हाथियों का हत्यारा कौन ?
मुद्दा
हाथियों का हत्यारा कौन ?
रोमा
राबर्ट्सगंज,
उ.प्र. से
नेपाल सीमा से लगे उत्तर प्रदेश के जनपद खीरी के दुधवा नेशनल पार्क में अभी हाल ही
में एक साथ तीन हाथियों की बिजली की हाई टेंशन तारों के कारण दर्दनाक मौत हो गयी.
इस घटना में सबसे हृदयविदारक मौत उस गर्भवती हथिनी को मिली, जिसकी कोख से अपरिपक्व
बच्चा बिजली के तेज़ झटके लगने के कारण मां के पेट से बाहर आ गया. हाथियों के झुंड
का गुस्सा रास्ते के जंगल में लगे हाईटेंशन पोल पर तब उतरा, जब वे गांव में अपने
भोजन की तलाश में गए थे. हाथी इन तारों की चपेट में आ गये और यह दर्दनाक हादसा घटित
हो गया.
यह पहला मौका नहीं है, जब इस तरह की घटनाओं में हाथी मारे गये हों. लेकिन इस तरह की
तमाम घटनाओं को महज हादसा मानकर लगातार नज़रअंदाज किया जाता रहा है.
अभी पिछले साल पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले में रेल की चपेट में आकर एक साथ सात
हाथियों की मौत हो गयी थी. इसी तरह उत्तराखण्ड स्थित राजाजी नेशनल पार्क में
देहरादून जाने के लिये बिछाई गयी रेल लाईन पर आये दिन हाथियों की मौत होती रहती है.
यह सब घटनाऐं तब घटित हो रही हैं, जब देश के ऐसे तमाम संरक्षित वनक्षेत्रों में
विभिन्न बाघ और हाथी परियोजनाओं के तहत इन्हें बचाने के नाम पर हर साल करोड़ों रुपया
पानी की तरह बहाया जा रहा है. जाहिर है, ऐसी स्थिति में वन्यजीवों की हादसों में
होने वाली हर मौत एक बड़ा सवालिया निशान छोड़ती है.
उत्तर प्रदेश के दुधवा नेशनल पार्क को ही लें तो 1978 में इसकी स्थापना के समय से
ही कहा जा रहा है कि पार्क के अन्दर और इसके इर्दगिर्द बसे थारू आदिवासी गांवों के
लोगों को अगर खदेड़ दिया जाये तभी यहां के बाघ और हाथी जैसे जंगली जानवरों को बचाया
जा सकता है. हाथियों और बाघों के संरक्षण के लिये बनाये गये तमाम परियोजनाओं में इस
बात पर खास ज़ोर दिया जाता है कि संबंधित वनक्षेत्रों से वहां बसे लोगों को हटा दिया
जाये, तभी वन्य प्राणियों को बचाया जा सकेगा. लेकिन यहां सीधा सवाल पूछने का मन होता
है कि क्या ऐसा कर देने से इस बात की गारंटी ली जा सकती है कि जंगलों के अंधाधुंध
कटान के कारण ये जीव बिजली की तारों और जंगल में सरपट दौड़ने वाली रेलों की चपेट में
आकर नहीं मरेंगे ?
असल में यह वन विभाग और तथाकथित वन्यजन्तु प्रेमियों द्वारा बड़े पैमाने पर फैलाया
गया ऐसा सफेद झूठ है, जिसे बाहरी शहरी समाज भी सच के रूप में स्वीकार करता है. जबकि
सच ये है कि आज देश के जंगलों और उसमें रहने वाले वनाश्रित समुदायों की दयनीय स्थिति
की सबसे बड़ी जिम्मेदार सरकारें हैं, जिन्होंने विकास का पैमाना केवल अभिजात वर्ग व
मध्यम वर्ग को ही ध्यान मंच रखकर तय किया है.
जंगल दुधवा का हो या राजाजी का, वन्यजीवों को अगर बचाना है तो इस बात का जवाब तो
सरकारों को देना ही होगा कि जिस जंगल में वनाश्रितों की मौजूदगी को अपराध के रूप
में देखा जाता है, उसमें से गुज़र कर आखिर हाईटेंशन तारें क्यों जा रही हैं? जा भी
रहीं हैं तो आखिर कहां? क्या जंगल में बिछाई गयी इन लाईनों से जंगल में बसे गांवों
को बिजली मुहैय्या कराई जा रही है या बड़े-बड़े प्रोजेक्टों को व कारखानों को?
