऐसी जगह बम फेंका कि कोई न मरे. केवल धुआं हो. हल्ला हो. आवाज हो. दुनिया
का ध्यान आकर्षित हो. टी डिस्प्यूट बिल और पब्लिक सेफ्टी बिल के खिलाफ भगतसिंह
ने जनजागरण किया. कहां है श्रमिक आंदोलन आज? भारत में कैसी लोकशाही बची है?
श्रमिक आंदोलनों को कुचल दिया गया है. इस देश में कोई श्रमिक आंदोलन होता ही
नहीं है. होने की संभावना भी नहीं है. इस देश की खलनायकी में यहां की विधायिका,
कार्यपालिका और न्यायपालिका तीनों का बराबर का अधिकार है. यह भगतसिंह का सपना
नहीं था. यह भगतसिंह का रास्ता नहीं है.
एक बिंदु की तरफ अक्सर ध्यान खींचा जाता है अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने के लिए
कि महात्मा गांधी और भगतसिंह को एक दूसरे का दुश्मन बता दिया जाए. भगतसिंह को
गांधी जी का धीरे धीरे चलने वाला रास्ता पसंद नहीं था. लेकिन भगतसिंह हिंसा के
रास्ते पर नहीं थे. उन्होंने जो बयान दिया है उस मुकदमे में जिसमें उनको फांसी
की सजा मिली है, उतना बेहतर बयान आज तक किसी भी राजनीतिक कैदी ने वैधानिक
इतिहास में नहीं दिया.
जेल के अंदर छोटी से छोटी चीज भी भगतसिंह के दायरे के बाहर नहीं थी. जेल के
अंदर जब कैदियों को ठीक भोजन नहीं मिलता था और सुविधाएं जो मिलनी चाहिए थीं,
नहीं मिलती थीं, तो भगतसिंह ने आमरण अनशन किया. उनको तो मिल गया. लेकिन क्या आज
हिन्दुस्तान की जेलों में हालत ठीक है? भगतसिंह को संगीत और नाटक का भी शौक था.
भगतसिंह के जीवन में ये सब चीजें गायब नहीं थीं. भगतसिंह कोई सूखे आदमी नहीं
थे. भगतसिंह को समाज के प्रत्येक इलाके में दिलचस्पी थी. तरह तरह के विचारों से
सामना करना उनको आता था. वे एक कुशल पत्रकार थे. आज हमारे अखबार कहां हैं?
अमेरिकी पद्धति और सोच के अखबार. जिन्हें पढ़ने में दो मिनट लगता है. आप टीवी क़े
चैनल खोलिए. एक तरह की खबर आएगी और सबमें एक ही समय ब्रेक हो जाता है. प्रताप,
किरती, महारथी और मतवाला वगैरह तमाम पत्रिकाओं में हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू,
पंजाबी में भगतसिंह लिखते थे. उनसे ज्यादा तो किसी ने लिखा ही नहीं उस उम्र
में. गणेशशंकर विद्यार्थी की उन पर बहुत मेहरबानी थी.
भगतसिंह कुश्ती बहुत अच्छी लड़ते थे. एक बार भगतसिंह और चंद्रशेखर आजाद में
दोस्ती वाला झगड़ा हो गया तो भगतसिंह ने चंद्रशेखर आजाद को कुश्ती में चित्त भी
कर दिया था. एक बहुरंगी, बहुआयामी जीवन इस नौजवान आदमी ने जिया था. वे मरे हुए
या बूढ़े आदमी नहीं थे. खाने पीने का शौक भी भगतसिंह को था. कम से कम दुनिया के
35 ऐसे बड़े लेखक थे जिनको भगतसिंह ने ठीक से पढ़ रखा था. बेहद सचेत दिमाग के 23
साल के नौजवान के प्रति मेरा सिर श्रद्धा से इसलिए भी झुकता है कि समाजवाद के
रास्ते पर हिन्दुस्तान के जो और लोग उनके साथ सोच रहे थे, भगतसिंह ने उनके
समानांतर एक लकीर खींची लेकिन प्रयोजन से भटककर उनसे विवाद उत्पन्न नहीं किया
जिससे अंगरेजी सल्तनत को फायदा हो. मुझे लगता है कि हिन्दुस्तान की राजनीति में
कुछ लोगों को मिलकर काम करना चाहिए था.
