मुसलमानों की क्यों बदली प्राथमिकतायें
मुद्दा
मुसलमानों की क्यों बदली प्राथमिकतायें
डॉ. असगर अली इंजीनियर
कोलकाता और पश्चिम बंगाल के अन्य शहरी स्थानीय निकायों के चुनावों के नतीजे,
वाममोर्चे के लिए धक्का पहुंचाने वाले रहे हैं. पश्चिम बंगाल के मतदाताओं पर
वाममोर्चे के घटते प्रभाव के कई कारण हैं. विशेषज्ञ और राजनीति के पंडित इनका
विश्लेषण करेंगे, परंतु वाममोर्चे के कुछ नेताओं सहित अधिकांश लोग यह स्वीकार करते
हैं कि वामपंथियों ने मुस्लिम मतदाताओं का समर्थन खो दिया है और यह उनके घटते
जनाधार का एक महत्वपूर्ण कारण है.
पश्चिम बंगाल में वाममोर्चे के सत्ता सम्हालने के पहले तक, सांप्रदायिक दंगे बहुत
आम थे. सांप्रदायिक दृष्टि से पश्चिम बंगाल अत्यंत संवेदनशील राज्य माना जाता था.
कुछ कारणों से, जिनका विश्लेषण हम यहां नहीं करेंगे; बंगाल की कांग्रेस सरकारों ने
कभी इन दंगों को नियंत्रित करने की कोशिश नहीं की. कहने की आवश्यकता नहीं कि इन
दंगों में सबसे अधिक नुकसान मुसलामानों का होता था. वामपंथी हमेशा से अल्पसंख्यकों
के साथी रहे हैं. वे सांप्रदायिक सोच और विशेषकर सांप्रदायिक हिंसा के विरोधी रहे
हैं.
पश्चिम बंगाल में सत्ता में आने के बाद, वामपंथियों ने सांप्रदायिक हिंसा पर कड़ाई
से रोक लगाई. पिछले 30 सालों में बंगाल में एक भी बड़ा सांप्रदायिक दंगा नहीं हुआ.
वहां के मुस्लिम रहवासियों की पहली प्राथमिकता सुरक्षा थी और इसलिए वे लगातार
वाममोर्चे को अपना समर्थन देते रहे. इसके अतिरिक्त, कुछ क्षेत्रों में रहने वाले
मुसलमानों को बंगाल में हुए भू-सुधारों से लाभ हुआ और इस कारण भी वे वाममोर्चे के
प्रशंसक बन गये.
फिर आखिर क्या हुआ कि पश्चिम बंगाल के मुसलमानों का वाम मोर्चे से मोहभंग हो गया.
इसके पीछे कई कारण तो वही हैं, जो बंगाल के सभी धर्मों के रहवासियों के मामले में
हैं और कुछ ऐसे हैं जो केवल मुसलमानों पर लागू होते हैं. हम यहां केवल मुसलमानों के
वाममोर्चे से दूर जाने के कारणों का विश्लेषण करेंगे ताकि हम मुसलमानों के चुनावी
व्यवहार को समझ सकें. बिहार और पश्चिम बंगाल, दोनों इस बात के उदाहरण हैं कि
मुसलमानों के लिए आज भी उनके जानोमाल की सुरक्षा सबसे अहम है.
बिहार के हालात भी लगभग ऐसे ही थे. सन् 1990 तक बिहार में भी जमकर सांप्रदायिक
हिंसा होती थी. फिर, लालू प्रसाद यादव ने यादवों और मुसलमानों का संयुक्त मोर्चा
बनाकर सत्ता में आने में सफलता प्राप्त की और उन्होंने पूरी निष्ठा से राज्य में
सांप्रदायिक हिंसा को रोकने की कोशिश की. नतीजा यह कि बिहार में लालू प्रसाद यादव
के 15 साल के शासनकाल में एक भी सांप्रदायिक दंगा नहीं हुआ परंतु इसके बाद भी 15
साल बाद, मुसलमानों ने लालू प्रसाद का साथ छोड़कर नितीश कुमार का दामन थाम लिया.
लालू प्रसाद को अपनी गद्दी खोनी पड़ी.
दोनों राज्यों में सुरक्षा, मुसलमानों की उच्चतम प्राथमिकता बनी रही परंतु वे घोर
गरीबी और बेरोजगारी से भी पीड़ित थे. असुरक्षा की भावना कम होने के बाद वे अपनी
गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी की समस्याओं को सुलझाने का उपक्रम करने लगे और यह उनकी
दूसरी प्राथमिकता बन गया.
