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गांधी बनाम अण्णा हजारे
बात बोलेगी
गांधी बनाम अण्णा हजारे
कृष्ण राघव
यह तब की बात है जब मैंने अण्णा हजारे को लेकर एक वृत्तचित्र बनाया था, वर्ष 1996 !
आधे घंटे की इस फिल्म का हिंदी में नाम था, 'अगम्य की खोज' और अंग्रेजी में ‘इन
सर्च ऑफ यूटोपिया’. प्रसिद्ध महिला पत्रकार सुश्री दीपा गहलोत ने इस विषय को
मुझे सुझाया था, इस पर शोध किया था और इसकी पटकथा लिखी थी. मैं अण्णा से तब से
जुड़ा हुआ हूं. इस फिल्म को बनाने के लिए मैंने किसी धनकुबेर यानी फाइनेन्सर या
स्पांसर का सहारा नहीं लिया था.
यह मेरा अपना पैसा था क्योंकि अण्णा के काम ने मुझे इस कदर प्रभावित किया था कि मैं
उसे फिल्म में ढालना चाहता था और फिल्म सराही भी गई, दूरदर्शन ने उसे दिखाया,
दो-तीन अंतर्राष्ट्रीय समारोहों में गई-सराही गई...तब मुझे अण्णा, लाल बहादुर
शास्त्री जैसे लगे थे...तब मुझे अण्णा, लाल बहादुर शास्त्री जैसे लगे थे, छोटे कद
के बड़े आदमी...तब भी वह मंदिर में वहीं रहते थे.
दरअसल वह मंदिर बनवाया ही इन्होंने था. फौज से जब एक बार छुट्टी पर आए तो गांव के
‘देवस्थान’ की दुर्दशा देखी और दुखी हो गए,जर्जर हो गया था. गांव की आय का प्रमुख
साधन एक कुटीर उद्योग था-शराब की भट्टियां...पानी की कमी के कारण खेती का कोई भरोसा
न था.जवान पीढ़ी को पढऩे-लिखने के बाद भी काम नहीं था,
लिहाजा अधिकतर लोग अपने गांव व आस-पास के लिए इसी कुटीर उद्योग की ओर मुड़ गए. वे
मंदिर की छत से लकडिय़ां निकाल ले जाते और भट्टियों में झोंक देते. अपनी कुंठा से
छुटकारा मिलता और जेब में पैसे भी आते. ऐसे में खेमकरण सीमा का वाकया
हुआ…भारत-पाकिस्तान युद्ध की विभीषका में इनके सारे साथी मोर्चे पर मारे गए, केवल
यह और इनकी क्षत-विक्षत जीप बची जिसके यह ड्राइवर थे. वहां इन्हें एहसास हुआ कि
ईश्वर ने यदि केवल इन्हीं को बचाया है तो कोई न कोई कारण अवश्य होगा !
छुट्टी मिली तो रेलवे प्लेटफार्म पर विवेकानंद मिल गए…स्वामी विवेकानंद…एक पुस्तक
में. उन्हें पढ़ा और अण्णा बदल गए. गांव की दुर्दशा देखी तो फौज को त्यागपत्र दे
दिया. कुछ हजार रकम(शायद बीस हजार थी) लेकर घर आए तो सोचा शुरूवात कहां से हो ?
गांव का मिलन स्थल मंदिर ही होता है, सो उसी को सुधारने की सोची. कोई साथ आने को
तैयार नहीं किंतु जब अपने ही पैसे से मुट्ठी भर आदमियों के साथ अण्णा को मंदिर के
जीर्णोद्धार में जुटे देखा तो गांव वाले चौंक गए, प्रभावित हुए और अण्णा से जुड़
गए. श्रमदान के लिए एक घर से एक व्यक्ति मांगा गया और मंदिर तो बना ही (जिसके एक
कमरे में आज भी अण्णा रहते हैं) गांव की सड़कें भी बनी, उनमें ‘अंडर ग्राउंड
ड्रेनेज सिस्टम’ भी बने, यहीं कारण कि रालेगण-सिद्धी की गलियां गीली नहीं रहतीं, उन
पर कीचड़ नहीं रहता जो हमारे समूचे भारत के गांवों की गलियों का ‘प्रतीक चिह्न’ हुआ
करता है. गलियों में सौर-ऊर्जा से जलने वाले बिजली के खंभे हैं…इत्यादि… और हां,
गांव के घरों में हमने ताले लगते नहीं देखे, सारे घर चौबीस घंटे खुले ही रहते हैं.
श्रमदान के असली महत्व का फल ग्रामीणों ने तब चखा, जब ऊपर के पहाड़ों से लेकर गांव
की बाहरी सीमा तक अण्णा ने कई छोटे-छोटे बांध बना दिए. गांव का पानी बहकर, बरसात
में, अत्यंत वेग से, दूसरी जगहों पर चला तो जाया ही करता था, अपने साथ गांव की
मिट्टी भी बहा ले जाता था; बांध बने तो गांव का पानी और मिट्टी, दोनों रूक गए.
