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आंदोलन बनाम राजसत्ता
बहस
आंदोलन बनाम राजसत्ता
ईश्वर दोस्त
जनलोकपाल विधेयक के लिए हुए आंदोलन ने निश्चित ही अतिरेक पैदा किया. एक तरफ मीडिया
का अतिरेक तो दूसरी तरफ आंदोलन की आलोचना का जवाबी अतिरेक. जितना अनपेक्षित
जनसमर्थन, उतनी ही अनपेक्षित आलोचना. यह स्वाभाविक है कि सत्तारुढ़ दल की ओर से
दिग्विजय सिंह जैसे चुनिंदा नेता और अमर सिंह जैसे उनके नए दोस्त ही नहीं सहयात्री
बुद्धिजीवी भी मैदान में उतरें. भाजपा के इस आंदोलन को भुनाने की संभावना से भयभीत
और मुख्यत: धर्मनिरपेक्षवादी कार्रवाई तक सीमित बुद्धिजीवियों का भी इसके विरोध में
आना स्वाभाविक था.
अचरज आलोचना पर नहीं है. इस आंदोलन के अंतर्विरोधी चरित्र, भ्रमों, राजनीति की
सीमित समझ और मीडिया के सरलीकरणों की खबर जरूर ली जानी थी. मगर अचरज तब होता है जब
परिवर्तन के हामी समझे जाने वाले बुद्धिजीवी नवउदारवादी राजसत्ता के पक्ष में बोलने
लगें. अन्ना की आलोचना तो ठीक है पर ऐसा करते हुए सत्ता और व्यवस्था का पक्षधर बन
जाने की मजबूरी या बेचैनी को समझ पाना आसान नहीं है.
अन्ना के बहुत से समर्थकों और आंदोलन की लोकप्रियता को भुनाने की कोशिश करते मीडिया
को भी पिछले पंद्रह दिनों में शायद समझ आया होगा कि अन्ना सिर्फ अन्ना हैं. न गांधी
न जयप्रकाश. अन्ना के अंतर्विरोध और कमियां उनकी अपनी हैं.
गांधी और जयप्रकाश अलग ऐतिहासिक राजनीतिक मोड़ की उपज थे. कोई बड़ा आंदोलन किसी एक
शख्सियत के भीतर से नहीं उपजता. मगर क्या इस आंदोलन की शिनाख्त अन्ना और इस आंदोलन
में सामने दिखाई दे रही कुछ और शख्सियतों तक सीमित की जा सकती है? या फिर यह देश की
मौजूदा व्यवस्था में संस्थागत रूप से जड़ जमाए हुए भ्रष्टाचार के खिलाफ लंबे समय से
सुलगते आ रहे जनाक्रोश की अभिव्यक्ति भी था? इस प्रश्न का उत्तर काफी हद तक यह तय
करता है कि कोई इस आंदोलन के प्रति धुर विरोधी रवैया, या आलोचनात्मक समर्थन या फिर
अंधसमर्थन का रुख अपनाएगा.
शायद सार्वजनिक दायरे में अन्ना के आंदोलन की राज्यवादी आलोचना की शुरूआत हुई सेंटर
फॉर पालिसी रिसर्च के अध्यक्ष प्रतापभानु मेहता के एक लेख से. मेहता एक मेधावी युवा
राजनीतिक चिंतक और अंग्रेजी में मंजे हुए लेखक हैं. उनकी तारीफ करनी होगी कि वे
नवउदारवाद के अपने समर्थन और आरक्षण या ओबीसी गणना के विरोध को छिपाते नहीं हैं. इस
लेख में भूख हड़ताल को बलप्रयोगयुक्त नैतिक शक्ति और ब्लैकमेल बताया गया. जनता के
स्वनियुक्त सरपरस्तों की कानून निर्माण की जिद को प्रतिनिधि लोकतंत्र के लिए खतरा
ठहराया गया. बाद में उनके इस लेख की भाषा ब्लॉगों, अखबारों और फेसबुक के लेखों और
टिप्पणियों में चक्कर लगाती रही.
ऐसी टिप्पणियां भी पढ़ने को मिलीं, जिनमें एक सांस में अन्ना की भूख हड़ताल के
ब्लैकमेल को कोसा गया तो दूसरी सांस में इरोम शर्मिला की भूख हड़ताल की उपेक्षा पर
दुख जताया गया.
सत्ताधारी वर्ग आंदोलन के भूख हड़ताल या बंद जैसे तरीके को ब्लैकमेल बताए तो बात
समझ आती है, मगर खुद को अन्ना से ज्यादा क्रांतिकारी साबित करने पर तुले लोग यही
कहें तो उनके इरादे पर शक होता है. भूखहड़ताल, बंद या इस तरह का कोई भी कदम सत्ता
का ध्यान आकर्षित करने और उसे बातचीत की टेबल पर लाने के लिए ही किया जाता है.
‘असली क्रांतिकारी’ भी जब यह करते हैं तो मकसद सत्ता से अपील करना होता है. आंदोलन
के इन तरीकों को ब्लैकमेल ठहराना सत्ता की उच्चतम किस्म की चाटूकारिता है.
दस साल से इरोम की आवाज को नहीं सुना गया तो इसकी जिम्मेदारी साफ तौर पर केंद्र
सरकार पर पहले काबिज भाजपा और अब कांग्रेस और मणिपुर की गद्दी पर भी 2002 से बैठी
हुई कांग्रेस की सरकार पर जाती है, मगर विश्लेषणों को पढ़ें तो लगता है कि इरोम की
बातों की अनसुनी के लिए दूर रालेगांव सिद्धी नाम के गांव में बैठे अन्ना और दूसरे
कार्यकर्ता ही जिम्मेदार हैं. कांग्रेस और उसके पिट्ठुओं को निर्लज्जता के साथ
ब्लैकमेल आदि के तर्क देते रहने चाहिए और आंदोलनकारियों को शर्म से गड़े रहना
चाहिए! यह भुला दिया गया कि इसी आंदोलन में ऐसे लोग शामिल थे, जो उन दूसरे आंदोलनों
में भी शामिल हैं, जिनकी उपेक्षा सरकार लगातार कर रही है.
यह भी पूछा गया कि अन्ना तब कहां थे जब विदर्भ में किसान आत्महत्या रहे थे? यह
नैतिक चाबुक दरअसल कहीं भी फटकारा जा सकता है. तब आप कहां थे जब...इसके बाद अंतहीन
दुखदर्द जोड़े जा सकते हैं. मानों दोष उनका है जो किसी एक की तकलीफ को लेकर या किसी
एक समस्या को लेकर आंदोलित हो गए. आततायी और शोषक नहीं बल्कि आंदोलनकारी जवाब दें
कि या तो वे देश भर के तमाम मजलूमों के दुखदर्द के बारे में भगवान की तरह
सर्वव्यापी होकर काम करें या फिर कुछ ही लोगों या कुछ ही मुद्दों में अपनी ताकत
लगाने के पाप के लिए शरमाते फिरें. और बुद्धि के शीशमहलों में बैठे टिप्पणीबाज
पूछताछ करते रहें.. तब आप कहां थे? तब आप कहां थे? और अब आपको फलाना आंदोलन करते
हुए शर्म नहीं आ रही है?