जंगल के अन्दर के गांवों की स्थिति का अगर जायज़ा लिया जाये तो इन तमाम गांवों में
बिजली की व्यवस्था न होने के कारण सूरज के डूबते ही इनकी ज़िन्दगी अंधेरे में डूब
जाने की वजह से एकदम ठहर जाती है. रोशनी भर के लिये भी इन्हें बिजली मुहैय्या नहीं
कराई जाती. ऐसे में अगर विकास के नाम पर बिछाये गये इन बिजली के तारों और रेल लाईनों
का विरोध किया जाये तो इन्हीं वन्य जन्तु प्रेमियों और सरकारों द्वारा तुरंत उसे
विकास विरोधी होने की संज्ञा से नवाज दिया जायेगा.
विकास, विनाश और हाथी
लखीमपुर खीरी और पीलीभीत में यहां से गुज़रकर जाने वाली शारदा नदी पर विशालकाय बांध
और हाईडल प्रोजेक्ट बना दिये गये हैं. जिनके कारण हजारों हेक्टेयर लोगों की खेती,
निवास और सामुदायिक इस्तेमाल की ज़मीनें डूब में आकर गर्क हो गयीं हैं. इसके कारण
भारत-नेपाल सीमा के जंगलों में होने वाली हाथियों की आवाजाही पर भी गहरा असर पड़ा
है. जबकि हिमालय पर्वत श्रृंखला की तलहटी शिवालिक पहाड़ियों से लेकर तराई जंगलों का
जम्मू से लेकर भूटान तक इनमें मौजू़द जंगली हाथियों का यह पूरा क्षेत्र हाथियों की
आवाजाही का रास्ता है. पुराने समय से जंगली हाथियों द्वारा अपने आने जाने के लिये
इसका इस्तेमाल किया जाता रहा है.
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हाथी अपने सामाजिक झुंड में भोजन की तलाश में इस कारीडोर में हजारों मील की यात्रा
अपनी अनुवांशिक याद्दाश्त के सहारे करते हैं. एक हाथी को कम से कम 60 वर्ग किलोमीटर
क्षेत्र की ज़रूरत होती है, जिसमें वे निर्बाध विचरण कर सकें. लेकिन आज़ादी के बाद
पिछले 60 सालों में इस पूरे कारीडोर में शहरों का विस्तार, शारदा-गंगा जैसी नदियों
से नहरों का विस्तार, इन पर बिजली परियोजनाओं का विस्तार और लगातार बढ़ते घने
ट्रेफिक के चलते अब हाथियों के लिये इन नदियों और शहरों को पार करके जंगलों में
विचरण करना बहुत मुश्किल काम हो गया है.
यही कारण है कि अपने प्राकृतिक विचरण क्षेत्र छिन जाने से वे लगातार हिंसक होते जा
रहे हैं. लेकिन इसका खामियाजा भी उस शहरी समाज या सरकारों को नहीं भुगतना पड़ता,
जिनके अंधे लालच के कारण ये सब परियोजनायें लगाईं जाती हैं, बल्कि इसका नुकसान भी
जंगल क्षेत्रों में तमाम जंगली जानवरों के साथ सहअस्तित्व बनाकर सदियों से जंगलों
में रहने वाले उस वनाश्रित समाज को होता है, जिन्होंने हमेशा जंगल की रक्षा करके
प्राकृतिक संतुलन बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है और जिन्हें कभी भी सरकारों
द्वारा देश की गरीब जनता पर थोपे गये इस तथाकथित विकास का लाभ नहीं मिलता.
पिछले कुछ सालों में सरकारें विकास के नाम पर लगातार वनों को काटती रही हैं. हर दस
साल में बनायी जाने वाली कार्ययोजनाओं के तहत हजारों हजार पेड़ एक-एक जंगल से काटना
तय करके जंगलों को मरघट में तब्दील किया जाना आज भी जारी है. पिछले 70 सालों में
प्राकृतिक जंगलों का सर्वनाश करके उन्हें महज व्यावसायिक पेड़ों के जंगल में तब्दील
कर दिया गया है, जिसकी कहानी वन विभाग द्वारा ही बनाये गये तमाम वर्किंग प्लान बयान
करते हैं.