पश्चिम बंगाल में केवल 4 प्रतिशत सरकारी
कर्मचारी मुसलमान हैं, जो कि बहुत कम है. |
कुछ हद तक उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के साथ भी यही हुआ. वे भी मुसलमानों
और यादवों का संयुक्त मोर्चा बनाकर सत्ता में आए परंतु जब उन्होंने मुसलमानों को
नजरअंदाज कर रोजगार के अवसर केवल यादवों को मुहैय्या कराने शुरू किए तो मुसलमानों
ने उनका साथ छोड़ दिया. इसके बाद मुसलमान सुश्री मायावती के साथ हो लिए परंतु
मायावती ने भी उन्हें निराश ही किया. उत्तर प्रदेश में अगले चुनाव के नतीजों से
हमें वहां के मुसलमानों के ताजा रूख का सही अंदाज होगा.
पश्चिम बंगाल की लगभग 28 प्रतिशत आबादी मुस्लिम है जो मुर्शीदाबाद व कुछ अन्य
इलाकों में केन्द्रित है. बंगाल पर राज करने की इच्छुक कोई भी पार्टी, मतदाताओं की
इतनी बड़ी संख्या को नजरअंदाज नहीं कर सकती. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि वाममोर्चे ने
मुसलमानों की आर्थिक समस्याओं की ओर ध्यान नहीं दिया और यही वाममोर्चे से मुसलमानों
के मोहभंग का कारण बना.
सच्चर समिति द्वारा संकलित किए गए आंकड़ों से पता चलता है कि पश्चिम बंगाल में
मुसलमान सभी क्षेत्रों में, यहाँ तक कि सरकारी नौकरियों तक के मामले में; अन्य
धार्मिक समुदायों से बहुत पीछे हैं. पश्चिम बंगाल के 57 प्रतिशत मुसलमान साक्षर हैं
जबकि राष्ट्रीय औसत 65 प्रतिशत है. यह दिलचस्प है कि केरल में, जहाँ वामपंथी सत्ता
में तो रहे परंतु लगातार नहीं; मुसलमानों का साक्षरता का प्रतिशत कहीं अधिक 89
प्रतिशत है. उत्तरप्रदेश में यह आंकड़ा 48 प्रतिशत और बिहार में सबसे कम 42 प्रतिशत
है.
पश्चिम बंगाल में गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले मुसलमानों का प्रतिशत
सन् 1987 के 53 प्रतिशत से गिरकर सन् 2004 में 44 प्रतिशत रह गया. केरल में
मुसलमानों की आर्थिक स्थिति में कहीं अधिक तेजी से सुधार आया. सन् 1997 में जहाँ 56
प्रतिशत मुसलमान गरीब थे वहीं सन् 2004 में यह आंकड़ा घट कर केवल 31 प्रतिशत रह गया.
उत्तरप्रदेश और बिहार में सन् 2004 में क्रमशः 43 और 47 प्रतिशत मुसलमान गरीबी की
रेखा से नीचे थे. इस मामले में भी बिहार देश में सबसे नीचे पायदान पर है.
पश्चिम बंगाल में केवल 4 प्रतिशत सरकारी कर्मचारी मुसलमान हैं, जो कि बहुत कम है.
पश्चिम बंगाल सरकार ने हाल में सरकारी नौकरियों में मुसलमानों को दस प्रतिशत आरक्षण
देने की घोषणा की परंतु नगर निकायों के चुनाव परिणाम देखने से ऐसा नहीं लगता कि
मुसलमान इस कदम से बहुत प्रभावित हुए हों. हो सकता है कि इस कदम का राजनैतिक प्रभाव
पड़ने में कुछ और समय लगे. सिंगूर और नंदीग्राम में अपनी जमीनें खो देने वालों में
मुसलमान भी शामिल थे और इन परियोजनाओं के विरोध में चले आंदोलनों में जमायत-ए-उलेमा
ने भी हिस्सा लिया था. इन विभिन्न कारणों से मुसलमानों ने वाममोर्चे में विश्वास खो
दिया और ममता बनर्जी से जुड़ गए.