जैसे मीडिया ने बाजारोत्तेजित होकर भ्रष्टाचार के खिलाफ एक छोटी सी अंगड़ाई को
क्रांति और जंतर-मंतर को टीआरपी का मंतर फेर कर तहरीर चौक बना दिया, वैसे ही
ब्लॉगवीर हर आंदोलनकारी के सुपरमैन होने की कल्पना के पूरा न होने पर सिनीसिज्म की
तलवार भांजने लगते हैं. यह दर्द आमूलचूलवादियों का भी है. इंकलाब की कल्पना में
कंपकपाते हुए वे सीमित संस्थागत सुधार के हर आंदोलन को शक्की नजर से देखने के लिए
अभिशप्त हैं.
राजसत्ता की हिफाजत में सन्नद तर्कों को कभी भी इरोम शर्मिला जैसे महान संघर्ष के
उपकरणवादी इस्तेमाल पर दुविधा नहीं होती. वे इरोम शर्मिला के संघर्ष की उपेक्षा का
ठीकरा भी नागरिक समाज के सिर पर फोड़ना चाहते हैं. एक क्षण को वे नहीं सोचते कि
शर्मिला का संघर्ष भी नागरिक समाज का हिस्सा है, और वह भी उसी ‘चुनी हुई’ (!)
राजसत्ता से टकरा रहा है, जिसके पक्ष में पिछले दिनों क्रांतिकारी बौद्धिक तबका
सरकार से ज्यादा सरकारी हो गया.
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वैसे इन बहसों में ‘अट भी मेरी पट भी मेरी’ की तर्क पद्धति हावी रहती है. एक तरफ
अन्ना के आंदोलन को सत्ता और राजनीतिक तंत्र के खिलाफ माना गया, दूसरी तरफ आरोप
लगाया गया कि आंदोलन को सत्ता ने समिति का झुनझुना पकड़ा कर जज्ब कर लिया है. एक
तरफ भाजपा का एजेंट होने का आरोप, दूसरी तरफ कांग्रेस से भीतरी समझौते के आधार पर
चार दिन के आंदोलन का नाटक रचने का आरोप. मध्यवर्ग आंदोलन में न आए तो मुसीबत, चला
आए तो मुसीबत, चला जाए तो मुसीबत. आंदोलन चार महीने खिंच जाए तो मुसीबत, चार दिन
में उसकी सुन ली जाए तो मुसीबत. भ्रष्टाचार जनता के बीच मुद्दा न बन पाए तो मुसीबत,
मुद्दा बन जाए तो मुसीबत. मीडिया आंदोलन का साथ न दे तो मुसीबत, साथ दे तो मुसीबत.
जिस तरह से आनन-फानन में अन्ना को भाजपा या कांग्रेस या फिर दोनों का एंजेंट घोषित
कर दिया गया, वैसी तर्क पद्धति को बुद्धिजीवियों के अन्ना विरोध को समझने के लिए
इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए. लोकतंत्र में किसी पक्ष का समर्थन करने पर उसका
एजेंट घोषित किया जाना सरलीकरण है. हालांकि यह बौखलाए मन को तुरत राहत और कुछ मजा
देता है. षड़यंत्र सिद्धांत की अपनी मनोवैज्ञानिक उपयोगिता है. सबूतों के बगैर महज
अनुमानों के आधार पर बड़ी निष्पत्तियों का सुख है. लोकतंत्र में आखिर सभी को किसी
का एजेंट हुए बिना किसी न किसी का पक्ष लेने या किसी का पक्ष न लेने या किसी दूसरे
पक्ष का विरोध करने की आजादी है. इसलिए अन्ना का विरोध करते हुए सरकार और व्यवस्था
के स्वर में स्वर मिलाए जाने के पीछे किसी साजिश को नहीं ढूंढा जाना चाहिए. मामला
मेहता जैसे विश्लेषणकर्ताओं के तर्कों को अचेतन रूप से कबूल करने का भी नहीं है.
बल्कि राज्यवादी टिप्पणियों के पीछे लोक भावना और लोकतंत्र पर आंतरिक विश्वास की
कमी ही नजर आती है.
नागरिक समाज बनाम लोकतंत्र के द्वैत का सवाल बड़े पैमाने पर उठाया गया है. क्या ऐसा
कोई द्वैत है. क्या नागरिक समाज और उसकी कार्रवाइयां लोकतंत्र की हद के बाहर हैं?
क्या लोकतंत्र चुनाव और संसद तक सीमित है? क्या नागरिक समाज की सक्रिय पहलकदमियों
के बगैर स्वस्थ लोकतंत्र की कल्पना की जा सकती है? क्या लोकतंत्र में नागरिक को
हमेशा ‘चुनी हुई’ राजसत्ता या चुने हुए प्रतिनिधियों का पक्ष लेना चाहिए? आज के दौर
में स्वयं राजसत्ता और लोकतंत्र के रिश्ते कैसे हैं?
भूमंडलीकरण के दौर के बाद एक बड़ा परिवर्तन यह हुआ है कि नवउदारवाद राजसत्ता का
आंतरिक तर्क बन कर उभरा है. सवाल इस या उस पार्टी की सरकार का नहीं, सरकार मात्र का
हो गया है, चाहे वह भाजपा, कांग्रेस हो या चंद्रबाबू नायडू, नवीन पटनायक, चौटाला,
करूणानिधि, जयललिता, मायावती, बुद्धदेव भट्टाचार्य, सभी सरकार के बाहर नवउदारवाद
विरोधी और सरकार में आते ही नवउदारवाद के कहार हो जाते हैं. पिनराई विजयन के बावजूद
वाम मोर्चो की सरकारों को यदि अलग कर दें तो पिछले दौर की तमाम राज्य और केंद्र
सरकारों में एक भी ऐसी नहीं बचेगी जो स्वयं भ्रष्टाचार की गंगोत्री न हो.
समाज शब्द के अनेकों प्रयोगों और अर्थस्फीति की वजह से शायद ‘नागरिक समाज’ शब्द को अंगीकार करना बुरा नहीं है. |
भारत में भ्रष्टाचार की राजनीतिक अर्थव्यवस्था के पनपने का एकमात्र कारण पूंजीवाद
या औपनिवेशिकता नहीं है, जैसा कि अक्सर समझाया जाता है. तमाम पूंजीवादी देशों में
भ्रष्टचार के स्तर में काफी फर्क है. इसके साथ के कारणों में भारत के सियासी तंत्र,
कानूनी तंत्र, आधुनिक संस्थाओं में लोक की ओर से और नाम पर अभिजनों का ऐतिहासिक
अधिपत्य और स्वायत्त लोकतांत्रिक संस्थाओं का सामाजिक, जातिगत, वर्गीय चौधराहटों का
शिकार होना मुख्य हैं. लोक का प्रतिनिधि बनना, अगर जनआंदोलनों और नागरिक समाज का
सक्रिय दबाव न हो, इसी ताकतवर समूह के रासरंग में भागीदारी का न्योता साबित होता
है.
