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प्रेम गली अति सांकरी
बहस
प्रेम गली अति सांकरी
कृष्ण बिहारी
प्रेम. यह शब्द जितना सम्मोहक है उतना ही भ्रामक भी. एक विचित्र-सी मनोदशा का नाम
प्रेम है. यह कब होगा, किससे होगा और जीवन में कितनी बार होगा, इसका कोई अता-पता
किसी को नहीं होता. जब-जब मुझसे किसी ने इसके बारे में सवाल किया है या मैंने खुद
से पूछा है कि आख़िर यह मामला है क्या, तो मुझे केवल एक उत्तर ही देते बना है कि
प्रेम वासना से उपजी मनोस्थिति है.
मैं इसे कभी स्वीकार नहीं कर सकता कि प्रेम में वासना का कोई स्थान नहीं है.
मैं न स्वयं से झूठ बोल सकता हूं और न दूसरों से. प्रेम में आदर्श और अशरीरी
जैसी स्थिति की जो लोग वकालत करते हैं, वह मेरी समझ में केवल लाचारी है. हमारे
देश में चूंकि प्रेम को लेकर समाज स्त्री- पुरूष की सोच में बंटा हुआ है और
स्त्री आज भी यह कह पाने की स्वतंत्र स्थिति में नहीं है कि उसने अपने प्रेमी
के साथ जिस्म शेयर किया है. इसलिए वह ज़ोर देकर झूठ बोलती है कि प्रेम में शरीर
की मांग बेमानी है. वह डरती है कि यदि उसने शरीर के सच को स्वीकार किया तो उसका
भविष्य नष्ट हो जाएगा.
मतलब यह कि यदि वह अपने पति से कहे कि उसने किसी और से बाखुशी संबंध बनाए हैं
तो पति खो देगी और प्रेमी से कहे कि उससे पहले वह किसी और से जुड़ी थी और उस
जुड़ाव में जिस्म शामिल था तो प्रेमी उससे दूर चला जाएगा. या हो सकता है कि नया
प्रेमी भी उसके शरीर का उपभोग करने के बाद उसे कैजुअल समझे और ताना देते हुए
किसी नई प्रेमिका की तलाश में किसी और दिशा में निकल जाए. इसलिए औरत हमेशा
स्वयं को अनछुई या किसी अन्य से न छुई होने का भरम फैलाए रहती है.
असल में इस झूठ को वह इस तरह जीती है कि उसे यह सच लगता है कि किसी के साथ
हमबिस्तर हो चुकने के बाद भी वह पाकीजा है. मैं नब्बे-पंचानबे प्रतिशत
स्त्रियों की बात कर रहा हूं न कि उन पांच दस प्रतिशत की जिन्होंने समाज को
ठेंगा दिखा दिया है. ये ठेंगा दिखाने वाली महिलाएं आर्थिक रूप से या तो
स्वतंत्र हैं या फिर वेश्याएं हैं. वेश्या सबसे अधिक स्वतंत्र होती है.
मैं यहां यह भी कहना चाहता हूं कि आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर महिला पुरूष बदलने
के मामले में वेश्याओं से भी आगे है और ज्यादा आजाद है. नब्बे-पंचानबे प्रतिशत
स्त्रियां ज़िंदगी भर सती-सावित्री होने का ढोंग जीती हैं. ये करवा चौथी
महिलाएं चलनी से चांद देखने के बाद ही अन्न-जल ग्रहण करती हैं.
मैं यहीं यह बात भी स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि भारतीय मर्द का मानस तो और भी
बदतर है. वह इतना भी खुला नहीं है कि स्त्री की वास्तविकता को खुले मन से
स्वीकार कर सके. वह तो और भी दकियानूस है. उसे नकली सती-सावित्री के साथ जीवन
गुज़ारना संतुष्टि देता है. एक आज़ाद खयाल औरत के साथ प्रेम करना तो उसे जंचता
है. कम से कम कपड़ों में उसे साथ लेकर घूमना अच्छा लगता है. उसका संसर्ग उसे
रुचता है. लेकिन उसी लालित्य को वह अपनी पत्नी में नहीं बरदाश्त कर पाता. यह
दोगली मानसिकता है. मैं जो परिस्थितिजन्य हालातों में अनेक महिलाओं के साथ अनेक
स्तरों पर जीता आया हूं. अपनी पत्नी को वह आज़ादी देने के पहले हजार बार
सोचूंगा और अन्तत: इस निष्कर्ष पर पहुंचूंगा कि बीवी को बीवी होना चाहिए. क्यों
औरत केवल बीवी ही क्यों हो, यहां मैंने 'मैं’ का उल्लेख किया है. कारण साफ है
कि प्रश्न करने वाले यह नहीं सोचेंगे कि ये विचार किसी रचनाकार के हैं. वे सीधे
पूछेंगे कि तुम अपने बारे में बताओ कि क्या अपनी बीवी को दूसरे के बिस्तर पर
जाने दोगे. मैं उनसे पूछता हूं कि क्या उनकी बीवी उनको बताकर किसी अन्य के
बिस्तर पर गई है. यदि वे इसे जानते भी हैं तो क्या इस सच को दुनिया के सामने
स्वीकार करेंगे.
मैं जानता हूं कि मैंने एक जटिल विषय को हाथ में लिया है. मैं प्रेम के इस पक्ष
की अनदेखी नहीं कर सकता कि प्रेम पूर्ण समर्पण चाहता है. प्रेम में आना पाई का
हिसाब नहीं होता कि प्रेम हाट में बिकने वाली वस्तु नहीं है. सबकुछ लुटा देने
वाला ही प्यार कर सकता है. सीस उतारे भुंई धरे तब पैठे घर मांहि...वाली बात है.
प्रेम का रास्ता तो तरवारि की धार पे धावनो है. प्रेम बनियागिरी नहीं है. वहां
भी लिखा होता है- उधार प्रेम की कैंची है. प्रेम में उधार नहीं चलता. सब नकद
होता है और लेन -देन में लेने से अधिक देने का मन होता है. सच तो यह है कि
प्रेम में लेना कुछ भी नहीं होता. देना और केवल देना होता है.
प्रेम का सफर जब शुरू होता है तो हमसफर के अलावा सारी दुनिया बेमायने हो जाती
है. किसी दूसरे का होना तो छोड़िए, अपना ही अता-पता नहीं होता. पल प्रतिपल
प्रिय की मूरत आंखों में बसी रहती है. प्रेम भूख-प्यास भुला देता है. सच तो यह
है कि प्रेम रुला देता है. यह इनसान को तिल- तिल घुला देता है. लेकिन यह सब
होता है प्रेम के जन्म से और उसके नष्ट होने के बीच. क्षरण की प्रक्रिया के
साथ. नष्ट होने से पहले प्रेम इनसान को नष्ट कर चुका होता है और यह सारी फजीहत
देह की चाह के साथ जुड़ी है.
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वैसे तो हर रिश्ता केयरिंग होता है. लेकिन प्रेम का रिश्ता अतिरिक्त केयरिंग
होता है. दोनों को लगता है कि प्रिय की जितनी भाल प्रेमी कर सकता है या प्रिया
कर सकती है, उतना कोई नहीं कर सकता. लेकिन यह कितनी क्रूर सचाई है कि प्रेम का
क्षरण शुरू होते ही प्रिय की किसी भी स्थिति के प्रति कोई सजगता नहीं बचती. कोई
ध्यान नहीं होता. उसकी उपेक्षा होने लगती है और तकलीफदेह तो यह है कि प्रिय की
असहनीय पीड़ा भी किसी को नहीं दिखती. इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि कोई देखकर
भी नहीं देखता. जहां कभी प्रिय को घास के तिनके या फूल से भी छू जाने की स्थिति
दूसरे को दुखद चोट का एहसास कराती थी, वहीं विपरीत अवस्था में कुछ भी दुखद नहीं
लगता बल्कि दोनों एक दूसरे को घातक चोट पहुंचाने से भी गुरेज नहीं करते. उनसे
कहां तो एक-दूसरे का दुख देखा नहीं जाता था और कहां वे एक दूसरे को दुख की
चरमसीमा में फंसा हुआ पाकर सुख पाते हैं. मैं इसे हिंसा का नाम देता हूं.