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अब एक बड़ा प्रश्न यह है कि
क्या ममता बेनर्जी मुस्लिम मतदाताओं की अपेक्षाओं पर खरी उतरेगीं? मुलायम सिंह और
लालू प्रसाद ने मुसलमानों को सुरक्षा तो दी परंतु उसके आगे कुछ नहीं किया. और
मुसलमानों ने उनका साथ छोड़ दिया. ममता इस मामले में कुछ बेहतर सिद्ध होंगी, इस की
संभावना कम ही है. ममता बेनर्जी की कोई विचारधारा नहीं है. वे झक्की स्वभाव की हैं
और सत्ता की खातिर उन्होंने भाजपा से हाथ मिला लिया था. यदि उन्होंने एनडीए छोड़ा तो
उसके पीछे, अन्य कारणों के अलावा, मुसलमानों को खुश करने की कोशिश भी थी.
हमारे राजनेताओं को अब यह अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए कि कोई भी पार्टी या गठबंधन
अब अल्पसंख्यकों विशेषकर मुसलमानों को, वोट बैंक की तरह इस्तेमाल नहीं कर सकता. सन्
1980 के दशक तक मुसलमानों के सामने कांग्रेस का कोई विकल्प नहीं था. इसी के चलते,
कांग्रेस ने मुसलमानों के प्रति उपेक्षा भाव अपना लिया. यहाँ तक कि कांग्रेस
सांप्रदायिक कार्ड खेलने लगी. स्थानीय स्तर पर कई कांग्रेसी नेताओं ने सांप्रदायिक
संगठनों से हाथ मिलाना शुरू कर दिया.
श्रीमती इंदिरा गाँधी ने तक सन् 1980 के दशक में विहिप और आरएसएस से समर्थन माँगा
था. पंरतु इसके बाद भी मुसलमान, कांग्रेस से जुड़े रहे क्योंकि उनके पास कोई और चारा
नहीं था.
यह स्थिति सन् 1990 के दशक में बदल गई. मंडल आयोग की रपट के लागू होने के बाद कई
क्षेत्रीय दल उभरे. उत्तर प्रदेश, बिहार और कुछ अन्य राज्यों में मुसलमानों को
कांग्रेस का विकल्प मिल गया. वे इन नए उभरे दलों का समर्थन करने लगे. नतीजे में
कांग्रेस ने केन्द्र की सत्ता खो दी और 2004 में वह यूपीए गठबंधन बनाकर ही सत्ता
में आ सकी. कुछ ऐसी ही स्थिति पश्चिम बंगाल में वाममोर्चे की है. मुसलमान, जो हमेशा
से वाम मोर्चे के साथ रहे हैं, अब तृणमूल कांग्रेस की ओर आकर्षित हो रहे हैं.
हमारे देश की राजनीतिक संस्कृति प्रजातांत्रिक तो है परंतु वह सबको साथ लेकर चलने
वाली नहीं है. राजनैतिक सत्ता पर काबिज़ होने और आर्थिक विकास से लाभ उठाने में उच्च
जातियों के हिन्दू हमेशा आगे रहे. पिछड़े वर्गों को भी थोड़ा बहुत लाभ मिला परंतु
मुसलमानों सहित अन्य अल्पसंख्यक वर्गों को कोई फायदा नहीं हुआ.
अगर अल्पसंख्यक सुरक्षित नहीं हैं और उन्हें अपनी आबादी के अनुपात में सत्ता व
आर्थिक विकास में हिस्सेदारी नहीं मिल रही है तो प्रजातंत्र का कोई अर्थ नहीं है.
भारत में लगभग 15 करोड़ मुसलमान रहते हैं और वे देश के सबसे बडे़ अल्पसंख्यक हैं
परंतु जैसा कि सच्चर समिति की रपट से स्पष्ट है, वे बदहाल हैं और यहाँ तक कि उनकी
हालत दलितों से भी बदतर है.
