गरीब की गड़बड़ गणना
मुद्दा
गरीब की गड़बड़ गणना
देविंदर शर्मा
एक
महत्त्वपूर्ण पहल के तहत सर्वोच्च न्यायालय ने गरीबों की गिनती पर बेहद बुनियादी
सवाल उठाए हैं. यह महसूस करते हुए गरीबी रेखा नजरअंदाज की जाती रही है, न्यायालय ने
वह काम सम्भव किया है, जिसे अंजाम देने में हमारे अर्थशास्त्री हाल के वर्षो में
विफल हुए हैं.
सर्वोच्च न्यायालय में दायर हलफनामे का बचाव करने वाले योजना आयोग के उपाध्यक्ष
मोंटेक सिंह अहलूवालिया को इसकी कैफियत देने में काफी पीड़ा हो रही है कि कांग्रेस
के भीतर और बाहर गरीबी के विवादित आंकड़े को ‘अवांछित’ क्यों बताया जा रहा है?
लेकिन अगले दिन टीवी चैनलों पर भारी मजमे के बीच उन्होंने इसकी कैफियत देने की
कोशिश की.
इसमें एक बात जो बेहद स्पष्ट थी, वह यह कि गरीबी रेखा को जानबूझकर नीचे रखते हुए
अर्थशास्त्री और योजनाकार वास्तव में गरीब से छल कर रहे थे. अहलूवालिया ने
कहा,‘वास्तव में यह 1973-74 के दौरान गरीबी रेखा से नीचे वालों का जीवनस्तर’ था.
उन्होंने माहवार खर्च की रकम को नीचे रखने पर स्पष्टीकरण देते हुए बताया कि यह केवल
‘गुजर-बसर का निम्नतम स्तर को परिलक्षित करने’ के लिए था.
दुर्भाग्य से, गरीबी के गड़बड़ अनुमान विकास की तमाम रणनीतियों और कार्यक्रमों की
बुनियाद बना दिये गए हैं. ऐसे में कोई आश्चर्य नहीं कि आजादी के 64 वर्ष बाद भी
गरीबी अपनी पूरी हनक के साथ बनी हुई है. इस पूरे प्रकरण में यह मसला मीडिया की
आंखों से भी ओझल हो गया कि योजना आयोग शहरी इलाके में रोजाना 17 रुपये और ग्रामीण
इलाके में 12 रुपये प्रतिदिन की कमाई को गरीबी का मापक मानता रहा है. गरीबी रेखा तय
करने की विभिन्न समितियों और उनके आंकड़े गड़बड़ अनुमानों पर आधारित हैं और इसलिए
भी वह गरीबी या असमानता मिटाने के काम पर सकारात्मक असर छोड़ने में विफल हो गए हैं.
योजना आयोग ने 2004-05 में 27.5 प्रतिशत गरीबी मानते हुए योजनाएं बनाई थी. फिर इसी
आयोग ने इसी अवधि में गरीबी की तादाद आंकने की विधि की पुनर्समीक्षा के लिए एक
विशेषज्ञ समूह का गठन किया था, जिसने पाया कि गरीबी तो इससे कहीं ज्यादा 37.2
प्रतिशत थी. इसका मतलब यह हुआ कि मात्र आंकड़ों के दायें-बायें करने मात्र से ही
100 मिलियन लोग गरीबी रेखा में शुमार हो गए.
अगर हम गरीबी की पैमाइश के अंतरराष्ट्रीय पैमानों की बात करें, जिसके तहत रोजना
1.25 अमेरिकी डॉलर (लगभग 60 रुपये) खर्च कर सकने वाला व्यक्ति गरीब है तो अपने देश
में 456 मिलियन (लगभग 45 करोड़ 60 लाख) से ज्यादा लोग गरीब हैं.
अगर हम अजरुन सेनगुप्ता समिति की रिपोर्ट को मानें, जिसके मुताबिक 836 मिलियन लोग
रोजाना 20 रुपये से भी कम कमाते हैं, और मैं मुतमईन हूं कि शायद ही कोई इससे
इत्तेफाक नहीं रखेगा, तो इतनी तादाद में लोग भयंकर रूप से गरीब हैं.
यूएनडीपी के 10 मानक श्रीमती सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार
परिषद (एनएसी) ने सीधे 50 प्रतिशत आबादी के गरीब होने पर खूंटा ठोक दिया है. एनएसी
भी बीपीएल अर्हता के गलत पैमाने को मानने के लिए उतना ही कसूरवार है. इसने कभी
गरीबी तय करने के दोषपूर्ण नियमों-मानकों पर कभी सवाल नहीं उठाए लेकिन इस मुद्दे पर
मौजूदा जनविरोध को देखते हुए बीच बहस में उन कामों के लिए श्रेय लूटने की गरज से
कूद पड़ा, जो वस्तुत: उसने कभी किए ही नहीं थे. तिस पर भी, गरीबी आंकने पर फिर लौटा
गया, मानो इतना सारा जो कुछ हुआ वह काफी नहीं था.
अब हमारे पास ऑक्सफोर्ड पॉवर्टी और संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के तत्वावधान
में मानवीय विकास पहल के पैमाने हैं, जिसके तहत देश की आबादी का 55 प्रतिशत हिस्सा
गरीब है. इसने अपनी पैमाइश में शिशु मृत्यु दर, स्कूलों में दाखिला दर, पीने का
पानी और सफाई समेत 10 मानकों को शामिल किया है.
इसके पहले की आप दफा हो जाएं, मुझे उन मानकों को स्पष्ट करने दें जिनका इस्तेमाल
खाद्यान्न असुरक्षा और भूख के मौजूदा स्तर को पहले आंकने में किया जाता है.
पहले भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के तय किए गए नियमों पर गरीबी का आकलन किया
जाता था. इसके अनुसार गांवों में 2400 कैलोरी और शहरों में 2100 कैलोरी के उपभोग को
गरीबी आकलन का आधार माना गया. यह पूर्व योजना आयोग के गरीबी आकलन का आधार था. बाद
में तेंडुलकर कमेटी ने कुछ अस्पष्ट कारणों से शहरी इलाकों में गरीबी के आधार के लिए
1999 कैलोरी ही रखा.
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