ऐसे गांधीवाद से तौबा
बहस
ऐसे गांधीवाद से तौबा
डॉ. असगर अली इंजीनियर
इक्कीसवीं सदी में जिस प्रकार की हिंसा का हमारी दुनिया को
सामना करना पड़ रहा है, वह एक बिलकुल अलग प्रकार की हिंसा है. 9/11 के बाद से दुनिया
इसे “आतंकी हिंसा“ कहने लगी है. वैसे, हिंसा तो हिंसा है-चाहे हम उस पर कोई भी लेबल
चस्पा कर दें. उन्नींसवीं सदी में युद्ध तब होते थे जब अपने साम्राज्य का विस्तार
करने के लिए कोई देश, किसी दूसरे देश पर हमला करता था. कभी-कभी दो देश आपस में किसी
और कारण से भी लड़ पड़ते थे.
आतंकी हिंसा दो दृष्टियों से युद्ध की हिंसा से अलग है. पहली यह कि आतंकी हमलों का
किसी देश के विरूद्ध युद्ध की घोषणा करने जैसा औपचारिक स्वरूप नहीं होता और दूसरी
यह कि आतंकी हिंसा अक्सर प्रतिक्रियास्वरूप होती है. आतंकी हिंसा की तुलना गुरिल्ला
युद्ध से भी नहीं की जा सकती.
हाल में, नक्सलियों या माओवादियों-जो भी नाम हम उन्हें देने चाहें-की हिंसा ने पूरे
देश को झकझोर कर रख दिया है. इसी तरह, जिस क्रूरता से पाकिस्तान में जिहादी,
निर्दोषों का खून बहा रहे हैं, वह भी बहुत दुखद है. 28 मई को लाहौर की अहमदी
मस्जिदों में हुए हमले, जिनमें सत्तर से अधिक नमाजी मारे गए; ने पूरी मानवता को
कलंकित किया है.
भारत ने पिछली सदी में अहिंसा के अनन्य पुजारी महात्मा गाँधी को जन्म दिया,
जिन्होंने अहिंसक तरीकों से देश को ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाई. आतंकवादियों की
बेजा हिंसा के चलते, कई लोग यह प्रश्न उठा रहे हैं कि क्या हमारे युग में गाँधीजी
के अहिंसा के सिद्धांत की तनिक भी प्रासंगिकता बची है? क्या महात्मा गाँधी
अप्रासंगिक हो गए हैं? क्या गाँधी जयंती और शहीद दिवस पर उन्हें औपचारिक
श्रद्धांजलि देना ही गाँधीजी से हमारा एकमात्र रिश्ता रह गया है?
गाँधीवादी विचारकों की यह जिम्मेदारी है कि वे इन प्रश्नों के उत्तर दें और इन
शंकाओं का समाधान करें. जो लोग स्वयं को गाँधीवादी कहते हैं, क्या वे भी गाँधीजी और
उनके चिंतन को गंभीरता से लेते हैं? या फिर गाँधीवाद एक तरह का धर्म बन चुका है
जिसके अपने कर्मकांड हैं, आश्रम हैं और संग्रहालय हैं. आखिर गाँधीवादी कहाँ हैं? वे
क्या कर रहे हैं? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि गाँधीजी की अहिंसा केवल दर्शन नहीं
थी. उनके लिए अहिंसा एक पवित्र धर्म था, जिसकी रक्षा के लिए वे अपनी जान तक देने के
लिए तैयार रहते थे. वे हिंसा के विरूद्ध सड़कों, चौराहों और दूर-दराज के गाँवों में
संघर्ष करते थे.
सन् 1980 के दशक में मैं गुजरात गया था. उस दौर में वहां जातिगत व सांप्रदायिक
हिंसा का बोलबाला था. मुझे गाँधी के प्रदेश में और अहमदाबाद तक में-जहां साबरमती
आश्रम है-एक भी ऐसा गाँधीवादी नहीं मिला जो फिरकापरस्तों के सामने हिम्मत से खड़ा हो
सके. या कम से कम सांप्रदायिक हिंसा के खिलाफ आमरण अनशन कर सके. आमरण अनशन एक ऐसा
प्रभावी तरीका था, जिसका गाँधीजी ने सांप्रदायिकता की आग को बुझाने के लिए कई बार
इस्तेमाल किया.