प्रेम ने रक्तपात कराया है. प्रेम ने कभी रक्तपात रूकवाया नहीं है. प्रेम भयंकर
रूप से हिंसक है. प्रिय के साथ भी और अपने परिवेश के साथ भी. प्रेम नदी में आई
अचानक बाढ़-सी बरबादी लाता है, उजाड़ देता है, सब कुछ बहा ले जाता है एक दुनिया
अपने साथ. यह मनुष्य को विवेकशून्य बनाता है. प्रेम और विवेक का कोई आपसी या
अन्योन्याश्रित संबंध नहीं है. कहते हैं, प्रेम अंधा होता है. अंधा होना क्या
बहुत अच्छी बात है. किसी आंखों वाले को अन्धा कहकर तो देखें कि वह कितना अंधा
है. ढ़ाई आखर प्रेम का किसी को पंडित नहीं बनाता. वह वाद-विवाद प्रतियोगिताओं
को जीतने के लिए उद्धरण के रूप में प्रयोग करने के लिए अच्छा है. जीवन में उसकी
स्थिति क्या है. यह चचा गालिब कह चुके हैं- इश्क ने हमको निकम्मां कर दिया
ग़ालिब, वरना आदमी हम भी थे काम के...
अब जब दो विपरीतलिंगी एक दूसरे के सामिप्य में रहेंगे तो
क्या बिना दैहिक हुए रहेंगे. यदि सामीप्य में भी बिना दैहक संपर्क के हैं तो
निश्चित रूप से उनके सामने लाचारी है कि वे मिलन का एकांत नहीं पा रहे. |
मैं साफ कर देना चाहता हूं कि मुझे अब तक ऐसा कोई जोड़ा नहीं मिला जिसे एक दूसरे से
वाहियात शिकायतें न हों. चाहे वे पति-पत्नी हों या फिर लिविंग टुगेदर की रिलेशनशिप
में रहते हों. ये वही लोग हैं, जो शुरूआत में त्यागमयी थे. धीरे-धीरे इन्होंने ही
अपने त्याग की पूरी कीमत वसूली है. एक-दूसरे को डंसते हुए इन्हें मजा आने लगा है. न
तो ये एक दूसरे को छोड़ेंगे न खुद चैन से रहेंगे. इन्हें बरबादी में रहना रुचता है.
ऐसे लोग ही परपीड़क कहलाते हैं जिनका सिद्धान्त है कि न खेलेंगे न खेलने देंगे, खेल
बिगाड़ देंगे. ये अपने उसी प्रिय का सबकुछ बिगाड़ देते हैं जिसका सबकुछ बनाने की
कसम खाते हुए उसकी ज़िंदगी में शामिल हुए थे. क्या यही वह प्यार है जिसकी बुनियाद
पर इन्होंने घर बसाया था.
यह सही है कि तय न हो पाया कि चुम्बन वासना या प्यार, मगर मेरी दृष्टि में सही यही
है कि बिना वासना के मर्द और औरत का चुम्बन अर्थहीन है. मैं जानता हूं कि
शुचितावादी मुझे मौत की सजा देने के अलावा और कुछ नहीं सोचेंगे लेकिन क्या मेरा
अनुभूत् सत्य ग़लत है, क्या यह बहुसंख्य का अनुभूत नहीं है. इसलिए मैं एक बात और
साफ कर देना चाहता हूं कि जब मैं स्त्री और प्यार के मामले में लिख रहा हूं तो केवल
मर्द और औरत की बात कर रहा हूं. मां बहन और बीवी को इस बहस से दूर रखना चाहता हूं
और यदि कोई इन तीन रिश्तों के अलावा कुछ भी नहीं सोच सकता तो उससे यही कह सकता हूं
कि तुम्हारे लिए सभी महिलाएं, मां और बहनें हैं. औरत तुम्हारे लिए बनी ही नहीं है.
तुम झूठ में जन्में हो और उसी झूठ को जीते हुए मरोगे.
औरत और मर्द में एक दूसरे के लिए आकर्षण जन्मजात् है, जो जिसको अच्छा लगता है उसके
सामीप्य को पाने का मन भी करता है. अब जब दो विपरीतलिंगी एक दूसरे के सामिप्य में
रहेंगे तो क्या बिना दैहिक हुए रहेंगे. यदि सामीप्य में भी बिना दैहक संपर्क के हैं
तो निश्चित रूप से उनके सामने लाचारी है कि वे मिलन का एकांत नहीं पा रहे. मेरा आशय
बेखटके एकांत का है. जहां किसी किस्म का कोई खतरा नहीं है. निष्कंटक मिलन ही बता
सकता है कि वासना कितनी प्रबल होती है और दैहिक प्रेम उसे कितना सघन बना देता है,
ऊं अस्थि चर्ममय देह मम.. फोर प्ले और आफ्टर प्ले स्मृति है उसके बीच सब कुछ
विस्मृति है और सचाई यह है कि नब्बे या पच्चानबे प्रतिशत दैहिक रिश्तों में न तो
फोर प्ले है न ऑफ्टर प्ले ऑफ्टर प्ले तो खैर है ही नहीं, करवट बदलकर सो जाना है.
कहने का मतलब है कि रोज की दाल-रोटी है सेक्स, प्रेम का कहीं अता पता नहीं यह सच एक
बड़ा सच है. मैं यदि देहधारी नहीं होता तो क्या कोई स्त्री मुझे प्रेम करती, यदि
कोई अपने वज़ूद के साथ मुझे न बांधता तो क्या मैं उसके बारे में सोचकर अपना समय
नष्ट करता. अशरीरी प्रेम को बहुत महत्व देने वालो, ऐसा कौन सा अशरीरी रिश्ता है जो
तुम्हारे साथ ज़िंदा है.
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मैं यह पंक्ति इस लेख में नहीं लिखना चाहता था लेकिन बाध्य होकर लिख रहा हूं कि तुम
मर्द औरत अपने बच्चों को क्यों प्यार करते हो क्या वे बिना देह के हैं. क्या दूसरे
के बच्चों को भी तुम उसी सांद्रता के साथ प्यार करते हो, कर सकोगे तो झूठ क्यों
बोलते हो अपना अपना ही होता है. अब यह अपना वह भी है जो आपके साथ अपना है. वही आपको
चाहता है और चाहत का केवल एक और एक अर्थ है-दैहिक रूप से पाना, पहचानना. हो सकता है
कि दैहिक रूप के माध्यम से कोई मन की तह तक उतरने का प्रयास भी करे लेकिन उससे पहले
की स्थिति तो देह से होकर ही गुजरती है.
यह दुनिया एक से एक सुन्दर और अदभुत् रूप से आकर्षक स्त्री-पुरूषों से भरी हुई है.