नवउदारवाद के दौर में बहुमत से चुनी गई सरकारें जनता के हित के ऊपर कारपोरेट घरानों
के हित को रखती हैं. अधिकतर ऐसे आर्थिक और सामाजिक फैसले होते रहते हैं जिन्हें
जनमत संग्रह में शायद ज्यादा वोट न मिलें. ऐसे समय में नागरिक समाज की भूमिका
महत्त्वपूर्ण हो जाती है.
हालांकि मुश्किल यह है कि नागरिक समाज की शास्त्रीय समझी जानी वाली हेगेल, मार्क्स,
मिल और ग्राम्शी आदि की प्रस्थापनाओं के मुकाबले में विश्व बैंक ने अपनी प्रस्थापना
भी उतारी हुई है. मगर जिस तरह नवउदारवाद की जकड़ में फंसा लोकतंत्र अभी अप्रासंगिक
नहीं हुआ है, उसी तरह हमारे सामने कोई मजबूरी नहीं होनी चाहिए कि हम विश्व बैंक और
अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के आगे घुटने टेकते हुए फकत एनजीओ और नागरिक समूहों को
नागरिक समाज मान लें. जो ऐसा कर नागरिक समाज को गरिया रहे हैं, वे जरूरी भाषायी
संघर्ष से मुंह चुरा रहे हैं. नागरिक समाज को महज समाज बोलने के रोमान से भी शायद
मुक्त रहना चाहिए. यह ठीक है कि जब समाज राज के बरक्स आता है तो उसका अर्थ काफी हद
तक नागरिक समाज होता है. मगर समाज शब्द के अनेकों प्रयोगों और अर्थस्फीति की वजह से
शायद ‘नागरिक समाज’ शब्द को अंगीकार करना बुरा नहीं है.
लोकतंत्र की एक औपचारिक समझ यह है कि जनता पांच साल में एक बार फैसला करे और फिर सब
कुछ उस व्यवस्था के हाथ छोड़ दिया जाए, जिसमें चुने गए प्रतिनिधि ही नहीं, बिना
चुनी गई नौकरशाही भी है, जिसकी सांठगांठ पैसे, जाति और दूसरी सामाजिक ताकतों के साथ
है. हमारा जनतंत्र प्रत्यक्ष भागीदारी का जनतंत्र नहीं, बल्कि उदारवादी प्रतिनिधि
जनतंत्र है, जो चुने गए प्रतिनिधियों और बिना चुने गए नौकरशाहों, न्यायधीशों,
प्रेस, सार्वजनिक दायरे से मिल कर बनता है.
पूंजीवादी लोकतंत्र राजनीतिक और आर्थिक दायरे और साथ ही विधानपालिका, कार्यपालिका
और न्यायपालिका के अलगाव पर आधारित है. यह अलगाव जहां शक्ति संतुलन खड़ा करता है,
वहीं परदे के पीछे सांठगांठ करने और आर्थिक, सामाजिक रूप से ताकतवर वर्ग के पक्ष
में नीतियां बनवाने और अमल करवाने की गुंजाइश पैदा करता है. इस व्यवस्था में
कारपोरेट घरानों से लेकर छोटे-मोटे दलालों तक को बड़ा सुभीता है.
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जाहिर है, हमारे मौजूदा लोकतंत्र में ऐसा बहुत कुछ है, जिसे चुना नहीं जाता. और
इसीलिए लोकतंत्र के और लोकतंत्रीकरण का कार्यभार सामने है. मगर अन्ना के आंदोलन पर
गैर-चुने होने का हंटर काफी चलाया गया. मजेदार बात यह है कि चुने हुए न होने का
उलाहना देने वाले प्रतापभानु मेहता जैसे कुछ अनिर्वाचित बुद्धिजीवी स्वयं
नीति-निर्माण के धंधे से जुड़े हुए हैं.
कानूनों के पहले मसौदे आम तौर पर नौकरशाह बनाते हैं, जिनके आधार पर जनप्रतिनिधि
बहस, संशोधन और अंतत: फैसला करते हैं. कानूनों को पारित करने का हक चुने हुए
प्रतिनिधियों को ही है. बहुत से अर्थव्यवस्था संबंधी कानूनों के लिए कारपोरेट
घरानों और फिक्की जैसी संस्थाओं से मशविरे और प्रारूप पहुंचते हैं. राजसत्ता पर कसे
गए नवउदारवादी शिकंजे के बाद विश्व बैंक और उनके बौद्धिक संस्थान भी कानूनों का
मसौदा मुहैया कराते हैं और जम कर पैरवी करते हैं.
इसके अलावा देश में ही सेंटर फॉर पालिसी रिसर्च, इंस्टीट्यूट ऑफ पीस एंड कान्फलिक्ट
स्टडीज जैसे थिंक टैंक हैं. विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों से जुड़े
बुद्धिजीवियों की सेवाएं भी कानून और नीति निर्माण में ली जाती है. ज्यादातर
संस्थान राज्यवादी सोच (जो पहले नेहरूवादी थी, अब बदल रही है.) के हैं. भाजपा जब आई
तो उसने नए संस्थान बनाने और पुराने में येन-केन प्रकारेण अपने लोगों को भरने की
कोशिश की थी. कानून निर्माण में नागरिक समाज के प्रतिनिधियों की भागीदारी काफी
पुरानी है. यूपीए के शासन में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के नाम से नया प्रयोग किया
गया.
यह सब कहना इसलिए जरूरी हो गया है कि जहां तक कानून निर्माण का प्रश्न है, उसमें
नियम के तौर पर बिना चुने हुए लोगों की भागीदारी भी होती है. हालांकि इसी बीच कुछ
ऐसे संस्थान भी उभरे हैं, जो मोटे तौर पर कानून व नीति निर्माण के मामले में जनता
की तरफ से पैरवी करते हैं.
सामाजिक आंदोलनों और ऐसे संस्थानों में कुछ हद तक मुद्दा आधारित तालमेल भी होता है.
इसी तरह का तालमेल कुछ शोध संस्थानों, बुद्धिजीवियों और जनआंदोलनों के बीच होता है.
वाम पार्टी का पुराना मॉडल ऐसा था कि पार्टी के पास काफी संबद्ध बुद्धिजीवी रहते थे
जो पार्टी लाइन के दायरे में नीतियां बनाने और उन पर बहस करने में पार्टी की मदद
करते थे. मगर पार्टियों के आंतरिक जनतंत्र के और छीजने, बुद्धिजीवी की स्वायत्तता
के प्रति अवमानना, हर नेता के खुद को लेनिन मानने की जिद आदि कारणों से पार्टियों
से बुद्धिजीवी काफी हद तक दूर हुए हैं.