कटु सत्य तो यह है कि सन् 2002 में साबरमती आश्रम के कर्ताधर्ताओं ने मेधा पाटकर और
अन्य शांति कार्यकर्ताओं को आश्रम में शांति सभा तक आयोजित नहीं करने दी थी. उन्हें
डर था कि राज्य सरकार उन्हें मिलने वाला अनुदान बंद न कर दे. ऐसे गाँधीवादी किस काम
के जिन्हें गाँधी के सिद्धांतों से ज्यादा प्यारा सरकारी अनुदान है?
आईये, सबसे पहले हम गाँधीजी के अहिंसा के सिद्धांत के मुख्य तत्वों को समझें.
गाँधीजी सत्याग्रह और अहिंसा में अटूट आस्था रखते थे. वे सत्य और अहिंसा दोनों के
पुजारी थे. सत्य और अहिंसा को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता. सत्य के बिना
अहिंसा बेमानी है और अहिंसा-विहीन सत्य, अर्थहीन है. हम अक्सर कहते हैं कि ईश्वर
सत्य है. गाँधीजी ने इसे पलट कर कहा कि सत्य ही ईश्वर है.
सत्य और अहिंसा अविभाज्य इसलिए हैं क्योंकि सत्य ही अहिंसक हो सकता है और अहिंसा
केवल सत्य पर आधारित हो सकती है. सत्य कभी जोर-जबरदस्ती से लादा नहीं जा सकता. सत्य
एक आंतरिक भावना है और किसी भी प्रकार की जोर जबरदस्ती सत्य को प्रदूषित कर देगी.
दूसरी ओर हिंसा, जोर जबरदस्ती का चरम स्वरूप है. हिंसा के जरिए लोगों को वह मानने
पर मजबूर किया जाता है, जो वे नहीं मानना चाहते. हिंसा के कारण लोगों को वह स्वीकार
करना पड़ता है, जो उन्हें अस्वीकार्य है. अतः सत्य और अहिंसा परस्पर विरोधी हैं.
अहिंसा प्रत्येक व्यक्ति को अंतःकरण की आजादी की पूर्ण गारंटी देती है. हर व्यक्ति
अपनी आस्था व विश्वास के अनुरूप कार्य और व्यवहार करने के लिए स्वतंत्र रहता है.
स्वहित के लिए किया जाने वाला कार्य, सत्य को प्रदूषित करता है और इससे प्रेरित
व्यक्ति नकली व्यवहार करता है जो अंततः हिंसा का कारण बन सकता है. इस तरह, अहिंसक
व्यवहार के मुख्यतः तीन लक्षण हैं-
1. वह सच्ची आस्था व विश्वास पर आधारित होना चाहिए
2. वह सत्याचरण पर आधारित होना चाहिए और
3. वो अंतःकरण की आवाज पर आधारित होना चाहिए. ऐसा व्यवहार, जिसमें इनमें से एक भी
लक्षण कम है, का अंतिम नतीजा हिंसा भी हो सकती है.
यह भी महत्वपूर्ण है कि हिंसा का अर्थ केवल शारीरिक हिंसा नहीं होता. हिंसा तीन
प्रकार की हो सकती है-
1. शारीरिक हिंसा जिसका नतीजा किसी का घायल होना या किसी की मृत्यु हो सकता है.
2. शाब्दिक हिंसा और
3. नैतिकता के मानकों और मानवीय मूल्यों के विरूद्ध हिंसा. शारीरिक हिंसा, व्यक्ति
के स्तर पर हो सकती है और राष्ट्रों के स्तर पर भी. इसी तरह, शाब्दिक हिंसा कोई
व्यक्ति कर सकता है, कोई समुदाय कर सकता है या संपूर्ण राष्ट्र भी. नैतिक आदर्शों
के विरूद्ध आचरण भी कोई व्यक्ति या कोई समूह कर सकता है.
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एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि कोई व्यक्ति, समूह, राष्ट्र या धार्मिक अथवा
सांस्कृतिक समुदाय, सच्चा अहिंसक व्यवहार तभी कर सकता है, जब वह अपने अंतःकरण से
निरंतर संवाद करे और अपने नैतिक मानदंडों और सभ्यता के मूल्यों को सदा ध्यान में
रखे.