मुझे आज तक समझ में नहीं आया कि महात्मा गांधी और विवेकानंद मिलकर हिन्दुस्तान
की राजनीतिक दिशा पर बात क्यों नहीं कर पाये. गांधीजी उनसे मिलने बेलूर मठ गए
थे लेकिन विवेकानंद की बीमारी की वजह से सिस्टर निवेदिता ने उनसे मिलने नहीं
दिया था. समझ में नहीं आता कि भगतसिंह जैसा विद्वान विचारक विवेकानंद के
समाजवाद पर कुछ बोला क्यों नहीं, जबकि विवेकानंद के छोटे भाई भूपेन्द्रनाथ दत्त
को भगतसिंह ने भाषण देने बुलाया था. यह नहीं कहा जा सकता कि विवेकानंद के
विचारों से भगतसिंह परिचित नहीं थे. उनके चेहरे से बहुत से कंटूर उभरते हैं,
जिसको देखने की ताब हममें होनी चाहिए.
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भगतसिंह समाजवाद और धर्म को अलग अलग समझते थे. विवेकानंद समाजवाद और धर्म को
सम्पृक्त करते थे. विवेकानंद समझते थे कि हिन्दुस्तान की धार्मिक जनता को धर्म
के आधार पर समाजवाद की घुट्टी अगर पिलायी जाए तो शायद ठीक से समझ में बात आएगी.
गांधीजी भी लगभग इसी रास्ते पर चलने की कोशिश करते थे. लेकिन भगतसिंह
हिन्दुस्तान का पहला रेशनल थिंकर, पहला विचारशील व्यक्ति था जो धर्म के दायरे
से बाहर था. श्रीमती दुर्गादेवी वोहरा को लेकर जब भगतसिंह को अंग्रेज जल्लादों
से बचने के लिए अपने केश काटकर प्रथम श्रेणी के डब्बे में कलकत्ता तक की यात्रा
करनी पड़ी तो लोगों ने आलोचना की. उन्होंने कहा कि सिख होकर अपने केश कटा लिए
आपने? हमारे यहां तो पांच चीजें रखनी पड़ती हैं हर सिख को. उसमें केश भी होता
है. यह आपने क्या किया. कैसे सिख हैं आप! जो सज्जन सवाल पूछ रहे थे वे शायद
धार्मिक व्यक्ति थे. भगतसिंह ने एक धार्मिक व्यक्ति की तरह जवाब दिया कि मेरे
भाई तुम ठीक कहते हो. मैं सिख हूं. गुरु गोविंद सिंह ने कहा है कि अपने धर्म की
रक्षा करने के लिए अपने शरीर का अंग अंग कटवा दो. मैंने केश कटवा दिए. अब मौका
मिलेगा तो अपनी गरदन कटवा दूंगा. यह तार्किक विचारशीलता भगतसिंह की है. उस नए
हिन्दुस्तान में वे 1931 के पहले कह रहे थे जिसमें हिन्दुस्तान के गरीब आदमी,
इंकलाब और आर्थिक बराबरी के लिए, समाजवाद को पाने के लिए, देश और चरित्र को
बनाने के लिए, दुनिया में हिन्दुस्तान का झंडा बुलंद करने के लिए धर्म जैसी चीज
की हमको जरूरत नहीं होनी चाहिए.
आज हम उसी में फंसे हुए हैं. क्या सबूत है कि अयोध्या में राम हुए थे? क्या
सबूत है कि मंदिर बन जाने पर रामचंद्र जी वहां आकर विराजेंगे. क्या जरूरत है
किसी मस्जिद को तोड़ दिया जाए. क्या जरूरत है कि देश के छोटे छोटे मंदिरों को
तोड़ दिया जाए. क्या जरूरत है कि होली दीवाली के त्यौहार पर और कोई बम फेंक दे.
इन सारे सवालों का जवाब हम 2009 में ढूंढ़ नहीं पा रहे हैं.
भगतसिंह ने शहादत दे दी, फकत इतना कहना भगतसिंह के कद को छोटा करना है. जितनी
उम्र में भगतसिंह कुर्बान हो गए, इससे कम उम्र में मदनलाल धींगरा और शायद करतार
सिंह सराभा चले गए थे. भगतसिंह ने तो स्वयं मृत्यु का वरण किया. यदि वे पंजाब
की असेंबली में बम नहीं फेंकते तो क्या होता. कांग्रेस के इतिहास को भगतसिंह का
ऋणी होना पड़ेगा. लाला लाजपत राय, बिपिनचंद्र पाल और बालगंगाधर तिलक ने कांग्रेस
की अगुआई की थी. भगतसिंह लाला लाजपत राय के समर्थक और अनुयायी शुरू में थे.
उनका परिवार आर्य समाजी था. भूगोल और इतिहास से काटकर भगतसिंह के कद को एक
बियाबान में नहीं देखा जा सकता. जब लाला लाजपत राय की जलियान वाला बाग की घटना
के दौरान लाठियों से कुचले जाने की वजह से मृत्यु हो गई तो भगतसिंह ने केवल उस
बात का बदला लेने के लिए एक सांकेतिक हिंसा की और सांडर्स की हत्या हुई.