यह मध्यवर्ग के एक हिस्से में ही प्रचलित तर्क है कि तानाशाही ही भ्रष्टाचार का इलाज है और लोकतंत्र में तो भइया भ्रष्टाचार रहेगा ही. |
राष्ट्रीय सलाहकार समिति को यदि नया प्रयोग माना जा सकता है तो जनलोकपाल विधेयक के
लिए बनी समिति को क्यों नहीं? कानून का मसौदा बनाने से संसद की सर्वोच्चता कहां भंग
होती है? सूचना का अधिकार, वनाधिकार कानून आदि का पिछला अनुभव यह रहा है कि निहित
स्वार्थी तत्त्व पैने कानून को भोंथरा बनाने की पुरजोर कोशिश करते हैं. सूचना
अधिकार में अगर नौकरशाही ने अड़ंगा लगाया तो वनाधिकार में वन विभाग, पर्यावरण
पर्यटन- वन्यजीव लॉबी और कारपोरेट लॉबी ने टांग फंसाई. जनलोकपाल में भी ऐसा ही कुछ
होगा, मगर इस मुद्दे के सोनिया गांधी की समिति की जगह एक सार्वजनिक आंदोलन के बाद
बनी समिति से संसद तक जाने में एक फर्क यह रहेगा कि इस पर ज्यादा लोगों की नजर
रहेगी. कानून निर्माण को बेजान और तकनीकी विधायी कार्रवाई होने से बचाने का एक
तरीका इसमें लोगों की दिलचस्पी पैदा करना है. संसद में पेश कानूनों पर राजनीतिक
दलों को जितनी दिलचस्पी लेनी चाहिए, उतनी वे नहीं ले रहे हैं. इसलिए कानून निर्माण
के प्रति सार्वजनिक दिलचस्पी पैदा करना इस प्रक्रिया का राजनीतिकरण करना ही हुआ.
जनआंदोलनों के चलते और जनआंदोलनों या मतदाताओं के कानून निर्माण में दिलचस्पी लेने
से लोकतंत्र कमजोर हो जाएगा, यह काफी विचित्र किस्म का तर्क है. यह जनमत, जनशक्ति
जैसी व्यापक अवधारणाओं को लोकतंत्र के मात्र एक अंग विधायिका का बंधक और पिछलग्गू
बना देना है. जनमत महज संसद, विधानसभाओं में हो रही बहसों का मोहताज नहीं हो सकता.
नागरिक समाज को विधायी अधिकार नहीं हैं, मगर मत-सम्मत के निर्माण और जनशक्ति के
प्रदर्शन और जनसंघर्षों के जरिए सरकार के सामने मांगे रखने और बातचीत के उसके हक की
हिफाजत जरूरी है.
नागरिक समाज की व्यापक अवधारणा में ट्रेडयूनियन, संघ-संगठन-संस्थाएं, मीडिया, दूसरे
सार्वजनिक दायरे, जनलामबंदी और एक व्यक्ति के तौर पर किसी नागरिक को मिले तमाम
संविधान सम्मत अधिकार शामिल हैं. इनमें ही नागरिक का राजसत्ता के नकार और उसकी
प्रताड़ना से हिफाजत का अधिकार भी शामिल है. नागरिक समाज के प्रतियोगी खुलेपन में
किसी को सचमुच अपने राजनीतिक कार्यक्रम की हार का अंदेशा हो सकता है. वामपंथ और
दक्षिणपंथ सदा एक-दूसरे से आशंकित रह सकते हैं. मगर इन आशंकाओं के चलते नागरिक समाज
को नियंत्रित करने, उसकी आवाज को दबाने की कोई भी कोशिश अंतत: स्वयं लोकतंत्र के
लिए अपशुकनी साबित होगी.
अन्ना के आंदोलन के विरोध में यथास्थितिवादी तर्क भी खूब उछाले गए. कोई भी नया
कानून या संस्था लोकतंत्र की भावनाओं के अनुरूप होना चाहिए, यह तो ठीक है मगर यह
कहना अजीब है कि अब सांस्थानिक सुधार की कोई जरूरत नहीं. यह तर्क भी दिए गए कि
भ्रष्टाचार महज मध्यवर्गीय मुद्दा है. यह तक कहा गया कि आखिर भ्रष्टाचार में बुराई
क्या है. स्टालिन और हिटलर भ्रष्ट नहीं थे. यह मध्यवर्ग के एक हिस्से में ही
प्रचलित तर्क है कि तानाशाही ही भ्रष्टाचार का इलाज है और लोकतंत्र में तो भइया
भ्रष्टाचार रहेगा ही.
कुछ शुद्धतावादी तर्क भी आए. आंदोलन में पहुंचने वालों के चरित्र को ललकारा गया?
मानो किसी जनआंदोलन के परिसर में सुरक्षा जांच की तरह की भ्रष्टाचार जांच के बाद
लोगों को अंदर आने की इजाजत हो. मध्यवर्ग के वर्ग चरित्र की जांच करने के पहले
हमारे ट्रेडयूनियन आंदोलन में शामिल मध्यवर्गियों के व्यवहार को ही देख लें. मगर
क्या हम यह मान लें कि मजदूर आंदोलन नहीं होने चाहिए. असली परेशानी यह है कि देश का
एक भी राजनीतिक दल ऐसा नहीं है जिस पर मध्यवर्ग का नेतृत्व हावी न हो. खातेपीते
क्रांतिकारियों का एक तबका भी, जो सबसे ज्यादा दिल्ली में मुखर है, उसी वर्ग से आता
है.
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आज नाउम्मीदी की क्रांतिकारिता में फंसने की जगह आशा के धुंधले और मुश्किल रास्ते
को चुनना जरूरी है. परिवर्तन की कोई राह ‘सब चोर हैं’, ‘भ्रष्टाचार से नहीं लड़ा जा
सकता’ और सिनीसिज्म या दोषदर्शनवाद से आगे जाकर ही मिल सकती है. नवउदारवाद दिन दूनी
रात चौगुनी तेजी से सिनीसिज्म और निराशा का धुंआ फैला रहा है, इसी से अराजनीति नामक
बीमारी पैदा होती है, जिससे मध्यवर्ग सबसे ज्यादा संक्रमित होता है. अगर इस बीमार
मध्यवर्ग का छोटा सा हिस्सा भी जनआंदोलनों के सार्वजनिक चिकित्सा शिविरों में आकर
स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करता है तो शुभ है.
यह नवउदारवादी निजाम की मुराद है कि लोग सिनीसिज्म, विकल्पविहीनता, हर चीज के
अधूरेपन की भर्त्सना में और बाकी लोगों के नैतिक पतन पर तरस खाने में मशगूल रहें.
कुछ लोग यह भरम पाले बैठे हैं कि मध्यवर्ग के भाग में प्रतिक्रियावादी भूमिका ही
बदी है, क्योंकि आमूलचूलवादी बुद्धिजीवियों ने इसी तरह की कुंडली बनाई है. हो सकता
है कि मध्यवर्ग राजनीति में काफी अगर मगर और नाज नखरों के साथ आए, इसलिए उसे कोसना
सरल, मगर उससे राजनीतिक संवाद कायम करना कठिन है.