जमायत को भी भारत के धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को
स्वीकार करना पड़ा है और यहाँ तक कि वह अब राजनैतिक प्रक्रिया में भाग
लेने पर भी विचार कर रही है. ज्ञातव्य है कि जमायत के संस्थापक ने
राजनैतिक प्रक्रिया में भाग लेने को हराम की संज्ञा दी थी. |
मुसलमानों में शनैः शनैः एक आधुनिक, पढ़ा-लिखा मध्यमवर्ग उभर रहा है. यह मध्यमवर्ग
चुपचाप बैठने वाला नहीं है. उसे अपने अधिकारों का भान है और वह हालात को बदलने का
इच्छुक है. यद्यपि इस वर्ग की आम मुसलमानों में पैठ आज भी पारंपरिक उलेमा की तुलना
में कहीं कम है तथापि इस वर्ग को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. यह वर्ग मुखर है और
सक्रिय होता जा रहा है. दिलचस्प बात यह है कि यह वर्ग धार्मिक मुद्दों पर पारंपरिक
धार्मिक नेतृत्व को चुनौती देने से भी नहीं चूक रहा है.
अगर मदरसों का आधुनिकीकरण हो जाता है-जिसकी माँग मुस्लिम मध्यमवर्ग कर रहा है-तो
इसका मुस्लिम राजनीति पर गहरा असर पड़ेगा. यह सही है कि उदारीकरण और वैश्वीकरण की
प्रक्रिया से गरीबों और कमजोरों का अहित हो रहा है परंतु यह भी उतना ही सही है कि
इन प्रक्रियाओं के चलते, गरीब और कमजोर-जिनमें मुसलमान शामिल हैं-अपने अधिकारों के
प्रति जागरूक हो रहे हैं. उन्हें आधुनिक तक्नालॉजी को समझने का मौका मिल रहा है और
वे राजनैतिक रूप से संगठित हो रहे हैं.
आजकल मदरसों में भी कम्प्यूटर सहित कई आधुनिक उपकरण प्रवेश पा चुके हैं. मदरसों की
अपनी वेब साईटें है जिन पर अल्पसंख्यकों से जुड़े मुद्दों पर गर्मागर्म बहस चलती
रहती है. इससे मुसलमानों के ज्ञान में तो इजाफा हो ही रहा है उनकी राजनैतिक
जागरूकता भी बढ़ रही है. मदरसों से पढ़कर निकले कई लड़के विश्वविद्यालयों में दाखिला
ले रहे हैं और आधुनिक धर्मनिरपेक्ष शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं. इससे उनके दृष्टिकोण
में व्यापकता आ रही है और उन्हें अपने प्रजातांत्रिक और राजनैतिक अधिकारों का ज्ञान
हो रहा है.
इस तरह, यह साफ है कि हमें अल्पसंख्यकों की समस्याओं के प्रति अपना दृष्टिकोण बदलना
होगा. मुसलमान धर्मनिरपेक्ष-प्रजातांत्रिक संस्कृति को आत्मसात कर चुके हैं और
उन्हें अब अन्य इस्लामिक देशों के विपरीत, धार्मिक नेता बेवकूफ नहीं बना सकते.
धार्मिक नेतृत्व का मुसलमानों पर प्रभाव तेजी से घट रहा है. यद्यपि भारत में
पाकिस्तान से ज्यादा मुसलमान रहते हैं तथापि यहाँ के मुसलमान उतने दकियानूसी और
कट्टर नहीं हैं जितने कि पाकिस्तान के.
भारत में इस्लाम की एक अलग छवि है. यहाँ के मुसलमान किसी अन्तर्राष्ट्रीय आतंकी
आंदोलन में शामिल नहीं हैं. भारत में तो जमायत-ए-उलेमा-ए-हिन्द के तत्वाधान में
दसियों हजार मुसलमानों ने आतंकवाद के खिलाफ जोरदार प्रदर्शन किया था. जमायत को भी
भारत के धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को स्वीकार करना पड़ा है और यहाँ तक कि वह अब राजनैतिक
प्रक्रिया में भाग लेने पर भी विचार कर रही है. ज्ञातव्य है कि जमायत के संस्थापक
ने राजनैतिक प्रक्रिया में भाग लेने को हराम की संज्ञा दी थी.
अगर धर्मनिरपेक्ष ताकतें कोशिश करें तो राजनैतिक गतिविधियों और विकास की प्रक्रिया
में मुसलमानों को समुचित हिस्सेदारी मिल सकती है. इससे भारत के विकास की गति बहुत
बढ़ेगी. मुसलमान भी देश के विकास में अपना योगदान दे सकेंगे. दुर्भाग्यवश गरीबी,
अशिक्षा और सत्ता में भागीदारी न मिलने के कारण वे ऐसा नहीं कर पा रहे हैं.
18.06.2010, 21.40 (GMT+05:30) पर प्रकाशित