क्या सभी के साथ आप सम्पर्क स्थापित कर सकते हैं, दैहिक संपर्क को छोड़िए, केवल
सामान्य संपर्क भी सबसे रख पाना संभव नहीं है. कोई आपको अच्छा लगता है उसे आप
अच्छे नहीं लगते या आप उस दायरे में नहीं आते, जिसमें अच्छा लगने वाला आपके संपर्क
में आता हो तो बात साफ हो जाती है कि आप उसी को पाने की वासना से ग्रस्त होते हैं,
जिसके सम्पर्क का अवसर सहज हो. ऐसा न होने पर करोड़ों जिस्म और उनके चेहरे केवल
चकाचौंध उत्पन्न कर हमेशा के लिए आपके हर विजन से गायब हो जाते हैं. वे स्वप्न में
भी दस्तक नहीं देते.
प्रेम यदि केवल देख लेने या देखते ही पैदा हो जाने की स्थिति होती तो तीन चौथाई
दुनिया पागलखाने में होती. देखना और चाहना मात्र वासना है. पूरी हो जाए तो ठीक
अन्यथा यह दिमाग से उतर जाती है. एक दूसरी स्थिति यह है कि आप किसी को चाहने लगते
हैं, वह आपकी पहुंच में तो है लेकिन आपको घास नहीं डालता तो आप भीतर ही भीतर पीड़ित
होते हैं. उसके लिए आपकी कसक बढ़ती ही चली जाती है. लेकिन वही यदि आपकी आंखों से
इतनी दूर हो जाए कि दिखना ही बन्द हो जाए, उससे सम्वाद का कोई ज़रिया ही न रह जाए
तो फिर धीरे-धीरे वह आउट ऑफ साइट, आउट ऑफ माइण्ड होता जाता है और एक दिन उसकी
स्मृति हमेशा-हमेशा के लिए आपकी स्मृति से गायब हो जाती है. उसके लिए न तो कसक होती
है और न उसे न पाने की टीस उठती है. यदि भूले-भटके कभी किसी वजह से उसकी याद आती भी
है तो एक हास्यास्पद भाव उभरता है कि यह बेवकूफी के अलावा कुछ और नहीं था.
इसका सीधा अर्थ है कि जिस्म है और पहुंच में है तो जहान है नहीं तो कुछ भी नहीं
है.
अब प्रेम के उस उदात्त पक्ष को भी एक नजर देखें जिसका चरबा चबाए बिना
आदर्शवादियों को हमेशा अपच का रोग लगा रहता है. उनकी कथनी के अनुसार प्रेम
त्याग और बलिदान से ओत-प्रोत भावना है. प्रेम एक पवित्र भावना है. इसमें शरीर
तो कहीं से आता ही नहीं. यह तो आत्मा की बात है. जो आत्मा से प्रेम करेगा उसी
का प्रेम अमर होगा.मैं साफ कर देना चाहता हूं कि आत्मा से पेम कोई सामान्य
इन्सान नहीं कर सकता. ऐसा प्रेम असामान्य व्यक्ति ही करेगा. प्रेम भूत-पिशाच से
नहीं होता, प्रेम हाड़- मांस के लोग करते हैं. दो विपरीतलिंगी जिन्दा लोगों के
एक दूसरे के प्रति आकर्षण का नाम प्रेम है. यह सहज व्यवहार है जो होने के बाद
व्यक्ति को असहज कर देता है.
मैं मानता हूं कि प्रेम का प्रारंभिक स्वरूप वासनात्मक होने के बावजूद निर्मल,
निश्छल, त्यागमय और उदात्त रहता है. छटपटाहट भी होती है, यदि दोनों पक्ष एक
दूसरे की भावनाओं से अवगत हों तो, और जो यह छटपटाहट होती है उसमें कारण केवल
मिलन की समस्या है. दोनों एकांत में मिलना चाहते हैं. यह एकांत की चाह क्यों ?
एकांत में मिलकर दोनों करेंगे क्या ? वे एकांत क्यों चाहते हैं ? वे सारी
दुनिया में ऐसी जगह क्यों खोजते हैं, जहां उनके अलावा दूसरा कोई न हो ? क्यों ?
ऐसा क्या है जिसे वे सबकी नज़रों से बचाकर करना चाहते हैं ?
यह मात्र एक दूसरे को स्पर्श के माध्यम से और अधिक जानने की प्यास है, जो वासना
है. दैहिक मिलन की लालसा है.यह देह ही है जिसे मैं प्रेम की जड़ मानता हूं. जब
दो लोगों के बीच प्रेम स्वीकृत हो जाता है तो वहीं से देह के लिए प्यास जो पहले
केवल नवांकुर के रूप में थी, वह अचानक वृक्ष बन जाती है. वह प्यास छांह बनकर
सुकून नहीं देती बल्कि तपन बनकर दंश देती है.जलाती है. एक दूसरे के लिए त्याग
और बलिदान की सारी बात प्यार की स्वीकृति से पहले की स्थिति है. उस स्थिति में
जान तक कुरबान हो सकती है. उस समय तक प्रेम बांधता नहीं बल्कि मुक्त करता है.
प्रेम की वही स्थिति उदात्त होती है. प्रेमी अपने प्रिय के लिए कुछ भी कर सकता
है.उसे किसी भी अवस्था में स्वीकार करने के लिए तैयार होता है. सब कुछ पवित्र
होता है. यहां तक कि मर्द के लिए एक रण्डी भी स्वीकार्य होती है. एक सावित्री
के लिए एक लुहेड़ा भी स्वीकार्य होता है.
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लेकिन जैसे ही प्रेम
स्वीकृत हुआ, बन्धन हो जाता है.परेशानी यहीं से शुरू होती है.प्रेम पजेसिव होता
जाता है.यह करो. ऐसे रहो. मेरे अलावा किसी और के कभी न हो. आदि आदि.मगर क्यों
उदात्त प्रेम को ऐसे बन्धन को मनवाने की जरुरत क्यों पड़ी. उदात्त हमेशा के लिए
उदात्त क्यों नहीं रहता ?
प्रेम शंका में जीता है. प्रेमी और प्रिय दोनों शंका में जीते हैं कि न जाने कब कौन
प्रेम करना छोड़ दे.यह ख़तरा है. जब तक देह हस्तगत् नहीं होती तब तक तो हर तरह की
शर्तों पर कसमों के साथ-साथ वायदे भी चलते रहते हैं. त्याग और बलिदान भी होता रहता
है. लेकिन देह के मिलने की स्थिति होते-होते स्थिति असहनीय होती जाती है.शर्तें ही
शर्तें. प्रेम का क्षरण यहीं से शुरू होता है.यानी कि जैसे ही प्रेम स्वीकृत हुआ
वहीं से उसके नाश की प्रक्रिया शुरू हो जाती है. कुछ भी शाश्वत नहीं है प्रेम भी.
लेकिन यदि कोई एकतरफा प्रेम करता हो तो उसका प्रेम समय के साथ सूख जाता है.और यदि
दूसरा प्रेम को अस्वीकार दे तो चोट पहुंचती है. वहां आत्म आहत होता है. अपमान बोध
होता है और स्थिति कभी कभी तो आत्महत्या तक पहुंच जाती है.आत्महत्या न भी करे तो भी
कभी कभी घाव हरा हो जाता है. लेकिन ऐसा केवल उंगलियों पर गिनी जा सकने वाली नाम
मात्र की स्थितियों में होता है.सहज स्थिति यही होती है कि तू नहीं और सही.प्रेम की
गहराई और सचाई यही है.
यदि प्रेम स्वीकृत हो गया तो अगला कदम पूर्व नियोजित देह पाने की लालसा है. देह पर
अधिकार. यानी तुम्हीं से शुरू और तुम्हीं पर खत्म. इसके बाद की स्थिति है कि फिर
किसी और से शुरू. इसके भी कारण हैं. पहला तो यही कि जब यह होता है तो केवल उद्दीपन
से ही जुड़ता है. यानी कि आकर्षण के कारण प्रमुख होते हैं. विकर्षण तो मिलन के बाद
से शुरू होता है. तो जिस सांद्रता के साथ प्रेम शुरू होता है, उसकी दुगनी सांद्रता
के साथ निगेटिविटी शुरू होती है. एक को दूसरे के वे सभी दुर्गुण, जो गुणों से
ज्यादा अच्छे लगते थे, वही भयानक रूप से अप्रिय लगने लगते हैं. स्थिति तो गुणों की
भी दुर्गति तक ही जाती है.