कुंओं में जल-स्तर बढ़ा, गांव में पानी आया और फसल महकने लगी. सिंचाई के पानी की
मांग इतनी बढ़ी कि अण्णा को राशन कार्ड बनाने पड़े. फसल हुई तो पेट भरे, पेट भरे तो
अण्णा ने गांव वालों के सामने एक प्रश्न फेंका, खेतों में पानी आ गया और आंखों पानी
नहीं आया तो वह मर्द कैसा? मैंने उनके स्कूल के एक बड़े हॉल में एक आदमकद आइने में
ऊपर की ओर यह सुक्ति भी लिखी देखी, ‘तेरे दया-धरम नहिं मन में, मुखड़ा क्या देखे
दर्पण में!’
इस प्रश्न के उत्तर में गांव वालों के सहयोग से उन्होंने ग्राम-वासियों के लिए एक
‘ग्रेन-बैंक’ खोला. हर घर में हर फसल पर थोड़ा-थोड़ा अन्न इकट्ठा करना प्रारंभ किया
जो जरूरतमंदों को ऋण अथवा अनुदान के रूप में मिलने लगा. यहां तक कि आस-पास के गांव
वाले भी आने लगे. आज इस ‘ग्रेन बैंक’ में अनाज के बोरों पर बोरे अटे पड़े हैं.
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अंध विश्वासों पर भी अण्णा ने काम किया. एक आदमी जो अपने शरीर पर देवी बुलाकर
ग्रामीणों को ठगा करता था, उसकी सरे-आम किसी पौधे की हरी संटियों से पिटाई कर उसकी
पोल खोली और गांव वालों को अंध विश्वास से मुक्त किया. एक होली पर सबने मिलकर
निश्चित किया (उस समय गांव की सरपंच एक महिला ही थी) कि होली में गांव की दुकानों
का सारा तंबाकू और सिगरेट-बीड़ी इकट्ठा कर उसकी होली जलाई जाए और उस होली के बाद
गांव में तंबाकू आदि नहीं बिकता, न कोई पीता-खाता.
तभी अण्णा ने एक विद्यालय और छात्रावास भी खोला जो महाराष्ट्र के ऐसे बच्चों के लिए
था जिन्हें कहीं और दाखिला नहीं मिलता, मसलन शरारती, अपराधी वृत्ति वाले अथवा
लगातार फेल होते रहने वाले बच्चे. पढ़ते हुए बच्चे तो हमने नहीं देखे किंतु कोई
बच्चा हमने रोगी अथवा अस्वस्थ नहीं देखा. तंदरूस्त, चाक-चौबंद बच्चे दिन निकलने से
पहले उठकर सामूहिक व्यायाम करते, परिसर की सफाई करते,पौधों और वृक्षों में पानी
लगाते और अभ्यास के लिए अपने-अपने वृक्ष के नीचे बैठ जाते क्योंकि हर बच्चे के पास
देखभाल के लिए एक वृक्ष था. सौर-ऊर्जा से उनके नहाने के लिए गर्म पानी मिलता, उनके
दाल और चाववल पकते, कमरों उजाला होता…सब्जी और ज्वार की भाखरी(रोटी)नीचे महिलाएं
मिट्टी के तेल की भट्टियों पर बनातीं जिससे लकडिय़ों की आवश्यकता न पड़े. बच्चों के
लगाए हुए वृक्षों से, इसीलिए रालेगण-सिद्धी आच्छादित था…इन सभी कार्यों के लिए
अण्णा ने आर्थिक सहायता भी अपने ग्राम के लिए जुटाई.
ये थे तब के अण्णा. लालबहादुर शास्त्री से मिलते-जुलते अण्णा. विवेकानंद से
प्रभावित अण्णा. गांधी का स्वप्न साकार करते अण्णा.
आज के अण्णा ने बहुत बड़ा दायित्व-बोझ संभाल लिया है…संभाल पाएंगे क्या-समय बताएगा
किंतु गांव एवं शहर की युवा-पीढ़ी की आंखों में आई-चमक से भय लगता है. उनके स्वप्न
भंग होने का भय लगता है. आसपास के स्कूलों से कतार बांध कर आए स्कूली बच्चों के
उत्साह और आश्चर्य से भय लगता है…युवा-पीढ़ी द्वारा अण्णा में विश्वास का कारण
जानकर और भी भय लगता है, वे कहते हैं-‘’ हमने गांधी को तो नहीं देखा किंतु वह कैसे
होंगे, हम अण्णा को देखकर जान सकते हैं.’’ या फिर उन तालियों और नारों पर भी नजर
दौड़ जाती है जिन पर लिखा है या जिन्हें सुना है- "अण्णा नहीं आंधी है-आज का गांधी
है."