नागरिक समाज खुद राजनीति की जद से बाहर नहीं है. यह अलग बात है कि वह निष्क्रिय
राजनीति झेलता रहे और सक्रिय राजनीति में कम भागीदारी करे. यह भी याद रखना होगा कि
गैर-राजनीति कोई ऐसी चीज नहीं है जो राजनीति के बाहर से उपजती और पल्लवित होती हो.
गैर-राजनीति का जन्म जहां एक और पूंजीवादी लोकतंत्र के अधिकारों और शक्तियों के
पृथक्ककरण के सिद्धांत और राजनीति से अर्थतंत्र की आजादी की लीला से तो दूसरी और
समाजवाद के नाम पर पसरे पार्टी अधिनायकवाद, दोनों से होता है. कई बार जब दलगत
राजनीति में राजनीति पिट रही हो तो नागरिक समाज का न्यूनतम राजनीतिक हो जाना जरूरी
होता है. नागरिक सियासी दलों से जुड़कर ही नहीं, राजसत्ता से टकराकर भी राजनीतिक
होते हैं. नागरिक समाज और दलीय राजनीति दोनों एकरूपीय नहीं हैं. दोनों के भीतर गहरे
विभाजन और टकराव हैं. दोनों में परस्पर आच्छादन भी है. नरेंद्र मोदी और भाजपा चुने
हुए हैं, वहीं मेधा पाटकर और इरोम शर्मिला नागरिक समाज की लामबंदियों तक सीमित हैं.
इसलिए लोकतंत्र बनाम नागरिक समाज का सरलीकृत विभाजन ठीक नहीं है.
हाल तक नागरिक समाज के कार्यकर्ता भाजपा के नेताओं और बौद्धिकों के निशाने पर थे,
खास तौर पर धर्मनिरपेक्षता, मानवाधिकार, सामाजिक न्याय और प्राकृतिक संसाधनों के
मुद्दे उठाने वाले. भाजपा देश में भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन खड़ा करने में
मुख्य विपक्षी दल की हैसियत से नाकाम हुई तो इसकी वजह उसका खुद खास तौर पर कर्नाटक
में भ्रष्टाचार में फंसा होना है. अन्ना के आंदोलन से निश्चित ही भाजपा को उम्मीद
जगी होगी कि वह इस आंदोलन से उद्वेलित होती जनता को अपने पक्ष में कर सकती है.
इसीलिए उसने नागरिक समाज के प्रति अपने रुख को अवसरवादी ढंग से पलट लिया.
पापुलर में या मध्यवर्ग में या मीडिया में विचारों और मूल्यों का संघर्ष अभी खत्म नहीं हुआ है. |
भ्रष्टाचार विरोधी जनआंदोलन में भाजपा घुसपैठ करना चाहती है तो क्या प्रगतिशील,
सेकुलर ताकतों को नाराज होकर भ्रष्ट राजसत्ता का प्रहरी हो जाना चाहिए? यह लोकतंत्र
में वैधीकरण और वर्चस्व की रस्साकशी के प्रति निपट नासमझी और भ्रष्टाचार विरोधी
धरातल को भाजपा के हाथ सौंप देना होगा. आपातकाल के वक्त वामपंथ का एक हिस्सा सत्ता
का शागिर्द होकर सत्ताविरोधी मंच को अपने हाथ से निकल जाने देने की गलती कर चुका
है. सबक लेने के लिए पैंतीस बरस बहुत होते हैं.
आप आंदोलन में रहेंगे नहीं, कोई और आगे आएगा, फिर शिकायत करेंगे कि मुई जनता बिगड़ी
जा रही है. अपनी निजी जनता चुनने की भूल हमेशा महंगी पड़ती है. मध्यवर्ग को कोसना
जरूरी है, मगर यही करते रहने से क्या हासिल होगा? आज भी वामपंथ के पास
ट्रेडयूनियनों, कर्मचारी संगठनों, छात्र, युवा संगठनों के रूप में खासी तादाद में
मध्यवर्ग है? मगर संगठित क्षेत्र का मजदूर-कर्मचारी वर्ग गैर-राजनीतिक क्यों हो गया
है? उसकी राजनीति वेतन बढ़वाने तक क्यों सिमट कर रह गई है? वामपंथ लोकतंत्र के
सांस्थानिक सुधारों की लड़ाई में क्यों पिछड़ गया है?
मामला अन्ना विरूद्ध कांग्रेस का है भी नहीं. जनलोकपाल विधेयक में बनी समिति में
भाजपा की आंखों की किरकिरी बने संतोष हेगड़े शामिल हैं. मानवाधिकार और दीगर मामलों
में हाल में प्रशांत भूषण भी भाजपा सरकारों के लिए दिक्कततलब रहे हैं. वहीं आने
वाले दिनों में अलग-अलग दलों के अमर सिंह राजनीतिकों के बीच एकजुटता बनाने का बीड़ा
उठा सकते हैं. अन्ना के मोदी की तारीफ जैसे गैर-जिम्मेदार बयानों की आलोचना मुखर
होकर की जानी चाहिए. मगर राजसत्ता के चहेते बन कर नहीं.
मीडिया की आलोचना और उसके बाजारवादी अतिरेक की पहचान तो जरूरी है, मगर मीडिया के
निरूपण और वास्तविकता के फर्क को ओझल करने से ऐसे सरलीकरणों की तरफ जाने का खतरा है
कि ‘इजिप्ट में फेसबुक से क्रांति हो गई’. या मीडिया ने जादू से कोई आंदोलन पैदा कर
दिया. पुराना और नया मीडिया किसी राजनीति को लार्जर दैन लाइफ तो बना सकता हैं, मगर
वे उन सियासी अंतर्विरोधों को पैदा नहीं कर सकता जो किसी राजनीतिक घटना को जन्म
देते हैं. वह भ्रष्टाचार के संरचनात्मक सच, उसमें फंसी, तड़पती जिंदगियों को पैदा
नहीं कर सकता.
यह क्यों भुलाया जाता है कि जनलोकपाल विधेयक की फांस बयालीस साल पुरानी है, जब भारत
में दृश्य मीडिया शैशवकाल में था. किसी घटना को मीडिया में ही अपघटित कर देंगे तो
यह मीडिया की सर्वशक्तिमत्ता का प्रचार ही होगा. एक स्तर पर ब्लॉग, फेसबुक, मीडिया,
फिल्म सभी पापुलर संस्कृति हैं. पापुलर में या मध्यवर्ग में या मीडिया में विचारों
और मूल्यों का संघर्ष अभी खत्म नहीं हुआ है. जिन्हें लगता है खत्म हो गया है, वे
सचमुच मीडिया के शिकार हो गए हैं.