प्रेम जब तक अलभ्य है तभी तक उदात्त और त्यागमय है. जहां एक रिश्ता बना चाहे वह
शादी का हो या फिर लिविंग टुगेदर ही क्यों न हो, बनते ही नष्ट होने लगता है.
लिविंग टुगेदर भी एक रिश्ता है. रिश्ता बनने के पहले जो अच्छाइयां दिखती थीं,
बनने के बाद वे खुर्दबीन और दूरबीन दोनों की सहायता के बाद भी नहीं दिखतीं. और
रिश्ता तल्ख़ होने की शुरूआत होते देर नहीं होती. शुरूआत तानों और व्यंग्य से
होती है. कुछ समय मान-मनुहार में निकलता है. उसके बाद की स्थिति चुप्पी की आती
है और फिर तीसरा पड़ाव समझौतों की कोशिश होती है.समझौता जैसा कि सभी जानते हैं,
मजबूरी है. समझौते होते ही टूटने के लिए हैं. कोई पक्ष कभी भी तोडऩे के लिए
स्वतंत्र होता है.
अब सवाल यह है कि जब इस रिश्ते की दुर्गति होनी है और दुनिया बता भी चुकी है कि
अंत यही होना है तो भी लोग इस रिश्ते के लिए व्याकुल क्यों होते हैं ? उत्तर
साफ है, यह दैहिक आवश्यकता है. सवाल हो सकता है कि अगर यह केवल दैहिक आवश्यकता
है तो कहीं भी पूरी की जा सकती है फिर प्रेम की ज़रूरत क्यों ? प्रेम दैहिक
आवश्यकता होने के बाद भी तारीफ का भूखा होता है. उसे प्रशंसा चाहिए. कोई हो, जो
कहे कि तुम सुन्दर हो. गुणवान हो. तुम्हारी उपलब्धियां अनुपम हैं. तुम जैसा कोई
दूसरा नहीं है. यह मनुष्य की स्वाभाविक कमज़ोरी है. कोई बिरला ही होगा जो अपनी
प्रशंसा से फूला न समाए. परन्तु प्रशंसा करने की स्थिति हमेशा के लिए स्थायी
नहीं होती. कोई आपकी तारीफ एक बार करेगा. दो बार करेगा. दस बार करेगा. हर बार
नहीं करेगा. प्रेम स्वार्थी होता है. उसे तारीफ हमेशा चाहिए. जहां तारीफ बन्द
होना या कम होना शुरू हुई, वहीं पहला अविश्वास पनपता है कि प्रेम कम होने लगा
या कि एक को दूसरे की ज़रूरत कम होने लगी. प्रेम के ठंडेपन की यह शुरूआत है,
जहां से आरोप-प्रत्यारोप की कड़ियां गुत्थियां बनने लगती हैं. आगे चलकर इन्हें
सुलझाना मुश्किल होने लगता है. तब समझौते शुरू होते हैं, कोसना शुरू होता है,
जो सबसे अच्छा लगता था वही दुनिया का सबसे बुरा दिखता है.
प्रेम एक ऐसा मर्ज़ है जो सबको जुकाम की तरह पकड़ता और छोड़ता है. कुछ लोगों को
यह बार-बार पकड़ता और छोड़ता है. अगर यह उनकी आदत न बनी हो तो उन्हें हर बार
पहले से ज्यादा दुखी करता है. प्रेम पहला हो या उसके बाद के किसी भी क्रम पर
आए, होने पर पाने की छटपटाहट पहले से ज्यादा होती है और टूटने पर पहले से भी
तगड़ा झटका लगता है. यह टूटना इनसान को बिखरा और छितरा देता है.जिनकी आदत ओछेपन
की होती है और जो अवसर पाते ही अपना मतलब पूरा करने में लग जाते हैं उन्हें कोई
फर्क नहीं पड़ता. उनको ही क्रमश: लम्पट और छिनाल कहा जाता है. इस प्रवृत्ति के
लोग प्रेम नहीं करते.ये एक किस्म की अलग लाइफ स्टाइल जीते हैं.
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प्रेम इनके लिए एक शौक
होता है. गन्दा शौक. इस शौक को पूरा करने के लिए इनकी लार हर किसी के दैहिक सम्पर्क
को पाने के लिए टपकती रहती है. अपमान की चिन्ता इन्हें नहीं होती क्योंकि सम्मान से
इनका कोई सम्बन्ध नहीं होता.
प्रेम ईर्ष्यालु, शंकालु और हिंसक होता है. प्रेम ही एक मात्र ऐसा मानवीय व्यवहार
है जिसमें सबसे अधिक अमानवीयता है. प्रेम बनाता नहीं, बरबाद करता है. यह अलग बात है
कि बरबाद करने वाले की कोशिश कभी कभी नाकाम हो जाती है. मैं कभी नहीं मान सकता कि
रत्नावली या विद्योत्तमा ने तुलसीदास या कालिदास को अमर कर दिया.
किसी में सुधार न करना और उसे अपमान की आग में झोंक देना व्यक्तित्व निर्माण की
दिशा में उठाया गया सकारात्मक कदम नहीं कहा जा सकता. इसी तरह किसी भी महिला के
निर्माण में किसी मर्द की कोई भूमिका नहीं है. यदि कोई बना है तो उसे बनाने में
उसके परिवेश के अलावा उसकी प्रतिभा का योगदान होता है. प्रतिभा व्यक्तित्व
निर्माण में आगे-आगे चलती है.यह कहना कि यदि स्त्री का प्रेमपूर्ण सहयोग न मिला
होता तो बहुत से तथाकथित सफल लोग गुमनामी के अंधेरे में खो जाते आंशिक रूप से
सही हो सकता है. यह पूरा सच नहीं है. जिसे प्रेमपूर्ण सहयोग कहा जाता है, वह
पारिवारिक जीवन जीने की सदियों से चली आ रही दिखावटी पद्धति है. इसमें जीवन को
किसी तरह घसीटते हुए जिया जाता है और इसी को कभी कर्तव्य तो कभी प्रेमपूर्ण
निर्वाह की संज्ञा दी जाती है.
मैं जब इस लेख को लिखते हुए अपने परिवेश में इसकी चर्चा कर रहा हूं तो इस सभ्य
समाज के लोग इसे मेरा व्यक्तिगत मत कहते हुए मुझे ख़ारिज करने में लगे हैं कि
प्रेम कतई दैहिक नहीं है. प्रेम आत्मा की बात है. वासना का इससे कोई लेना-देना
नहीं. प्रेम ही है कि दुनिया बची हुई है. मेरा मन इसे स्वीकार नहीं कर रहा. मैं
समझता हूं कि करूणा है जिससे दुनिया बची हुई है. प्रेम और करूणा में अन्तर है
.करूणा का जहां असीम विस्तार है, वहीं प्रेम एक संकरी गली है. प्रेम राजपथ नहीं
है कि उस पर एक साथ और सबके साथ दुनिया चले. प्रेम में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं
है.