अंतःकरण से निरंतर संवाद, सच्चे और अहिंसक व्यवहार के लिए अपरिहार्य है. अमरीकी
जेसुएट और गाँधीवादी जॉन मेरटेन इसे “एकान्त से मुलाकात“ की संज्ञा देते हैं.
हम गहन आत्मचिंतन तभी कर सकते हैं, अपने अंतःकरण से संवाद तभी स्थापित कर सकते हैं,
जब हम पूर्ण एकान्त में हों और बाहर की दुनिया की गतिविधियों से अप्रभावित रहते हुए
केवल अपने अंतर्मन पर ध्यान केन्द्रित करें. यही कारण है कि ऋषियों, संतों और
पैगंबरों ने गहन आत्मचिंतन को इतना महत्व दिया और इस तरह वे सत्य तक पहुँचे.
स्वयं से संवाद करने वालों को दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है-
1. वे जो ऐसा केवल ज्ञान अर्जन के लिए करते हैं और इस ज्ञान को बाहरी दुनिया से न
तो बाँटना चाहते हैं व न बाँटते हैं.
2. वे जो न केवल इस ज्ञान को बाँटना चाहते हैं वरन् इस ज्ञान से दुनिया को बदलना भी
चाहते हैं. कई पैगंबर और हमारे युग में गाँधीजी दूसरी श्रेणी में आते हैं.
गाँधीजी केवल चिंतक व दार्शनिक नहीं थे. वे कार्यकर्ता भी थे. वे सत्य को न सिर्फ
खोजना चाहते थे वरन् उसे कार्यरूप में परिणित भी करना चाहते थे. गाँधीजी केवल स्वयं
के लिए न्याय और स्वतंत्रता पाने के इच्छुक नहीं थे. वे सभी लोगों, पूरे राष्ट्र को
न्याय व स्वतंत्रता दिलवाना चाहते थे. गाँधीजी जैसे लोग केवल स्वयं में परिवर्तन
लाकर संतुष्ट नहीं होते. वे अपने आसपास की दुनिया को भी बदलना चाहते हैं. गाँधीजी
ने यही करने की कोशिश पहले दक्षिण अफ्रीका और फिर भारत में की.
इस तरह, हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि एक अहिंसक दुनिया के निर्माण के लिए
निम्न शर्तो का पूरा होना आवश्यक है-
1. वैश्विक व्यवस्था न्याय और सत्य पर आधारित हो व
2. उसमें जोर-जबरदस्ती के लिए कोई स्थान न हो और सभी व्यक्तियों व राष्ट्रों को
सच्ची स्वतंत्रता प्राप्त हो.
चूंकि हमारी वर्तमान वैश्विक व्यवस्था इन आदर्शों पर आधारित नहीं है, इसलिए हमारे
चारों ओर हिंसा का बोलबाला है. विभिन्न राष्ट्र एक-दूसरे के विरूद्ध हिंसा कर रहे
हैं. इस आक्रामक हिंसा के अतिरिक्त, विभिन्न विद्रोही गुटों, स्वतंत्रता संग्राम
सेनानियों और आतंकवादियों की हिंसा भी जारी है, जिसकी प्रकृति प्रतिक्रियात्मक है.
गाँधीवाद की प्रासंगिकता सत्य, न्याय
और जोर-जबरदस्ती से स्वतंत्रता पर निर्भर है. आज की दुनिया में ये मूल्य कहीं नजर
नहीं आ रहे हैं. |
मैं यहां यह भी कहना चाहूंगा कि विभिन्न आंदोलनों के प्रणेताओं के नैतिक आदर्शों का
उनके समर्थक अक्सर पालन नहीं कर पाते हैं. जल्दी ही, ये आंदोलन निहित स्वार्थों का
गढ़ बन जाते हैं-ऐसा संस्थागत गढ़ जिनका मूल आंदोलन से कोई लेना-देना नहीं होता.
गाँधीवादी आंदोलन भी इन बुराईयों से बच नहीं सका. उनकी मृत्यु के पहले ही गाँधीजी
अप्रासंगिक हो चले थे. देश स्वतंत्र हो गया था और गाँधीजी की अब उसे जरूरत नहीं थी.
अब तो सत्ता की दौड़ में शामिल होने की बारी थी. कोई भी गाँधीजी की सलाह लेना नहीं
चाहता था क्योंकि गांधीजी उसे नैतिक मूल्य तो दे सकते थे, सत्ता नहीं.