अण्णा के लिए शुभकामनाएं, अच्छा लगता है किंतु यह देश की भावी पीढ़ी की आंखों में
बस गए निर्दोष, निष्पाप और सच्चे सपनों का सवाल है. ये स्वयं उस कच्ची उम्र के हैं,
जिन्हें कच्चे घड़े की तरह पानी में ढहते देर नहीं लगती. उम्रवालों की मुझे परवाह
नहीं, वे राजनीतिज्ञ हों कि सामाजिक कार्यकर्ता अथवा खासोआम इंसान. इन्होंने बहुत
से आंधी-तूफान देखे हैं, न जाने कितने सावन आए और ये औंधे घड़ों की तरह पड़े रहे.
अधिकतर जैसे थे-वैसे ही हैं किंतु ये मासूस, मुलमुले. आंखे खोलते ही ये
‘अण्णा-गांधी’ को देख रहे हैं मानो वेद-पुराण में ‘यदा-यदा हि धर्मस्य...’ वाले
अवतार के बारे में पढ़ा हो और अचानक वह इनके सामने आ खड़ा हो.
अण्णा के उपवास छोडऩे के बाद से ही जो नाटक हो रहे हैं, उनके बारे में तो आप जानते
ही होंगे-‘कमेटी में ये क्यों नहीं, ये क्यों...?‘, ‘एक जन-लोकपाल के बन जाने से
कुछ नहीं होने वाला’, ‘भ्रष्टाचार के बिना, काले-धन के बिना, अण्णा पार्टी चला के
दिखाएं’, ‘अण्णा कहीं भी-किसी भी चुनाव में शरद पवार को हरा कर दिखाएं‘, ‘अण्णा ने
कुछ मुख्यमंत्रियों की तारीफ क्यों कर दी’ आदि-आदि.
गांव बसते ही लुटेरे आने प्रारंभ हो गए हैं. मैं स्वयं भविष्य को लेकर शंकित हूं.
बिसात बिछ गई है, पासे पड़ चुके हैं, जाने कौन जीते. मैं भी देख रहा हूं, देश की
भावी-पीढ़ी, नौजवान लडक़े-लड़कियां, स्कूली बच्चे सभी टकटकी लगाए देख रहे हैं. सब
अण्णा के सद-उद्देश्य के साथ हैं किंतु ईमानदारी से कहूँ तो मेरे जैसे न जाने कितने
हैं जिनके मन में यह प्रश्न भी है, ‘’ देखे क्या होता है ! ’’
18.04.2011, 20.56 (GMT+05:30) पर प्रकाशित
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| इस समाचार / लेख पर पाठकों की प्रतिक्रियाएँ | | | Sunil [] Singapore - 2011-08-15 08:31:22 | | |
I salute this solder. God give him strength. We all are with him. | | | | | | deepak [dganbavale@gmail.com] pune - 2011-07-15 06:21:55 | | |
WE MUST MASSIVE SUPPORT TO ANNA TO PURIFY OUR COUNTRY FROM FRODS OF POLITICIANS . | | | | | | Rashmi Verma [] - 2011-04-21 04:27:05 | | |
What will happen next? Definitely this is a big question in front of us, but as Anna Hazare has done a tremendous job and proved himself \"Aaj Ka Gandhi\" by his deed. We should hope that his efforts will not go in vain. Well, I must say... its really a thought provoking article | | | | | | namish [] - | | |
Lokpal Bill
The National Advisory Council (NAC) took a decision on February 26, 2011 to examine the Lokpal Bill by the Transparency, Accountability & Governance Working Group. The NAC Working Group on Transparency, Accountability and Governance held its first consultation with civil society groups on the Lokpal Bill under the convenership of Smt. Aruna Roy on 4th April, 2011. The meeting discussed the draft prepared by various people’s movements and groups. After exhaustive discussions, there was consensus on most of the general principles underlying the draft Bill, though some provisions need to be examined further. The NAC WG on TA & G, will finalize the principles and framework, on the basis of this discussion. Another meeting of the WG is scheduled before the National Advisory Council meets on April 28, 2011. The attendees included S/Shri/Ms: Shanti Bhushanji, Prabhat Kumar, Aruna Roy, Trilochan Sastry, Jagdeep Chhokar, Kamal Jaswal, Zaware, Santosh Hegde, Narendra Jadhav, Nikhil Dey, Shekhar Singh, Vrinda Grover, Harsh Mander, Wajahat Habibullah, Arvind Kejriwal, Swami Agnivesh, Sarvesh Sharma, Usha Ramanathan, Amitabh Mukhopadhyay, Santosh Mathew, Shanti Narain, Prashant Bhushan, Sandeep Pandey and members of the NAC Secretariat | | | | | | t.khan [chemistrywala@gmail.com] bijnor - | | |
ये जो कुछ लोग फिरते हैं फरिश्तों जैसे
अन्ना के हाथों चढ़ जायें तो इंसान बन जायें. | | | | |
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