मैं कहना चाहता हूं कि यदि प्रेम में देह ग़ैरहाजिर है तो इस रिश्ते की
मौज़ूदगी ही नहीं है. सेक्स को आप नकार कैसे सकते हैं, जब प्रेम की अंतिम
परिणिति वही है. वही एकमात्र पल है, जब आप प्रेमी के होते हैं.वही आत्म
विस्मृति के क्षण हैं. सेक्स के बिना तो यह बिल्कुल ग़ैरज़रूरी रिश्ता होगा.
जितनी भी प्रेम कहानियां हैं, अधिकांश दुखांत हैं. यही दुखांत कहानियां लोगों
को याद भी हैं. जिनका अंत सुखद है, यदि उन कहानियों का फॉलोअप मिले तो पता
चलेगा कि अंत तक आते-आते वे भी दुखांत ही हो गईं. दुखांत कहानियों में शरीर से
न मिल पाने का दुख है तो सुखांत कहानियों के दुख का कारण प्रेम में अनवरत क्षरण
और अन्तत: उसका नष्ट हो जाना है.
राम ने सीता को प्रतियोगिता में जीता था. तब जोड़ी बनी
थी. राम ने रावण से लड़ाई अपनी इज्जत के लिए की थी. सीता को वापस पाने के बाद राम
ने उन्हें असहाय अवस्था में छोड़ दिया था. यह कहीं से भी आदर्श जोड़ी की बात को
चरितार्थ नहीं करता. |
यदि प्रेम अमरत्व जैसी स्थिति का नाम होता तो वह जीवन में केवल एक बार होता जबकि
ऐसा नहीं है. प्रेम कई बार हो सकता है. यहां तक कि दो प्रेमी जो एक दूसरे के बिना
जीवन की कल्पना भी नहीं करते, वही एक दूसरे के जीते जी किन्हीं दूसरों के साथ
आमने-सामने जीने लगते हैं. बहुधा उनका दुबारा शुरू किया गया जीवन पहले से अच्छा
होता है.
मैं प्रेम के स्वरूप से इंकार नहीं करता. इंकार इस बात से भी नहीं कि प्रेम
महत्त्वपूर्ण नहीं है, लेकिन मैं प्रेम को त्यागमय उदात्त और कुरबानियों का पुलिंदा
नहीं समझता. यह एक अनिश्चयपूर्ण मानसिक स्थिति है, जिसमें सुख क्षणिक और दुख स्थायी
है जबकि अपने आप में यह रिश्ता क्षणजीवी है.
जब मैंने अपनी बात शुरू की थी तभी कहा था कि मैं मर्द और औरत के बीच पनपने वाले इस
रिश्ते की बात कर रहा हूं. इसी बात को दो उदाहरणों के साथ समाप्त करना चाहूंगा. राम
और सीता की जोड़ी को आदर्श कहा जाता है. राधा और कृष्ण के प्रेम को जगत आदर्श मानता
है. मैं असहमत हूं. राम ने सीता को प्रतियोगिता में जीता था. तब जोड़ी बनी थी. राम
ने रावण से लड़ाई अपनी इज्जत के लिए की थी. सीता को वापस पाने के बाद राम ने उन्हें
असहाय अवस्था में छोड़ दिया था. यह कहीं से भी आदर्श जोड़ी की बात को चरितार्थ नहीं
करता. दिखने में जो आदर्श जोड़ी लगे वह जीवन व्यवहार में भी आदर्श होगी, इसकी कोई
गारंटी नहीं है. राधा और कृष्ण का प्रेम, प्रेमी और प्रेमिका का नहीं बल्कि सख्य
भाव का था. इसलिए स्त्री और पुरूष के प्रेम को इन मिथकों के साथ नहीं जोडऩा चाहिए.
16.11.2009,
11.20 (GMT+05:30) पर
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| इस समाचार / लेख पर पाठकों की प्रतिक्रियाएँ | |
| संपादक | | | रविवार के पाठक इस लेख पर अब आने वाली प्रतिक्रियाएं "सभी प्रतिक्रियाएं पढ़ें" लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं. - संपादक | | | | |
| राहुल राजेश (rahulrajesh_2006@yahoo.co.in) दुमका/धनबाद/दिल्ली/अहमदाबाद | | | रोशन प्रेमयोगी का पत्र एकदम छोटा लेकिन एकदम संपूर्ण है. कृष्णबिहारीजी जो बात अपने पूरे लेख में नहीं कह पाए या कहें,उन्हें पता ही नहीं, वह बात रोशन ने अपने इस नन्ही सी पाती में कह दी. शायद इससे सुंदर व्यवहारिक उदाहरण दुर्लभ है प्रेम और देह के संबंध को दृश्यगत करने के लिए. रोशन बधाई के पात्र हैं. राहुल राजेश. | | | | |
| roshan premyogi (roshan.premyogi@gmail.com) lucknow | | | कृष्ण बिहारी जी, आपने प्रेम के एक हिस्से को विस्तार से लिखा है, प्रेम घर की तरह होता है जिसमें बेड़रूम और बाथरूम के अलावा पूजाघर भी होता है, गेस्ट रूम भी. किसी दोस्त के साथ हमबिस्तर होना बेड़रूम का प्यार नहीं है, ना पूजाघर का प्यार. प्रेम देह से जुड़ा है लेकिन उसके आगे, पीछे, ऊपर-नीचे भी होता है. सेक्स होटल की तरह छणिक या कुछ दिन की ज़रूरत है. लेकिन प्रेम घर है, कई रूम वाला, जिसमें पूजाघर भी होता है. जिसमें सब जूता उतार कर सिर झुका कर जाते हैं. रोशन प्रेमयोगी | | | | |
| pragya (pandepragya30@yahoo.co.in ) lucknow | | | "मैं प्रेम के स्वरूप से इंकार नहीं करता. इंकार इस बात से भी नहीं कि प्रेम महत्त्वपूर्ण नहीं है, लेकिन मैं प्रेम को त्यागमय उदात्त और कुरबानियों का पुलिंदा नहीं समझता. यह एक अनिश्चयपूर्ण मानसिक स्थिति है, जिसमें सुख क्षणिक और दुख स्थायी है जबकि अपने आप में यह रिश्ता क्षणजीवी है." हमने मात्र उदाहरण के लिए उपरोक्त पंक्तियाँ रखी हैं, जो इसी लेख का हिस्सा हैं.. पूरे लेख में इसी तरह के सूत्र वाक्य क्या पोर्नोग्राफी का हिस्सा लगते हैं ? लेखक के लिए किसी ने ७० साल का तो किसी ने कुछ अन्य अशोभनीय शब्दों का प्रयोग करने में कोई गुरेज नहीं किया है... सावन के अंधों को सब हरा हरा दिखाई दे रहा है. नेट पर क्या केवल पोर्नोग्राफी लिखी जाती है या प्रेम से जुडी हर बात का मतलब पोर्नोग्राफी होता है. इस लेख को पोर्नोग्राफी की संज्ञा देनेवाले लोग लगता है इस कदर उसमें डूबे हैं की प्रेम का मतलब पोर्नोग्राफी ही समझते हैं .आप . आँखें और कान खोलकर अगर यह लेख पढ़ते तो आपको अब तक किये गए अपने प्रेमों के सर्वांग का ज्ञान हो जाता ! अंगरेजी में टिपण्णी करनेवाले लोगो! मुझे तो संदेह है ! क्या इन्हें हिंदी ठीक से आती है ?यह भी एक ज़रूरी सवाल है क्योंकि मुझे नहीं लगता की इस लेख को पढ़नेवाला आदमी ओछी टिपण्णी करेगा. मतभेद होना स्वाभाविक है! यह लेख झूठ को जीने वाले पचा ही नहीं पा रहे हैं.. सच को लिखने वाले हमेशा खतरे उठाते हैं. इस लेख पर आयी टिप्पणिया इस बात को बार-बार साबित कर रही हैं. | | | | |
| kishore kant () mumbai | | | This has become a routine to write on sexual activity and become controversial. The article has no merit. No knowledge, no beauty, no art no thought. An old man has got berserk at the age of seventy.There is no need for krishna Bihari to reply every reaction criticising for his non sense.Raviwar should be more careful. | | | | |
| Vijaya Sharma () kanpur | | | Krishna Bihari ji does not seem to be in his right state of mind. Hindi journalism is now full of these type of frustrated individuals who do explicit sexual writing for cheap publicity. It is a pity. | | | | |
| manorma () kolkata | | | These Internet magazines have given space to pornographers who have started writing in Hindi now. How can a person write so much of non sense and how can a magazine give him so much of space. Try to be discrete. | | | | |
| राहुल राजेश (rahulrajesh_2006@yahoo.co.in) दुमका/धनबाद/दिल्ली/अहमदाबाद | | | कृष्ण बिहारी जी,
आपका लेख थोड़ा अतिरेक में पड़ गया है. प्रेम और देह परस्पर पूरक हैं. न तो प्रेम देह के बिना पूरा है और न ही देह प्रेम के बिना प्रिय. आपने अगर Paulo Coelho की किताब Eleven Minutes पढ़ी हो तो उसमें एक ब्राजीलियाई कहावत है- “you need spice of love even to enjoy on bed.”