धीरे-धीरे गाँधीवादी आंदोलन एक व्यावसायिक प्रतिष्ठान में बदल गया. गाँधीजी के नाम
पर जमीनें हड़पने, ट्रस्ट बनाने व संपत्ति पर कब्जा करने की होड़ शुरू हो गई. इससे भी
बुरा यह हुआ कि गाँधीवादी आंदोलन ने अपनी गतिशीलता खो दी. वह बहती हुई नदी के बजाय
स्थिर पानी का तालाब बन गया. वह रूढिग्रस्त हो गया. नए आर्थिक यथार्थों से आँखें
मूंद कर चरखा और खादी उसके प्रतीक बन गए. रचनात्मक चिंतन की अपनी ताकत खोकर,
गाँधीवादी आंदोलन कर्मकांडी बन गया.
अब हम अपने मूल प्रश्न पर फिर वापस आते हैं. क्या हिंसा से भरे इस विश्व में
गाँधीवाद की कोई प्रासंगिकता है? गाँधीवाद की प्रासंगिकता सत्य, न्याय और
जोर-जबरदस्ती से स्वतंत्रता पर निर्भर है. आज की दुनिया में ये मूल्य कहीं नजर नहीं
आ रहे हैं. ऐसे में हम हिंसा-मुक्त विश्व कैसे बनाएं, क्योंकि ये मूल्य हिंसा-मुक्त
विश्व के निर्माण के लिए अपरिहार्य हैं. आज हालत यह है कि गाँधीवादी अहिंसा की बात
तो सब कर रहे हैं परंतु चारों ओर हिंसा का बोलबाला है.
तो क्या हम यह मान लें कि हिंसा-मुक्त विश्व केवल एक सपना है? इस प्रश्न का उत्तर
हाँ भी है और नहीं भी. यह एक ऐसा सपना है जिसे पूरा करने के लिए गाँधीजी जैसे
व्यक्ति की जरूरत है, जो रचनात्मक चिंतक तो हो ही परंतु साथ ही उसमें अपने आदर्शों
को जमीन पर उतारने की क्षमता भी हो. पैगंबर और ऋषि-मुनि हमेशा से अहिंसा पर जोर देते
आए हैं, परंतु गाँधीजी पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने अहिंसा के सिद्धांत को
व्यवहारिकता के धरातल पर उतारने में सफलता पाई और उसका उपयोग देश को स्वतंत्रता
दिलवाने के लिए किया.
बडे़ पैमाने पर विनाश कर सकने वाले आधुनिक हथियारों के विकास ने हिंसा की समस्या को
और गंभीर बना दिया है. ये हथियार सैनिकों के साथ-साथ नागरिकों के व्यापक जनसंहार का
कारण बन रहे हैं. हमारी इस दुनिया में बहुत सारी स्थितियां अत्यंत अन्यायपूर्ण है.
इस दुनिया में भौतिक विकास के मामले में गहरी असमानताएं हैं और बहुसंख्यक आबादी की
आवश्यकताओं की कीमत पर चुनिंदा देश अपनी धन की पिपासा को पूरी कर रहें हैं. इसलिए
यह अति आवश्यक है कि अहिंसक विरोध के तरीकों का रचनात्मक इस्तेमाल कर मानवता को
बचाया जाये.
क्या इसके लिए हम दूसरे गाँधी का इंतजार करें? ऐसा करना हमारी कमजोरी होगी. आज हमें
सामूहिक रूप से मूल्यों की रक्षा करने का संकल्प लेना होगा. हमें अपनी शिक्षा
प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन लाने होगें ताकि शिक्षा, गरीब से गरीब व्यक्ति की
पहुँच में आ सके. यह शिक्षा प्रणाली ऐसी हो जिसमें प्रतिस्पर्धा की जगह सहयोग की
भावना पर जोर दिया जाये. हम ऐसी गाँधीवादी अर्थव्यवस्था बनाएं जो न्यायपूर्ण हो, जो
सभी की मूल आवश्यकताओं को पूरी करे और जिसमें आधुनिक तक्नालाजी का रचनात्मक उपयोग
हो. यदि हम यह सब कर सके तो कम से कम हमारे देश के स्तर पर हम हिंसा से मुक्ति पाने
की आशा कर सकते हैं.
05.06.2010,
01.17 (GMT+05:30) पर
प्रकाशित