भगतसिंह चाहते तो और जी सकते थे. यहां वहां आजादी की अलख जगा सकते थे. बहुत से
क्रांतिकारी भगतसिंह के साथी जिए ही. लेकिन भगतसिंह ने सोचा कि यही वक्त है जब
इतिहास की सलवटों पर शहादत की इस्तरी चलाई जा सकती है. जिसमें वक्त के तेवर
पढ़ने का माधा हो, ताकत हो वही इतिहास पुरुष होता है.
भगतसिंह ने गांधी के समर्थन में भी लिखा है. उनके रास्ते
निस्संदेह अलग अलग थे. उनकी समझ अलग अलग थी. जब गांधीजी केन्द्र में थे. कांग्रेस
के अंदर एक बार भूचाल आया. |
भगतसिंह ने सारी दुनिया का ध्यान अंग्रेज हुक्मरानों के अन्याय की ओर खींचा और
जानबूझकर असेंबली बम कांड रचा. भगतसिंह इतिहास की समझ के एक बहुत बड़े नियंता थे. हम
उस भगतसिंह की बात ज्यादा क्यों नहीं करते? भगतसिंह का एक बहुत प्यारा चित्र है
जिसमें वे चारपाई पर बैठे हुए हैं. उस चेहरे में हिन्दुस्तान नजर आता है. ऐसा लगता
है कि हिन्दुस्तान बैठा हुआ है.
भगतसिंह पर जितनी शोधपरक किताबें लिखी जानी चाहिए थी, उतनी अच्छी किताबें अब भी
नहीं लिखी गई हैं. कुछ लोग भगतसिंह के जन्मदिन और शहादत के पर्व को हाल तक मनाते
थे. अब उनके हाथ में साम्प्रदायिकता के दूसरे झंडे आ गए हैं. उनको भगतसिंह काम का
नजर नहीं आता. किसी भी राजनीतिक पार्टी के घोषणा पत्र को पढ़िए. उनके भी जो समाजवाद
का डंका पीट रहे हैं. तो लगेगा कि सब ढकोसला है. हममें से कोई काबिल नहीं है जो
भगतसिंह का वंशज कहलाने का अधिकारी हो. भगतसिंह की याद करने का अधिकारी हो. हम उस
रास्ते को भूल चुके हैं.
अमेरिका के साम्राज्यवाद के सामने हम गुलामी कर रहे हैं. हम पश्चिम के सामने बिक
रहे हैं. बिछ रहे हैं. इसके बाद भी हम कहते हैं हिन्दुस्तान को बड़ा देश बनाएंगे.
गांधी और भगतसिंह में एक गहरी राजनीतिक समझ थी. भगतसिंह ने गांधी के समर्थन में भी
लिखा है. उनके रास्ते निस्संदेह अलग अलग थे. उनकी समझ अलग अलग थी. जब गांधीजी
केन्द्र में थे. कांग्रेस के अंदर एक बार भूचाल आया. गांधीजी के भगतसिंह सम्बन्धी
विचार को नकारने की स्थिति आई. उस समय 1500 में लगभग आधे वोट भगतसिंह के समर्थन में
आए. भगतसिंह को समर्थन देना या नहीं देना इस पर कांग्रेस विभाजित हो गई. इसी वजह से
युवा जवाहरलाल नेहरू को 1930 में रावी कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया. कांग्रेस के
जिस दूसरे नौजवान नेता ने भगतसिंह का वकील बनकर मुकदमा लड़ने की पेशकश की और गांधी
का विरोध किया, वह सुभाष बोस 1938 में हरिपुरा और फिर 1939 में त्रिपुरी की
कांग्रेस में गांधी के उम्मीदवार को हराकर कांग्रेस का अध्यक्ष बना. इन सबमें
भगतसिंह का पुण्य, याद और कशिश है. नौजवानों को आगे करने की जो जुगत भगतसिंह ने
बनाई थी, जो राह बताई थी, उस रास्ते पर भारत का इतिहास नहीं चला. मैं नहीं समझता कि
नौजवान केवल ताली बजाने के लायक हैं. मैं नहीं समझता कि हिन्दुस्तान के नौजवानों को
राजनीति से अलग रखना चाहिए. मैं नहीं समझता कि हिन्दुस्तान के 18 वर्ष के नौजवान जो
वोट देने का अधिकार रखते हैं उनको राजनीति की समझ नहीं है. जब अस्सी नब्बे वर्ष के
लोग सत्ता की कुर्सी का मोह नहीं छोड़ सकते तो नौजवान को हिन्दुस्तान की राजनीति से
अलग करना मुनासिब नहीं है. लेकिन राजनीति का मतलब कुर्सी नहीं है.