मेरा मानना है कि देह के मंदिर में ही प्रेम का दिया जलता है. और हम प्रेम के सागर में देह की नैया पर सवार होकर ही सुख पाते हैं. पर इस सबके बावजूद प्रेम केवल देह की चाह नहीं है. जैसे दाम्पत्य केवल संभोग की सामाजिक व्यवस्था नहीं है. किसी भी भावना की अनुभूति देह अर्थात इंद्रियों के माध्यम से होती है. पर कोई भी भावना केवल देह तक सीमित नहीं होती, न ही केवल देह के लिए होती है. संभोग में भी समान रुप से भोग का ही आशय है. और केवल वासना देर तक नहीं बांध सकती.
प्रेम एक दूजे को केवल देह के लिए पाना भर नहीं है. जीवन को साथ साथ जीने, साथ साथ अपने साझा सपनों को पूरा करने की जिद भी है. प्रेमचंद ने कहा है – “अगर प्रेम देह पर टिक जाए तो वह मर जाता है, और इससे आगे निकल जाए तो अमर हो जाता है”. इसलिए प्रेम न तो अशरीरी है, और न ही देह अपवित्र.जैसे देह में आत्मा है ,वैसे ही प्रेम में भी स्पर्श ,चुबंन,आलिंगन, मिलन, समागम की नैसर्गिक चाह. पर इसमें एक दुजे को सबकुछ दे देने की चाह भी होती है. केवल और केवल वासना नहीं.
राहुल राजेश. | | | | |
| krishnabihari (krishnatbihari@yahoo.com) abu dhabi | | | नवोदिताजी, सम्मान के साथ मैं भी कहना चाहता हूं कि जो कुछ आपने अपने प्रतिक्रिया में लिखा है, वही तो मैंने अपने लेख में कहा है. आपने ये निष्कर्ष कैसे निकाल लिए कि यह कुंठाग्रस्त व्यक्ति की भावनाओं की अभिव्यक्ति है. प्रेम वासनाहीन है क्या? प्रेम का क्षरण नहीं होता क्या?
मैंने पेड़-पौधों, पशुओं, भूत-प्रेतों और जिन्न-पिशाचों के प्रेम की बात नहीं की है. मैंने मर्द-औरत के प्रेम की बात की है. प्रारंभ से लेकर अंत तक प्रेम वासना से जुड़ा है.
कृष्ण बिहारी | | | | |
| navodita (navz22@yahoo.co.in) New Delhi | | | with due regards, before writing or expressing about LOVE the writer should at least practice the LOVE as per the definition of Love.The present expressions are more like frustration of a failed venture. It is like the thing which you are unable to do can not be done at all. The emotions of devotion, dedication, caring, positivism about the lover do exist and in accomplished form, but only for those who believe in them and incorporate them with love for love. It is PRACTICALLY POSSIBLE. It is requested that do not generalize your inability and mutilate the most positive feeling on the earth. LOVE. | | | | |
| krishnabihari (krishnatbihari@yahoo.com) abudhabi | | | अनूप जी, मेरे लेख को बिना पैराग्राफ के पढ़ें. साथ ही इस सच के साथ कि सब कुछ नश्वर है. धोखे में न रहें और ना किसी को रखे. प्रेम उतना ही क्षणभंगूर है, जितना पानी केरा बुदबुदा अस मानुष की जात...देखत ही छिप जाएगा, ज्यूं तारा प्रभात.....! | | | | |
| अनूप शुक्ल (anupkidak@gmail.com) कानपुर | | | बिहारीजी, आप क्या लिखें है? कुछ समझै नहीं आया। इत्ता आंय,बांय, सांय भी लिख सकते हैं आप? जय हो। धन्य हैं आप। आपकी स्थापनाओं पर हम बातै नहीं कर रहे हैं। आपके लेख में इत्ते अंतर्विरोध हैं कि मजा नहीं आया देखकर। | | | | |
| vidhu (aurat.vidhu@gmail.com) bhopal[mp] | | | सबसे पहले तो आपके लेखन-अंदाज के लिए प्रणाम, सब कुछ ठीक लिखा है आपने, लेकिन कभी प्रेम वासना जनित हो सकता है और कभी दो लोगों के आपस में उठने-बैठने जुड़ने मिलने के बाद [यदि उनमे प्रेम है] तो वासना आड़े आ सकती है और कभी प्रेम अशरीरी भी हो सकता है .
जब हम कहते वो मेरा बहुत अच्छा दोस्त है इसके मायने तब यही होते हेँ पैरा तीन में जो बात कही गई वही बात पुरुषों पर भी तो लागू हो सकती है कि पुरुष भी ऐसे भ्रम फैलाए रहतें हेँ अपनी पत्नी-प्रेमिका के सामने. बहुत पहले खुशवंत सिंह भी प्रेम में शरीर की अनुपस्थिति को बेमानी कह चुके हेँ. ये सच भी है प्रेम में शरीर की उपस्थिति से प्रेम में आसक्ति से लेकर श्रद्धा तक के धरातल दोनों को मिलतें हेँ .