22.04.2011, 20.23 (GMT+05:30) पर प्रकाशित
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| इस समाचार / लेख पर पाठकों की प्रतिक्रियाएँ | | | manindra [manindrat@gmail.com] new delhi - 2011-04-30 18:45:55 | | |
ईश्वर भाई,
लेख के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई. मैं हिलाल के इस बात से सहमत हूँ कि लेख काफी विचारोत्तेजक है. सवाल अन्ना के समर्थन या विरोध का नहीं है. सवाल है इस मौके पर हो रहे विचार मंथन में भारतीय समाज के विभिन्न स्वरों को पहचानने की. खबर यह है कि एक बौद्धिक वर्ग में अन्ना का बेहद विरोध हुआ. धनंजय का विश्लेषण इस मायने में मुझे काफी हद तक सही लगता है. उसका मानना है कि दिल्ली के तथा कथित नागरिक समाज में ही विभाजन है. एक ग्रुप ऐसा है जिसे अन्ना से चिढ है. मुझे इस नागरिक समाज वाली भाषा तो समझ में नहीं आती है, शायद यह दिल्ली का मध्यम वर्ग है जो रूसो की ही तरह कुलीन और सामान्य जन के बीच झूलता है. गरीबी, भुखमरी को देखने से दिल दुखता है लेकिन सोने के समय अच्छी गाढ़ी और अच्छे घर के सपनों के साथ सोता है. कभी-कभी गरीबों के बारे में बातें कर, किसी प्रदर्शन में भाग लेकर या फिर गरीबी पर तकरीर देकर अपने अंदर के जमीर के करीब आने का प्रयास करता है. उनमें से जो लोग वर्त्तमान व्यवस्था से लाभ ले पा रहे हैं उनमें एक संतोष होता है इसलिए धीरे-धीरे गरीबों की याद उनके दिल से जाती रहती है. जिन्हें अभी उतनी सफलता नहीं मिली है उनके अंदर एक आक्रोश पनपता है. कभी- कभी अन्ना जैसे लोगों के साथ हो कर जिगर के इसी दर्द को चौराहे पर दिखा कर संतोष करते रहते हैं. कभी मोमबत्ती जला दिया, यात्रा कर ली, टीवी पर आ कर बहस कर लिया. लेकिन संघर्ष के लंबे रास्ते के प्रति किसी प्रतिबद्धता की उम्मीद करना शायद संभव नहीं है. इसलिए उनके लिए जंतर मंतर पर प्रजातंत्र का पिकनिक होता रहता है. और अपने इस पिकनिक को अपनी भाषाई क्षमता का उपयोग कर स्वतंत्रता आंदोलन ही घोषित कर देते हैं. लेकिन इनकी शक्ति को कम कर आंकना ठीक नहीं है. आज के युग में सामूहिक चेतना के निर्माण में इनका योगदान बहुत ज्यादा है. अपने ही वर्ग के कुछ लोगों को इस तरह ‘राह से भटकते देख’ बड़े बुध्ही जीवी बहुत चिंतित हो जाते हैं. और फिर प्रतिक्रियाओं का दौर शुरू होता है.
भारतीय बुद्धिजीवियों का एक वर्ग राजसत्ता के प्रति समर्पित है. राज्य की कोई विघटनात्मक आलोचना के बदले केवल सुधारात्मक आलोचना ही करना चाहता है. मुझे ‘नागरिक समाज’ के आंदोलनों पर बहुत भरोषा नहीं है, लेकिन यह भी तय है उसे नाकारा नहीं जा सकता है. भले ही उनका निर्माण भी शासक वर्गों के हित में किया गया हो, जनता से संवाद बनाये रखने के लिए. या फिर राज्य के प्रति बढते आक्रोश को कम करने के लिए हुआ हो. प्रश्न है कि इस असंतोष को, उसकी अभिव्यक्ति को परिवर्तनकारी जनांदोलनों में कैसे बदला जाये. कहीं एस न हो कि ढक्कन ढीला तकनिकी से बढते दवाब को इतना कम कर दिया जाये कि कुछ ठोस निष्कर्ष निकलने के पहले ही सब कुछ समाप्त हो जाये.
मेरे ख्याल से इस समय स्थापित सिद्धांतों से भारत के इस जटिल पारिस्थित को समझना संभव नहीं है. इसके लिए कुछ नए दृष्टिकोण की जरूरत होगी.
मणिन्द्र
| | | | | | manindra n thakur [manindrat@gmail.com] - 2011-04-29 17:21:49 | | |
ईश्वर भाई,
आपके लेख पर हिलाल और धनंजय के विचारों को भेज रहा हूँ.
manindra
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ईश्वर भाई
लेख विचारोतक है. बधाई. सविस्तार टिप्पणी के वायदे और व्यापक चर्चा की आशा के साथ
हिलाल
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प्रिय ईश्वर जी
आपका लेख पढ़ते हुए काफी कुछ जानने और उससे भी ज्यादा सोचने का मौका मिला. इस लेख में आपने काफी मुद्दे उठाते हुए, कुछ अनसुलझे हुए सवालो को उसी तरह छोडते हुए और ‘बुद्धिवादी’ आराजकता’ में भी एक उम्मीद खोजना और उम्मीद नहीं छोडने की कठोर कल्पना के साथ यह लेख बहुत कुछ कह जाता है.
जहा तक मैं या हम (मैं और हम का मतभेद और विवाद बहुत पुराना है) आज की स्थिति को समझ रहे हैं या प्रयत्न कर पा रहे हैं, लेख बहुत महत्वपूर्ण हो जाता हैं. मुझे लगता है कि तीन कारण महत्वपूर्ण तो रहे ही हैं. पहला मुद्दा है कि अन्ना का आन्दोलन (अगर यह उनका है या कहने के लिए भी है तो) एक व्यक्ति की अभिव्यक्ति तो नहीं ही समझी जा सकती है. दूसरा, सवाल उठाने की साथ–साथ (जो जरूरी भी हैं ) कुछ हो रहा है तो उसमें भागीदारी तो करनी ही चाहिए. यहाँ पर मेहता का इंडियन एक्सप्रेस में छापे लेख को समझा जा सकता हैं. अगर और कोई लेख के लेखक को नहीं जानता तो कहता कि लेखक ने क्या खूबसूरत ढंग से राजनीति और लोकतंत्र का बचाव किया है. यहाँ पर यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि क्या राजनीति और लोकतंत्र एक फिक्स कैटेगोरी है. मुझे लगता हैं कि बिलकुल नहीं. तब तो और भी जब मेहता इसको डिफेंड कर रहे हैं. सवाल हैं, लोकतंत्र और राजनीति को क्या संस्थानो से ही उधार लिया जाय या उनको ही बपौती माना जाये. नहीं . राजनीति तो सर्वव्यापक है. लेकिन प्रश्न तो पूछना ही चाहिए अन्ना और नागरिक समाज से कि दोस्तों आपकी ‘राजनीती क्या है’. पीछे लगा ‘भारत माता को पोस्टर’ , ‘रामदेव का सहज मिलन’ और भी बहुत कुछ जो वहां पर प्रत्यक्ष था. मैं यह नहीं कहना चाहता कि उनको नकारने है. बिलकुल नहीं क्योकि ये तो एक झलक हैं भारतीय परिदृश्य की.