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भगतसिंह ने कहा था जब तक हिन्दुस्तान के नौजवान हिन्दुस्तान के किसान के पास नहीं
जाएंगे, गांव नहीं जाएंगे. उनके साथ पसीना बहाकर काम नहीं करेंगे तब तक हिन्दुस्तान
की आजादी का कोई मुकम्मिल अर्थ नहीं होगा. मैं हताश तो नहीं हूं लेकिन निराश लोगों
में से हूं.
मैं मानता हूं कि हिन्दुस्तान को पूरी आजादी नहीं मिली है. जब तक ये अंगरेजों के
बनाए काले कानून हमारे सर पर हैं, संविधान की आड़ में सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट से
लेकर हमारे मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री फतवे जारी करते हैं कि संविधान की रक्षा
होनी है. किस संविधान की रक्षा होनी चाहिए? संविधान में अमेरिका, आस्ट्रेलिया,
केनेडा, स्विट्जरलैंड, जर्मनी, जापान और कई और देशों की अनुगूंजें शामिल हैं. इसमें
याज्ञवल्क्य, मैत्रेयी, चार्वाक, कौटिल्य और मनु के अनुकूल विचारों के अंश नहीं
हैं. गांधी नहीं हैं. भगतसिंह नहीं हैं. लोहिया नहीं हैं. इसमें केवल भारत नहीं है.
हम एक अंतर्राष्ट्रीय साजिश का शिकार हैं. हमको यही बताया जाता है कि डॉ
अंबेडकर ने हिन्दुस्तान के संविधान की रचना की. भारत के स्वतंत्रता संग्राम
सैनिकों ने हिन्दुस्तान के संविधान की रचना की. संविधान की पोथी को बनाने वाली
असेम्बली का इतिहास पढ़ें. सेवानिवृत्त आईसीएस अधिकारी, दीवान साहब और राय
बहादुर और कई पश्चिमाभिमुख बुद्धिजीवियों ने मूल पाठ बनाया. देशभक्तों ने उस पर
बहस की. उस पर दस्तखत करके उसको पेश कर दिया. संविधान की पोथी का अपमान नहीं
होना चाहिए लेकिन जब हम रामायण, गीता, कुरान शरीफ, बाइबिल और गुरु ग्रंथ साहब
पर बहस कर सकते हैं कि इनके सच्चे अर्थ क्या होने चाहिए. तो हमको हिन्दुस्तान
की उस पोथी की जिसकी वजह से सारा देश चल रहा है, आयतों को पढ़ने, समझने और उसके
मर्म को बहस के केन्द्र में डालने का भी अधिकार मिलना चाहिए. यही भगतसिंह का
रास्ता है.
भगतसिंह ने कभी नहीं कहा कि किसी की बात को तर्क के बिना मानो. जब मैं भगतसिंह
से तर्क करता हूं. बहस करता हूं. तब मैं पाता हूं कि भगतसिंह के तर्क में
भावुकता है और भगतसिंह की भावना में तर्क है. भगतसिंह हिन्दुस्तान का पहला नेता
था, पूरी क्रांतिकारी सेना में भगतसिंह अकेला था, जिसने दिल्ली के सम्मेलन में
कहा कि हमें सामूहिक नेतृत्व के जरिए पार्टी को चलाने का शऊर सीखना चाहिए. वह
तमीज सीखनी चाहिए ताकि हममें से कोई अगर चला जाए तो पार्टी मत बिखरे. भगतसिंह
ने सबसे पहले देश में कहा था कि व्यक्ति से पार्टी बड़ी होती है. पार्टी से
सिद्धांत बड़ा होता है. हम यह सब भूल गए. हमको केवल तमंचे वाला भगतसिंह याद है.
अगर कोई थानेदार अत्याचार करता है तो हमको लगता है भगतसिंह की तरह हम उसे गोली
मार दें. हम उसको अजय देवगन समझते हैं या धर्मेन्द्र का बेटा.
भगतसिंह किताबों में कैद है. उसको किताबों से बाहर लाएं. भगतसिंह विचारों के
तहखाने में कैद है. उसको बहस के केन्द्र में लाएं. इसका रास्ता भी भगतसिंह ने
ही बताया था. भगतसिंह ने कहा था कि ये बड़े बड़े अखबार तो बिके हुए हैं. इनके
चक्कर में क्यों पड़ते हो. भगतसिंह और उनके साथी छोटे छोटे ट्रैक्ट 16 और 24
पृष्ठों की पत्रिकाएं छाप कर आपस में बांटते थे. हम यही कर लें तो इतनी ही
भगतसिंह की सेवा बहुत है. विचारों की सान पर अगर कोई चीज चढ़ेगी वही तलवार
बनेगी. यह भगतसिंह ने हमको सिखाया था. कुछ बुनियादी बातें ऐसी हैं जिनकी तरफ
हमको ध्यान देना होगा.