ये तो परिस्थितियाँ ही निर्धारित करती होंगी आभार अंत में गिरीश जी की बात का समर्थन करते हुए ये जरूर कहूँगी की मीता दास भी सही कह रही हेँ की प्रेम में देह दिल और प्रेम को कैसे अलग किया जा सकता है. | | | | |
| mita das (mita.dasroy@gmail.com) bhilai | | | प्रेम में दिल धड़कता है. दिल देह में मौजूद होता है. फिर प्रेम, दिल और देह को भला किस तरह अलग कर सकते हैं. प्रेम का अंतिम सत्य मेरे अनुसार सिर्फ पिंजर नहीं देह में धड़कता हुआ दिल होना चाहिए. प्रेम बार बार नहीं होता. प्रेम हमेशा अपनी पूर्णता ढूंढता है और जब तलक वो ना मिले यह यात्रा ज़ारी रहती है. | | | | |
| Anamika New Delhi | | | धरती में सबको अपनी-अपनी मूर्खताओं और उन पर खुश रहने की छूट है. रही बात नया लिखे जाने की तो फिर हम सबको लिखना बंद कर देना चाहिए, क्योंकि सब कुछ लिखा जा चुका. कायदे से तो आपसे-हमसे पहले भी जीवन भी जिया जा चुका. तो फिर आत्महत्या करने चलें ? | | | | |
| ashok (ashok.sheshma@gmail.com) | | | प्रेम में त्याग है और अगर त्याग है तो वासना कहां ? ये दो विपरित स्थितियां हैं. | | | | |
| rohit pandey (aboutrohit@gmail.com) gorakhpur up | | | कृष्ण बिहारी जी आबूधाबी में हैं या भारत में. आपने एक बेहतर उपन्यास की भूमिका लिख दी है. पात्रों का चयन कर पूरा कर दीजिए. पाठनीय होगा, बिकेगा भी. देह के बिना रचना कैसी? जो लोग कह रहे हैं कि आपने नया कुछ नहीं कहा है उनसे पूछिए नया बचा क्या है? कहने का अंदाज़ जुदा हो सकता है. हां इसकी शिकायत है कि कृष्ण बिहारी जी ने प्रेम और देह को इसी तरह परोसा है जैसा अपनी कहानियों में करते हैं. उनके लिए संतोष की बात है कि प्रज्ञा और उषारानी भी सहमत है. बधाईयां. | | | | |
| krishnabihari (krishnatbihari@yahoo.com) abu dhabi , uae | | | मेरे लेख – प्रेम गली अति सांकरी पर कुछ प्रतिक्रियाएं पढ़ने को मिलीं. आलोचना का एक स्तर होता है. वह रचनाकार की उम्र, उसके रिटायर होने और खाली समय में आंय-बांय लिखने से संबंधित नहीं होती. ना तो वह इस सूत्र से जुड़ी होती है की इस विषय पर दादा सिगमंड फ्रॉयड ये पहले ही कह चुके हैं. इस तरह देखा जाए तो प्रायः सभी रासों पर सब कुछ पहले ही लिखा जा चुका है. इसीलिए यह कहना कि इसमें कुछ भी नया नहीं है, बचकानापन है. मैंने लेख में कहा है कि – प्रेम अमर-वमर नहीं होता. यह अपने जन्म के बाद से ही क्षरण की दिशा में उसी तरह चल पड़ता है जैसे अन्य मनोदशाएं और संबंध, इसका उत्स वासना है. ये लेख स्त्रियों के प्रति निंदात्मक नहीं है. इसी की एक पंक्ति है कि किसी स्त्री के निर्माण में किसी पुरुष का कोई योगदान नहीं होता. योगदान उसी प्रतिभा और समग्र परिवेश का होता है. उसमें पुरुष अगर शामिल है तो समूची उपलब्धि का श्रेय पुरुष को नहीं जाता.
मैंने आर्थिक रूप से जिन स्वतंत्र स्त्रियों की बात की है वे मज़बूरी में कामकाजी महिलाएं नहीं हैं. मजबूरी में कामकाज़ी महिलाओं की स्थिति में उनका अपना ऐशो-आराम कहां से आएगा? उन्हें तो अपने लिए या अपने घर के अस्तित्व के लिए काम करना पड़ रहा है.
मैंने जिनकी बात की है वे filthy rich महिलाएं हैं और वही पुरुष बदलने के मामले में वेश्याओं से भी आगे हैं. 5 पेज का लेख पढ़ने के बाद भी अगर किसी को कुछ समझ में नहीं आता तो कह सकता हूं कि किसी शिक्षक के क्लास में वह बहुत कमज़ोर बच्चा है जिसे बार-बार समझाने पर सरल विषय भी समझ में नहीं आता. मैंने यह भी लिखा है कि प्रेम हिंसक होता है. प्रेम में हिंसा के उदाहरण रोज सुनने को मिलते हैं.
प्रेम में बर्दाश्त की ताकत नहीं होती. प्रेम में यह सब तब तक होता है जब तक वह स्वीकृत नहीं होता और यह स्थिति बर्दाश्त की नहीं – घुटन की होती है. प्रेम में लोग घुटे हैं, तड़पते हैं, कहने को एक-दूसरे पर मरते हैं. और यह सब देह की अनुपस्थिति की वजह से होता है. जैसी ही देह जुड़ी, प्रेम का रूप बिगड़कर विकृत होने लगता है.
मैं अपने लेख पर पूरी तरह कायम हूं. इसे मेरा जिद्दी होना ना समझा जाए बल्कि एक विचार के रूप में लिया जाए. बाकी यह की कुछ भी लिखने के लिए स्वतंत्र हैं.
कृष्ण बिहारी | | | | |
| pran sharma (sharmapran4@gmail.com) coventry,uk | | | कृष्ण बिहारी का लेख जितना रोचक है उतना विचारणीय भी है. प्रेम और वासना दोनों का मन और तन से घनिष्ठ संबंध है यानी दोनों तन और मन से जुड़े हुए हैं. तन जो करता है वो मन की संतुष्टि के लिए करता है.
यूं तो प्रेम का दूसरा नाम त्याग है लेकिन स्वार्थ भी भावना जागी नहीं कि प्रेम लुप्त हुआ नहीं. एक बच्चा भी तब तक आपसे प्यार करता है जब तक खाने को उसे चॉकलेट या टॉफी मिलती है वरना वह भी अंगूठा दिखा देता है. | | | | |
| Prashant Pathak (prashantaajtak@gmail.com) UP | | | प्रज्ञा जी, हो सकता हो कि आपको यही लगे कि सच से किनारा किया हो लेकिन पूरे लेख में ऐसा कुछ भी नहीं है जिस पर अपनी राय दे सकूं. प्रेम, नारी, सेक्स और वासना पर इससे भी गंभीर लिखा गया है. आपने भी पढ़ा होगा लेकिन इसमें ऐसा कुछ भी नहीं, जिसमे कुछ नया हो. जो राय कोई सन्देश ना दे सके, मेरे हिसाब से उससे किनारा करना ही सही है. आपके शब्दों को स्वीकार करने में मुझे कोई हर्ज नहीं है. हो सकता है कि छोटा मुंह छोटी बात बोल रहा हूं, अन्यथा ना ले. | | | | |
| jayram (jay.choudhary16@gmail.com) | | | दो शक्तियों का परस्पर संघर्ष प्रकृति का नियम है . इस संसार की उत्पत्ति ही दो विपरीत शक्तियों के संघर्ष का परिणाम है . प्रेम है तो घृणा भी ,दरअसल दोनों एक दुसरे से भिन्न न होकर एक ही पथ के पथिक हैं . प्रेम के बरक्स घृणा तो है पर वासना को प्रेम के विपरीत न मान कर उसी में समाहित जाना जाता है .
अज्ञेय ने इन दोनों शक्तियों के बारे में लिखा है : एक संयोजक है ; फूलों से भंवरों का मिलन ,विटप से लता का आश्लेषण ,रात्रि से अन्धकार का प्रणय आदि में .... दूसरा विच्छेदक है ; आंधी से वृक्षों का विनाश ,दावानल से वनों का जलना ,व्याध द्वारा कपोतों के मारे जाने में आदि .
कभी-कभी दोनों प्रकार की शक्तियों का सम्म्मिलन एक हिन् घटना में होता है जब हम भौंचक रह जाते हैं .कुछ भी सहजता से समझना कठिन होता है प्रेम भी शायद एक ऐसी ही घटना है .