तीसरा, वामपंथ का इस मुद्दे से क्या जुडाव रहा हैं या शायद होना चाहिए. भागीदारी तो बहुत जरूरी हैं. नहीं तो कोई और तो जगह लेगा ही. कुछ ‘क्षेत्रीय वामपंथी दल/दलो’ ने एक अजब सी रणनीति अपनायी हुयी है. उनके लिए किसी भी आन्दोलन में स्वाभाविक भागीदारी ही प्रथम उद्देश्य हैं. और यही क्रन्ति हैं. यह दुखद स्थिति हैं. मोदी तो बढ़ेगा ही ऐसे. भागीदारी के साथ राजनीति भी जरूरी हैं. अगर मात्र भागीदारी ही राजनीति हो जाती हैं तो बुरी स्थिति के लिए तैयार रहना चाहिए. राजनीति और खास तौर पर वामपंथी राजनीति को भागीदारी के साथ आन्दोलन की राजनीति और चरित्र बदलने पर भी जूझना होगा.
dhannjay
| | | | | | ambuj [] - 2011-04-28 04:44:06 | | |
Ishwarji I have read and re read your article on Aandolan Banam Rajsatta. I find that you have analyzed the concepts of Democracy, Polity, Peoples Movement, Media in the context of Jan Lok Pal Bill. It opens door to reflect on the vital issues of development, Law making and participation of Civil Society Organizations in its processes. The attention of Common people on Lok Pal through media and their participation gives a strong note to state and government not to take its people for granted. This article brings a debate about Lok Pal Bill, Anna in a serious manner. | | | | | | SHYAM [shym_aggarwal@yahoo.co.in] NEW DELHI - 2011-04-27 03:55:49 | | |
Article, content, analysis: everything is great.Anna may have many negative things but he must be appreciated for his efforts to highlight the issue and forced the government to take some sincere measures against the menace of corruption. Some so called intellectuals like Awara krantikari may not tolerate it as they are isolated despite their struggle against such issues.something is always better than nothing.
Dost, I just want to suggest you that it will be for effective if you use simple words while writing such valuable articles. Still I love the article. | | | | | | rajnish [rajps25@gmail.com] - 2011-04-25 11:42:40 | | |
@जनाब हिमांशु- मेरा कमेंट आवारा क्रांतिकारी नाम से यहां कैसे पेस्ट हैं, इसका राज आप बेहतर जानते होंगे। हां, ये सही है कि मैंने अपने नाम, यानी रजनीश से इस कमेंट को पेस्ट करने की कोशिश कर रहा था तो कई बार नहीं प्रकाशित जैसा कोई मैसेज आ रहा था। आखिरकार जब नहीं आया तो मैंने छोड़ दिया था। अब ये यहां आवारा क्रांतिकारी नाम से कैसे पेस्ट हुआ, ये मुझे नहीं पता। (हो सकता है अभी आपके जितना टेक्नो-फ्रेंडली नहीं हुआ हूं)। और अगर नाम छिपाने का इतना ही शौक होता तो ये राजेंद्र सिंह या रजनीश नाम आपके पास कैसे पहुंच गया। यह साइट की भी तकनीकी गड़बड़ी हो सकती है और मेरे कमेंट करने की प्रक्रिया की अज्ञानता भी। वहां मेरा नाम और ईमेल (जो भरना अनिवार्य होता है) भी पहुंचा होगा। उसमें एक विकल्प यह था कि क्या आप अपना ईमेल प्रदर्शित करना चाहते हैं तो मैंने हां में क्लिक किया था। फिर आवारा क्रांतिकारी से जो टिप्पणी है, उसमें ईमेल क्यों नहीं है। बहरहाल, मेरे अन्ना के खिलाफ बोलने को आप मुझे फांसी पर चढ़ा देने लायक सजा मानें। (अन्ना की विचारधारा (मोदी, राज ठाकरे औऱ हिटलर प्रसंग) के हिसाब से यह वाजिब भी है)। लेकिन मेरा नाम और ईमेल पहुंचने के बावजूद आप यह मुनादी कर रहे हैं कि मैं अपना नाम नहीं बताना चाहता। और आप जिस आरएसएस की बात कर रहे हैं, क्या उसे समझने लायक विवेक भी तैयार कर सके हैं आप? उसे छद्म युद्ध नहीं, सीधे लड़ने में महारत हासिल है और वह अन्ना-ब्रांड छद्म आंदोलन के मुकाबले सीधै भीड़ इकट्ठा कर मुसलमानों को काटने की जमीन तैयार कर देता है। आरएसएस का चेहरा खुला हुआ है और उसे पहचानना मुश्किल नहीं और उससे बचा जा सकता है। हां, आप जैसे सुविधावादियों कांग्रेसियों या समाजवादियों को पहचानना जरूर मुश्किल होता है जो सत्ता के खिलाफ भी दिखते हैं और सत्ता की मलाई भी चाटते रहते हैं। आपने उल्टी करने की बात की है। मेरी टिप्पणी तो उल्टी नहीं, बल्कि कुछ सवाल के रूप में है कि क्या भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन का नेतृत्व भी भ्रष्ट और सामंती सवर्ण और ब्राह्मणवादी लोग ही करेंगे। ये उल्टी नहीं हिमांशु महोदय। सवाल हैं, सवाल...। समझ में आए तो भी ठीक, वरना आपलोग तो सत्ता हैं ही और हिटलर हैं ही अन्ना की तरह... आपकी हिटलरी और सत्ता के सामने तो चुप होना ही होगा। अगर मोदी और राज ठाकरे भक्त अन्ना के आंदोलन को लेकर संशय है तो हम सत्ता के साथ हैं। यह तर्क वही है बाबा जॉर्ज बुश दिया करते थे और बाबा चिदंबरम अब दिया करते हैं कि अगर तुम मेरे साथ नहीं तो मेरे दुश्मन हो। | | | | | | Bebaak [bebaak@yahoo.com] Bhaarat - 2011-04-25 11:41:50 | | |
@आवारा क्रांतिकारी जी, आपका लिखा हुआ कुछ खास समझ में नहीं आया. आप शायद भ्रमित हैं. चलिये अन्ना जी को छोड़ देते हैं और मान लेते हैं कि नेता नहीं कॉरपोरेट जगत दोषी है, तो प्रियवर, आप कोई तरीका बतायेंगे इस भ्रष्टाचार से लड़ने का ? | | | | | | neeraj [neerajsharma277@rediffmail.com] Batala - 2011-04-24 11:27:13 | | |
दोस्त, बहुत ही गुढ़ और उचित विश्लेषण किया है. यह आलेख सचमुच दिशा देने वाला है. | | | | | | Himanshu [patrakarhimanshu@gmail.com] Noida - 2011-04-24 02:58:03 | | |
@ आवारा क्रांतिकारी.... अलग-अलग जगहों पर कभी आवारा क्रांतिकारी तो कभी राजेंद्र सिंह के नाम से, कभी रजनीश प्रसाद के नाम से आप इस से मिलती जुलती उल्टी करते रहते हैं. सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि आप अन्ना के खिलाफ बोल रहे हैं लेकिन आप खुद क्या कर रहे हैं, यह तो छोड़ें, अपना नाम तक नहीं बताना चाहते. आप जैसे लोगों को तो आरएसएस में होना चाहिये, जिन्हें छद्म युद्ध में महारत हासिल है. | | | | | | आवारा क्रांतिकारी [] - 2011-04-23 15:26:08 | | |
...भाजपा देश में भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन खड़ा करने में मुख्य विपक्षी दल की हैसियत से नाकाम हुई तो इसकी वजह उसका खुद खास तौर पर कर्नाटक में भ्रष्टाचार में फंसा होना है....