हमारे देश में से तार्किकता, बहस, लोकतांत्रिक आजादी, जनप्रतिरोध, सरकारों के
खिलाफ अराजक होकर खड़े हो जाने का अधिकार छिन रहा है. हमारे देश में मूर्ख राजा
हैं. वे सत्ता पर लगातार बैठ रहे हैं. जिन्हें ठीक से हस्ताक्षर नहीं करना आता
वो देश के राजनीतिक चेक पर दस्तखत कर रहे हैं. हमारे यहां एक आई एम सॉरी सर्विस
आ गई है. आईएएस क़ी नौकरशाही. उसमें अब भ्रष्ट अधिकारी इतने ज्यादा हैं कि अच्छे
अधिकारी ढूंढ़ना मुश्किल है. हमारे देश में निकम्मे साधुओं की जमात है. वे
निकम्मे हैं लेकिन मलाई खाते हैं. इस देश के मेहनतकश मजदूर के लिए अगर कुछ
रुपयों के बढ़ने की बात होती है, सब उनसे लड़ने बैठ जाते हैं. हमारे देश में
असंगठित मजदूरों का बहुत बड़ा दायरा है. हम उनको संगठित करने की कोशिश नहीं
करते. हमारे देश में पहले से ही सुरक्षित लोगों के अधिकारों की सुरक्षा के
कानून बने हुए हैं. लेकिन भारत की संसद ने आज तक नहीं सोचा कि भारत के किसानों
के भी अधिकार होने चाहिए. भारतीय किसान अधिनियम जैसा कोई अधिनियम नहीं है.
किसान की फसल का कितना पैसा उसको मिले वह कुछ भी तय नहीं है. एक किसान अगर सौ
रुपये के बराबर का उत्पाद करता है तो बाजार में उपभोक्ता को वह वस्तु हजार
रुपये में मिलती है. आठ सौ नौ सौ रुपये बिचवाली, बिकवाली और दलाली में खाए जाते
हैं. उस पर भी सरकार का संरक्षण होता है और सरकार खुद दलाली भी करती है. ऐसे
किसानों की रक्षा के लिए भगतसिंह खड़े हुए थे.
भगतसिंह ने कभी नहीं कहा कि देश के उद्योगपतियो एक हो जाओ. भगतसिंह ने कभी नहीं
कहा कि अपनी बीवी के जनमदिन पर हवाई जहाज तोहफे में भेंट करो और उसको देश का
गौरव बताओ. भगतसिंह ने कभी नहीं कहा कि वकीलो एक हो जाओ क्योंकि वकील होने के
नाते मुझे पता है कि वकीलों को एक रखना और मेंढकों को तराजू पर रखकर तौलना
बराबर की बात है. भगतसिंह ने कभी नहीं कहा कि देश के डॉक्टरों को एक करो. उनको
मालूम था कि अधिकतर डॉक्टर केवल मरीज के जिस्म और उसके प्राणों से खेलते हैं.
उनका सारा ध्येय इस बात का होता है कि उनको फीस ज्यादा से ज्यादा कैसे मिले.
अपवाद जरूर हैं. लेकिन अपवाद नियम को ही सिद्ध करते हैं. इसलिए भगतसिंह ने कहा
था दुनिया के मजदूरो एक हो. इसलिए भगतसिंह ने कहा था कि किसान मजदूर और नौजवान
की एकता होनी चाहिए. भगतसिंह पर राष्ट्रवाद का नशा छाया हुआ था. लेकिन उनका
रास्ता मार्क्स के रास्ते से निकल कर आता था. एक अजीब तरह का राजनीतिक प्रयोग
भारत की राजनीति में होने वाला था. लेकिन भगतसिंह काल कवलित हो गए. असमय चले
गए.
भगतसिंह संभावनाओं के जननायक थे. वे हमारे अधिकारिक, औपचारिक नेता बन नहीं पाए.
इसलिए सब लोग भगतसिंह से डरते हैं-अंगरेज और भारतीय हुक्मरान दोनों. उनके
विचारों को क्रियान्वित करने में सरकारी कानूनों की घिग्गी बंध जाती है.
संविधान पोषित राज्य व्यवस्थाओं में यदि कानून ही अजन्मे रहेंगे तो लोकतंत्र की
प्रतिबद्धताओं का क्या होगा? भगतसिंह ने इतने अनछुए सवालों का र्स्पश किया है
कि उन पर अब भी शोध होना बाकी है. भगतसिंह के विचार केवल प्रशंसा के योग्य नहीं
हैं, उन पर क्रियान्वयन कैसे हो-इसके लिए बौद्धिक और जन आन्दोलनों की जरूरत है.