अपन भी अपना सच खोज रहे हैं. हाँ, अभी तक की खोज से इतना जरुर कहूँगा समाज में प्रचलित शब्दावली और उसके चलताऊ अर्थो के आधार पर प्रेम ,वासना ,सेक्स, काम आदि को समझना मुश्किल है . | | | | |
| Girish Billore (girishbillore@gmail.com) Jabalpur | | | कृष्ण जी जिस्म को लेकर प्रेम को परिभाषित करना सम्भव कदापि नहीं है न ही वासना से जुडा है प्रेम. कोई यकीन करे न करे प्रेम एक अदभुत भाव है. फ़्रायड से परिभाषित प्रेम फ़्रायड का व्यक्तिगत अनुभव मात्र है. प्रेम लिंग/वर्ग/वर्ण/ सबसे उपर है..... | | | | |
| usharai (usharai_22@yahoo.com) lucknow | | | बहुत सुंदर लेख है. कम से कम किसी ने हिम्मत तो की. निश्चित रूप से यह लेख मार्ग दर्शन का काम करेगा. काफी हद तक प्रेम के अन्तर्विरोध खुल के सामने आये हैं. मेरा मानना है कि प्रेम में आकर्षण का सबसे बडा कारण यह है कि जब हम प्रेम को देखते है तो किसी और को नही अपने को देखते है. उसकी आँखों से अपने आप को देखना, अपने विस्तार को देखना. फिर कतर व्योंत कहाँ रह जाता है. आप कि बात - प्रेम पूर्ण समर्पण चाहता है. चाहना बाकी कहाँ रहा. पहले प्रेम तो पूर्ण हो. दुनिया की बात मत कीजिये वहाँ स्वार्थ और अहंकार का बोलबाला है. प्रेम को समस्या बना कर छोड़ दिया गया है. आज के समय में मानसिक अस्पताल सबसे ज्यादा कमाई कर रहे हैं. बहुत से लोग आज भी मध्य युग में रह रहें है. नई पीढ़ी की जो हालत है, वह इसीलिए है कि हम विषय को खोलना ही नही चाहते है. | | | | |
| pragya (pandepragya30@yahoo.co.in ) lucknow | | | प्रशांत जी और राजेश अगवाल जी की टिप्पणी पढ़कर ऐसा लगा जैसे कि वे लोग सच को स्वीकार नहीं कर पाए और बात से किनारा कर गए. प्रेम जैसे विषय पर आज तक बहुत कुछ लिखा गया है. प्रेम के आगे पीछे के पक्ष इतने जटिल रहे हैं कि उसका विश्लेषण कभी नहीं हों पाया और वह हमेशा अधूरा ही रहा, लेकिन यह लेख पढ़कर लगा कि प्रेम का असली चेहरा लेखक ने बेनकाब कर दिया है.
आज तक प्रेम का असली स्वरुप खोजने में व्यर्थ ही जुटे रहे. प्रेम का असली रूप तो प्रेम विहीन है. प्रेम कभी स्त्री विरोधी नहीं होता है बल्कि प्रेम ही एकमात्र ऐसी चीज़ है जिसमें स्त्री पुरुष दोनों की बराबर कि साझेदारी होती है. प्रशांत जी आप ५ पेज पढ़ने में अपना समय एक बार अवश्य नष्ट कर लें.
सीस उतारे भुंई धरे तब पैठे घर मांहि. दुबारा प्रेम जैसी जरुरी और वाहियात बात आपको परेशान नहीं करेगी. पहली बार पूर्णता में प्रेम पर कुछ पढ़ने को मिला. लेखक को बहुत बहुत बधाई. | | | | |
| अशोक कुमार पाण्डेय (ashokk34@gmail.com) ग्वालियर | | | लेख दरअसल कहीं पहुंचता नहीं है ना ही आज तक के विमर्श में कुछ नया जोडता है. कामकाजी महिलाओं को लेकर पहले पन्ने की टिप्पणी तो वीभत्स है और नारी के प्रति आपके दृष्टिकोण की परिचायक भी.
मेरा मानना है कि शरीर प्रेम का अभिन्न हिस्सा है परंतु बिना न्यूनतम कमिटमेण्ट का सेक्स असल में एक दूसरे से भी धोखा है. एक दूसरे की इज़्ज़त और पूरी तरह बराबरी के जनवादी आधारों पर ही प्रेम पनप सकता है. | | | | |
| Prashant Pathak (prashantaajtak@gmail.com) Uttar pradesh | | | प्रिय बिहारी जी , पहले तो आप खुद ही इसे पढ़िए बड़ी मेहनत की आपने काफी समय भी लगाया होगा लिखने में , लेकिन क्या लिखा है आपने ,पहले तो इसे खुद पढ़े फिर मेहरबानी करके अगर आपको लगे की आपका मुद्दा बड़ा ही बेहतर है और आपकी कलम की ताकत से सामाजिक करवट आ सकती है तो दुसरो को भी पढने को कहें , तब ही सही है मेहरबानी करके खुद का समय ना ख़राब करे और दुसरो का भी ना ख़राब करें.
जो आपने लिखा है इसे सामाजिक परिवेश में हर कोई जानता है. कोई नया तीर आपने नहीं चला दिया हो सकता है कि आप को आपकी सेवा से सेवा मुक्ति मिल गयी हो तो इस बहस को आप आपने तक ही रखें. हां, यदि आप की बाहों में अभी वजन लेने का माद्दा हो आप नौजवान हो तो आपके प्रयास की मै सराहना करुंगा कि आप इससे बेहतर हिम्मत दिखाएं और ऐसे विषयों पर, जिनका अपना कोई महत्व हो. बाकि आपका विषय बेकार, बेमकसद है. कटु आलोचना के लिए माफ़ी. मुझे अधिक लिखना-पढना नहीं आता लेकिन आपके पांच पेज को पढने का मतलब समय नष्ट करना. ऐसा ना करने दें. | | | | |
| राजेश अग्रवाल (agrrajesh@gmail.com) छत्तीसगढ़ | | | पूरा लेख पढ़कर साफ नहीं हो पाया आप कहना क्या चाहते हैं. आपके निशाने पर महिलाएं ही क्यों हैं. सम्बन्धों का पाठ पढ़ने में कोई कमी रह गई है, जिस विषय पर आपने लिखा है वह कौतूहल का विषय तो कदापि नहीं है. | | | | |
| Jyoti verma (jyoti.ddl@gmail.com) | | | Truly said. A pure truth about love. Love is all about physical attraction friend. I agree with your thoughts. | | | | |
| संजना सिंह चौहान स्टेशन रोड, रोहतास, बिहार, भारत | | | आपने अपने इस लेख में अपनी उम्र नहीं बताई है। लगता है आप बहुत बुजुर्ग हो गये हैं, इसलिए आप इस तरह की बात कर रहे हैं। जब तक जवानी रही, तब तक सब कुछ किया और अब उम्र होने के बात आयें-बायें लिखने लगे।
प्र और एम का युग्म रूप प्रेम कहलाता है। प्र को प्रकारात्मक और एम को पालन करता भी माना जाता है। "ऐं" शब्द दुर्गा सप्तशती के अनुसार पालन करने वाले के रूप में माना जाता है। निस्वार्थ भाव से चाहत भी प्रेम की परिभाषा में सम्मिलित है। एक कहावत में प्रेम शब्द की परिभाषा बताई गयी है,-"प्रेम प्रेम सब कोई कहे,प्रेम ना जाने कोय,ढाई अक्षर प्रेम को पढे से पंडित होय"। | | | | |
| कुमार केवल नई दिल्ली | | | आपने कोई नई बात नहीं कही है कृष्ण जी. फ्रायड की मानें तो प्रेम भी सेक्स का ही एक रूप है. | | | | |
| अभय खाखा टोरंटो, कनाडा | | | ईसा मसीह ने कहा था – “एक दूसरे को वैसे ही प्रेम करो जैसा मैं तुमसे करता हूँ. अपने मित्र का जीवन बचाने के लिए स्वयं मृत्यु का वरण कर लेना ही सबसे महान प्रेम है”.(जॉन 15:12, 13) | | | | |
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