विकास की प्राथमिकता
इस तरह से एकप्रजातीय पेड़ों का लगाना और प्राकृतिक जंगलों का सर्वनाश एक ही समय में
साथ-साथ किया जाता रहा है और हाथियों के लिये जंगल में खाने के लिये कुछ भी नहीं
छोड़ा गया. नतीजतन वे भोजन की तलाश में गांवों और बस्तियों की ओर रुख करने लगे. देखा
जाए तो जंगलों के भीतर लगातार बढ़ रहा मानव व वन्यजन्तुओं के बीच का द्वन्द्ध सरकारों
द्वारा थोपे गये तथाकथित विकास व वनविभाग द्वारा जंगलों में बड़े पैमाने पर की गयी
लूट का ही नतीजा है. इसके उलट बड़े-बडे़ तथाकथित पर्यावरणविद तथा वनवैज्ञानिक इसका
सारा दोष वनाश्रित समुदायों के सर पर मढ़ते हैं और उन्हें वनक्षेत्रों से खदेड़ देना
ही एकमात्र इलाज मानते हैं.
सन् 2006 में वनाधिकार कानून के आ जाने के बाद भी यह लाबी आज भी वनाश्रितों को 10
लाख रुपये का लालच देकर जंगल छोड़ने के लिये विवश करने की कोशिशों में लगी हुई है,
जबकि वनाधिकार कानून के आने के बाद जंगलों में पीढ़ियों से बसे तमाम आदिवासियों और
अन्य परंपरागत वननिवासियों को उनकी जोत की, निवास की, इसके अलावा गलत प्रक्रिया में
जाकर तमाम छिनी हुई ज़मीनों पर मालिकाना हक स्थापित किया जाना है. इसके अलावा
सामुदायिक अधिकारों के तहत जंगल से प्राप्त होने वाली तमाम वनोपज, सामुदायिक
इस्तेमाल की ज़मीनों पर भी अधिकारों का पुनस्र्थापन किया जाना है.
अगर तथ्यों को गौर से देखा जाये तो पता चलता है कि जंगलों में लगातार हो रही
बेजु़बान वन्य जन्तुओं की मौतों के लिये प्रशासन और सरकारें और इनकी बनायी गयी
नीतियां ही जिम्मेदार हैं, ना कि स्थानीय लोग. सरकारें जंगलों के भीतर से हाई टेंशन
तारों और रेल लाईन की पटरियों को हटाने की बात नहीं करतीं क्योंकि इनका इस्तेमाल
नागर समाज करता है लेकिन वह पीढ़ियों से इन जंगलों में रहने वाले नूरआलम, नूरजमाल,
जहूर हसन जैसे हज़ारों वनगुजरो को हटाये जाने को ही जंगल और वन प्राणियों को बचाने
का एकमात्र उपाय बताती है. लेकिन हकीकत ये है कि जंगल में रहने वाले लोगों के कारण
ही जंगल और जंगल के प्राणी बचे हुये हैं.
राजाजी पार्क में करोड़ों रुपये की बावलियां सरकार द्वारा बनाई गई हैं. लेकिन जंगल
में ये बावलियां कहीं नज़र नहीं आतीं. आखिर सरकारी कागज़ों में बनी बावलियां नज़र
भी कैसे आयें ! यह तो भला हो वनगुजरों का, जिन्होंने अपने जानवरों के लिए पानी की
बावलियां बनाई हुई हैं और उन्हीं बावलियों पर हाथियों के झुंड़ भी जाकर अपनी प्यास
बुझाते हैं.
दरअसल जंगलों, वन्यजीवों और वनाश्रित समुदायों के लिये सरकारों द्वारा विकास का जो
पैमाना तय किया गया है, उस पर फिर से विचार करने की जरुरत है. सब कुछ नष्ट करके
उपभोग की नागर विकास की अवधारणा जंगल और उसमें रहने वाले वन प्राणियों और समुदायों
के लिये घातक सिद्ध हो रही है. अगर अपने जंगल, वन्य जन्तुओं, वनाश्रित समुदायों और
अपने पर्यावरण को बचाना है तो हमें गैर बराबरी के सिद्धांत पर टिकी हुई विकास की इस
अवधारणा को ही चुनौती देनी होगी.
26.07.2011, 10.55 (GMT+05:30) पर प्रकाशित