30.10.2009,
00.12 (GMT+05:30) पर
प्रकाशित
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| इस समाचार / लेख पर पाठकों की प्रतिक्रियाएँ | |
| JAIDEEP SINGH (jaideepforever1988@gmail.com) BARABANKI | | | U R GREAT MR. KANAK, THANKS FOR TELLING US ABOUT BHAGHAT SINGH. BHAGHAT SINGH IS GREAT.... | | | | |
| sandeep aggarwal () new delhi | | | कनक जी ये भगत सिंह के जीवन का अछूता पहलु है. हम लोग आज भी इस भगत सिंह को एक क्रन्तिकारी के रूप में याद करते हैं पर ये भूल जाते हैं कि उनके जैसा विचारक, समाज का हित चिन्तक ही था जिसने गाँधी जी के विचारों से ऊपर उठकर पूर्ण स्वराज्य का नारा दिया. देश के युवा आज भी उन्हें अपना आदर्श मानते हैं. | | | | |
| shyam yadav (sfigwalior@gmail.com) Gwalior | | | दुनिया के मजदूरों एक हो, आज भी इस नारे की आवश्यकता है. | | | | |
| Anand Matanhail (anand.punia@yahoo.com) Jhajjar(Haryana) | | | Bhagt Singh were great will be and are.Those are also great who thought about the heroes of nation deeply and heartily. | | | | |
| alok (writeralok@gmail.com) Mumbai | | | भगत सिंह के बारे में अब तक लिखा हुआ यह सबसे बेहतरीन लेख था. आपको हार्दिक बधाई. | | | | |
| RAJ YADAV (jarwalraj.1987@gmail.com) BEHROR | | | कनक जी के आभारी हैं, जो उन्होंने देश की आन और शान भगत सिंह जी के बारे में बताया. मुझे बड़ा दुःख हो रहा कि कॉमनवेल्थ गेम के चक्कर में सरकार ने इस महान शक्ति को भुला दिया. | | | | |
| Raj Aaryan (raj.aryan01@yahoo.com) Bhagalpur, Bihar | | | I love shsheed e aajam more than my life. But other big names of that time who changed the equation badly of modern India. & now this is time to change. Inqulab alive forever !! | | | | |
| Dr Sanjay Tyagi (drsanjaytyagi@mail.com) Bijnor | | | कनक जी आपका बहुत बहुत धन्यवाद युवा पीढी को नींद से जगाने के लिये आप जैसे लेखक की आवश्यक्ता है | | | | |
| avinash kumar deepak (avideep0326@gmail.com) jamshedpur | | | देश में फिर से क्रांति होगी. इंतजार करें. | | | | |
| डॉ.चन्द्रकुमार जैन (chandrakumarjain@gmail.com) राजनांदगाँव | | | आपने शहीदे आज़म भगतसिंह के जीवन के कई अनछुए पहलुओं को जानने व समझने की ज़रुरत पर तर्क सिद्ध विवेचन किया है. दरअसल इतिहास के पाठों की एकरस आवृत्ति की आदी हो चुकी पीढ़ी को ऐसे ही मार्गदर्शन की दरकार है, पर सोचने पर सोचने का दौर न जाने क्यों सिमटता-सा जा रहा है... बहरहाल आपने भगतसिंह के बरअक्स दीगर बहुत से सवाल उठाये हैं...जिनमें किसी इतिहास सिद्ध व्यक्तित्व के व्यापक मूल्यांकन के सार्थक संकेत-सूत्र भी समाहित हैं. | | | | |
| Vivek (pansare.v@gmail.com) | | | इंकलाब जिंदाबाद था, है और रहेगा. | | | | |
| VIKESH (bikeshsingh555@gmail.com) VARANASI | | | आपने जो लिखा है वो काबिले तारीफ है सब गांधी जी को याद करते है लेकिन जो देश की युवाओ की आवाज़ बने उनकी जयन्ती तक किसी को याद नहीं. | | | | |
| अनुराग (anuraag.arora@gmail.com) खुर्जा | | | बहुत बहुत धन्वाद आपका कनक जी आपके द्वारा दी गयी जानकारी जन जन को पहुँचनी चाहिये. मैं अपने सभी मित्रों और संबंधियों को इस जानकारी से अवगत कराउँगा.
| | | | |
| K.S BRAR (kulvinderbrar92@yahoo.com) PILIBANGAN | | | कनक जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया, कि आपने हमें भगत सिंह जी के इस पहलू के बारे में बताया. आज के युवाओं को इसकी बहुत ज़रूरत है. | | | | |
| nishant raghav (nragahv@gamail.com) noida | | | प्रयास अच्छा है, बशर्ते एक बार फिर से अलख जगाई जाए, जिससे नवविचारो का आदान-प्रदान हो और राष्ट्र की बेहतरी की बात हो, जात-पात, क्षेत्र से उठकर सभी सबसे पहले राष्ट्र की बात करें. कुछ ऐसा करे यही शहीद-ए-आज़म को श्रद्धांजलि होगी.