ईश्वर दोस्त जी, यह आपके ही लेख की एक पंक्ति है. भ्रष्टाचार के विरुद्ध किसी भी लड़ाई का आधार मुख्य रूप से क्या है. मेरा मानना है सिर्फ और सिर्फ नैतिकता. भूषण-परिवार के बारे में अब तक जितने तथ्य सामने आए हैं, आप उन्हें इस लड़ाई के लिए तय (चुने गए नहीं) सिविल सोसाइटी प्रतिनिधियों के नेता के रूप में कितना आदर्श मानते हैं? अन्ना हजारे पर भी घोटाले के मामले सामने आ चुके हैं. (उनके रालेगन सिद्धि के राजा-पक्ष की बात अभी छोड़ें, जहां उनके कहा आखिरी फैसला होता है). अरविंद केजरीवाल का एनजीओ \\\"परिवर्तन\\\" अब तक पंजीकृत नहीं है. ध्यान रखें कि जो संस्था पंजीकृत नहीं है, उसका ऑडिट कराने की जरूरत नहीं होती. संतोष हेगड़े कर्नाटक में रेड्डी बंधुओं पर नकेल की कोशिश के बावजूद येदियुरप्पा के सामने कुछ मुनादियों के बावजूद लाचार रहे (इसे कृपया सत्ता का दिग्विजयी तर्क न समझें) और वे \\\"यूथ फॉर इक्वेलिटी\\\" के प्रिय हैं. यानी कि पांच के पांच सदस्य भ्रष्टाचार के तराजू पर बैठे हुए हैं. एक तरफ (कांग्रेसी-भाजपाई) सत्ता है, दूसरी तरफ ये सिविल सोसाइटी के नुमाइंदे.
आप क्या मानते हैं? क्या इस देश में कॉरपोरेट की मदद से भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई लड़ी जाएगी? कॉरपोरेट और एनजीओ अन्ना के आंदोलन के पीछे खड़े हैं. पौने दो लाख करोड़ से ज्यादा के 2-जी घोटाले में नेताओं के हिस्से कितनी रकम गई होगी? बाकी का सारा तो कॉरपोरेटों ने ही खाया-पकाया न?
आप सैद्धांतिकीकरण अच्छा करते हैं. प्रताप भानु मेहता के सरोकार जगजाहिर हैं. लेकिन अन्ना आंदोलन से जुड़े लोगों के जो सच सामने आ रहे हैं (इसमें कोई शक नहीं कि इसके पीछे सत्ता है, लेकिन आरोप तथ्य तो हैं न) उसमें इस लड़ाई को कैसे देखा जाए? क्या हमारे लिए भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई करने वाला भी एक बेईमान और भ्रष्ट समूह ही होगा? सामाजिक, सांप्रदायिक और नैतिक भ्रष्टाचार क्या भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के हिस्से नहीं होने चाहिए? और अगर होने चाहिए तो यह समूह कहां खड़ा है? लड़ाई के साथ लड़ाई लड़ने वालों की विश्वसनीयता भी एक बहुत जरूरी पहलू है ईश्वर जी. सिविल सोसाइटी के लिए ईमानदारी या बेईमानी कोई अहम चीज नहीं है. लेकिन आम गरीब जन के लिए है.
आपकी सबसे आपत्तिजनक बात यह है कि अन्ना के विरोध को आप सत्ता से साथ खड़ा होने के रूप में देख रहे हैं. आपके इस बहुत मजबूत-से लगने वाले आलेख का यह सबसे कमजोर पहलू है. लेकिन कोई बात नहीं, अन्ना आंदोलन के पक्ष में लिखने को हम आपका नरेंद्र मोदी का पक्ष लेने के रूप में नहीं देखेंगे.
| | | | | | T. Vijayendra [t.vijayendra@gmail.com] - 2011-04-23 12:23:07 | | |
It is a good article. One should always be clear that the state is the enemy of the people. The state has never done any good for the poor people and never will. | | | | | | sunder lohia [lohiasunder2@gmail.com] Mandi(H P) - 2011-04-23 06:54:12 | | |
इस लेख के लिए लेखक बधाई के पात्र हैं. इनकी नीयत और नीति तो साफ है ही साथ में विश्लेषण भी तर्कसंगत हैं. वास्तव में इस लेख में तथाकथित सिविल सोसाएटी के बारे में, कानून बनाने में अफसरों और नेताओं के आलावा आम आदमी की भूमिका क्या हो सकती है, इस पर भी बहस के दरवाज़े खोल दिए हैं. हमारे लोकतंत्र की कमजोरियों की ओर भी इशारा किया गया है. वास्तव में यह लेख एक सारगर्भित देशव्यापी लम्बी बहस की शुरुवात करने वाला है. | | | | | | च.प्र.कोठियाल [cpkothiyal@gmail.com] देहरादून - 2011-04-23 00:57:49 | | |
हर व्यक्ति का अपना नजरिया होता है। आज आम आदमी भी अवसरवादी हो चुका है। भ्रष्टाचार एक व्यापार/उद्योग बन चुका है। कोई उद्योग तभी प्रगति करता है जब उसके प्रोडक्ट के खरीददार होते हैं। समाज में उन लोगों की इज्जत बढ़ी है जो कम समय में धनवान हुए हैं , काली कमाई, ओवर इंकम से परहेज नहीं रह गया है। हालात यह है कि -फिक्र तो मुझे भी थी देश की बहुत,
पर मेरा पेट भर गया और मुझे नींद आ गई॥
एक दूसरे को कोसना, नारे बाजी, अनशन करना, आसान है। जरूरत है समाज में काम करने की। ग्रामसभा, नगर पालिका,स्तर पर भी तो भ्रष्टाचार फैला है। क्यों नहीं वहाँ नारेबाजी व धरने दिए जाते। अपनों के बीच हम बुरा नहीं बनना चाहते। हमें यह दोहरा चरित्र बदलना होगा॥क्या राष्ट्रीय स्तर पर कोई संगठन है जो इस कार्य को अपने हाथों में ले सके? | | | | |
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