उन्होंने देवनागरी लिपि की बात भी देश को जोड़ने के लिए की थी. उनका अभिप्राय सबको एक मंच पर लाना और सभी के विचारो को अपनी राष्ट्रभाषा में सब तक पहुचना था,लेकिन अफ़सोस है की अब भी कुछ जाहिल भाषा और क्षेत्र में फंसे है और उन्हें अपना हीरो बताते है. खैर कनक जी आप बधाई के पात्र है.. | | | | |
| J.M.Rai (jmrai.mech@gmail.com) Mahudi,Gandhinagar | | | I feel very proud of Sahide Azam Sardar Bhagat Singh,Who had daring to throw bomb in assembly central hall.I have visited that place in parliament & feel proud.I will again give our sincere Namaste to our beloved freedom fighter.I will remember always & feel all peoples of country will remember him with great proud. | | | | |
| mahendra (mahendra.jangir85@yahoo.in) jaipur | | | भगत सिंह आज होते तो देश सफल होता. जितना भ्रष्टाचार है, वह नहीं होता. | | | | |
| hemant (haaher@gmail.com) nashik | | | इंकलाब जिंदाबाद था, है और रहेगा. | | | | |
| raman sharma (raman_sharma31@rediffmail.com) Noida | | | Thanks, to see more about bhagat singh ji. He is my hero. | | | | |
| nahar rana (naharran@gmail.com) ambala | | | इंकलाब जिंदाबाद "जय भगत" काश आप आज भी होते. | | | | |
| Sandeep (rathi4100@gmail.com) Rohtak | | | Thank you आपके इन विचारों के लिए. | | | | |
| Digrajsinh (digrajsinh@yahoo.com) Gujarat(India) | | | भगतसिंह के विचार आज भी कई युवाओ के दिल में दबे है ज़रूरत है उन्हें बहार निकलने की. आओ सब मिल के भगतसिंह के विचार दुनिया भर में फैलाये, मैं मानता हूँ की विचारो को फ़ैलाने के मीडिया सबसे अहम् भूमिका अदा करता है, आओ कुछ न कुछ भगतसिंह के बारे में लिखते रहे. "भगतसिंह अमर रहो" | | | | |
| Mona Khare (kharemona@rediffmail.com) Harda, M.P. India | | | आपके लेख के लिये हार्दिक शुभकामनाएं. आपने हमें भगत सिंह जी के नये पहलू से अवगत कराया. बहुत-बहुत धन्यवाद. हम भारतीयों की आंखें खोलना बहुत जरुरी है. भविष्य में भी आपसे इसी तरह से भारतीयता से ओतप्रोत लेखों की उम्मीद रहेगी. | | | | |
| Raktim asansol | | | But why should all indian accept debnagari script.When we bengali for many centuries already have our bengali script.the south indian people have there very original dravidian script.Then why accept debanagari.This would be nothing but hindi colonialism. | | | | |
| Dr Suresh Kumar Delhi | | | This the good beginning to share the sacrifices of our freedom fighters with young generations. The youth need to know the real meaning of independence and pay respect to our martyrs accordingly. | | | | |
| Dr. JaiGopal Sharma Delhi | | | बेबाक लेख....शहीद-ए-आज़म को शत शत नमन...मै भगत सिंह जी को अपना आदर्श मानता हूँ काफ़ी अमर शहीद का साहित्य भी पढ़ा है पर लेख आँखें खोलने वाला है..लेखक को कोटिश बधाई... जय हिंद .. | | | | |
| Durgesh Thakur (shatabditimes@rediffmail.com) Kawardha(Chhattisgarh) | | | कनक जी, भगतसिंह पर आपका लेख पढ़ कर अच्छा लगा। बेहतर लेख है एक नए तथ्य की ओर आपने ध्यान दिलाया है। बहुत-बहुत बधाई. | | | | |
| pran sharma (sharmapran4@gmail.com) coventry,uk | | | माना कि सरदार भगत सिंह ऐसी क्रांति कर गए जिसको भुलाया नहीं जा सकता लेकिन असेंबली में बम धमाका करने के बाद अपने आप को पकड़वाना उनकी रिपब्लिकन पार्टी के लिए घातक साबित हुआ. भगत सिंह का अपने आप को पकड़वाना क्या गांधीवादी फिलॉसफी का प्रभाव नहीं था? क्या लेखक महोदय इस पर प्रकाश डालेंगे? | | | | |
| अशोक कुमार पाण्डेय (ashokk34@gmail.com) ग्वालियर | | | भगत सिंह सच्चे क्रांतिकारी थे. इतना सब उन्होंने दिमाग बडा करने नहीं दुनिया बदलने के लिये लिखा था.
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| Arvind pant (pantarvind71@yahoo.com) joshimath [chamoli] uttrakhand | | | कनक जी, शहीद-ए-आज़म भगत सिंह भारतीय इतिहास ही नहीं संपूर्ण विश्व के क्रांतिकारी दस्तावेज़ हैं. उन्हें किसी सरकारी और गैर-सरकारी प्रायोजित पुरस्कार और नाम की आवश्यकता नहीं है. वे संपूर्ण संवेदन दिलों में आज भी धड़कते हैं. आपका लेख उसकी प्रतिध्वनि है. | | | | |
| नागेन्द्र शर्मा (nsarma40@gmail.com) गोलाघाट 785621 असम | | | कनकजी, आपने भगत सिंह के जीवन के जिस पहलू पर प्रकाश डाला है वह नितांत मौलिक है। इस ओर किसी का भी ध्यान नही गया। इसी तरह हर बार नया कुछ देते रहें यही कामना है। | | | | |
| Rajesh C. Bali (bilsbali@yahoo.com) Jalandhar | | | Sir, I hardly read Hindi articles but this one was marvelous. It was full of Bhagat Singh's that thinking which very few people might be aware of.
Thank you Tiwari ji for enlightening me about this great martyr and many others like me who know Bhagat Singh ji by books only.
Regards Rajesh Bali | | | | |
| radha (radhavin2006@gmail.com) r.k.puram new delhi | | | बहुत ही अच्छा लेख है. लेखक को बहुत-बहुत बधाई. | | | | |
| जय सिंह (singhjaisingh@gmail.com) दिल्ली | | | कनक जी, भगतसिंह पर आपका लेख पढ़ कर अच्छा लगा। भगतसिंह के विचारों को नई परिस्थितियों में समझकर उसपर अमल करने का एक प्रयास हम नौजवान भारत सभा नामके संगठन के माध्यम से कर रहे हैं। शहीद भगतसिहं और उनके साथियों के वास्तविक विचारों और सपनों को जन-जन तक पहुंचाने के प्रयास में कई पुस्तकें और पर्चे प्रकाशित किए हैं और झोलों में रखकर गॉंवों और शहरों के लोगों के बीच उनका वितरण किया है। इसके अलावा नौजवान भारत सभी सृजनात्मक कामों में भी संलग्न रहती है और मजदूरों, नौजवानों और आम नागरिकों के आंदोलनों में शिरकत भी करती है। नीचे मैं कुछ लिंक दे रहा हूं जहां आप हमारे विचार, हमारे द्वारा प्रकाशित पुस्तकें और हमारे कामों, योजनाओं के बारे में जान सकते हैं। मुझे पूरी उम्मीद है कि हम किसी न किसी काम में साझीदार हो सकते हैं। कृपया एक बार हमारा विचार जरूर पढ़ें और अपनी प्रतिक्रिया से अवगत कराएं। शहीद भगतसिंह और उनके साथियों के विचारों और सपनों के प्रचार-प्रचार के लिए नौजवानों द्वारा चलाई जाने वाली एक देशव्यापी यात्रा : http://smritisankalp.blogspot.com. भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज, भगतसिंह की जेल नोटबुक सहित अन्य क्रान्तिकारी साहित्य के लिए : http://janchetnaa.blogspot.com/ देखें। आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार रहेगा। | | | | |
| laxminarainsharma (laxminarain.sharma@yahoo.com) kotputli (jaipur-Rajasthan) | | | लेख वास्तविक है. बेबाक विचार हैं और भारतीयता की झलक साफ दिखाई गई है. आंखें खोलने के लिए ऑपरेशन की आवश्यकता है. लेख के लिए हार्दिक शुभकामनाएं. आशा है आप भविष्य में भी ऐसे ही लेख लिखेंगे. रविवार को भी हार्दिक धन्यवाद. | | | | |
| हरियश राय (hariyashrai@gmail.com) अइहमदाबद | | | बेहतर लेख है एक नए तथ्य की ओर आपने ध्यान दिलाया. हरियश राय | | | | |
| mihirgoswami (mgmihirgoswami@gmail.com) bilaspur c.g | | | आपने स्वयं लिखा है कि आप निराश लोगों में से एक हैं. आपने भगतसिंह जी से लेकर आज तक अपने सारे विचार लिखे. जब कभी आशा औऱ उम्मीद की किरण आई तब आप भारत की जनसंख्या नियंत्रण और रोजगारन्मुखी शिक्षा के विषय में अपने विचार जो कार्यान्वित हो सके लिखेंगे. | | | | |
| mini aligarh | | | कनक जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया, कि आपने हमें भगत सिंह जी के इस पहलू के बारे में बताया. आज के युवाओं को इसकी बहुत ज़रूरत है. | | | | |
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