टेनिसन, तुम सचमुच महान हो!
बात पते की
टेनिसन, तुम सचमुच महान हो!
कनक तिवारी
विश्व विख्यात अंग्रेज़ कवि अल्फ्रेड लॉर्ड टेनिसन ने ये अमर पंक्तियां लिखी हैं-The
old order changeth yielding place to new and god fulfills himself in many ways
lest one good custom may corrupt the world यानी नई परंपराओं के लिए
पुरानी परंपराएं जगह खाली करती हैं कि कहीं अच्छी प्रथाएं भी नए संसार को भ्रष्ट
नहीं कर दें.
कवि जब दर्शनशास्त्र को सूत्रों में व्यक्त करता है तो उससे ज़्यादा संक्षिप्त और
तीखा कथन और कहीं नहीं होता. भारत में तो बकौल लोहिया, दर्शन शास्त्र प्राचीन भाषा
संस्कृत में गीतों बल्कि संगीत में ही अभिव्यक्त किया गया है. इस लिहाज़ से शायद
भारत संसार का अकेला या पहला देश है. बहरहाल विक्टोरियाई युग के कवि टेनिसन की उक्त
कालजयी पंक्तियां इक्कीसवीं सदी के राजनीति विज्ञान को भी बेहतर चरितार्थ करती हैं.
मुंबई के भाजपा अधिवेशन में नरेन्द्र मोदी, नितिन गडकरी और लालकृष्ण आडवाणी
ब्रम्हा, विष्णु, महेश की तरह तो नहीं लेकिन वैसी ही अनुकृति में नज़र आए. आडवाणी ने
भी मौजूदा भाजपाई राजनीतिक संस्कृति का निर्माण किया. हुकूमत करने का काम गडकरी को
मिल गया. मोदी हैं कि तीसरी आंख खोलते रहने का दंभ पाले हुए हैं. वह भी इतना कि
बुजुर्ग नेता आडवाणी और राष्ट्रीय अध्यक्ष गडकरी को भी आंखें तरेरते रहते हैं. वैसे
जो कुछ हुआ उसमें अजूबा कुछ नहीं है. सत्ता प्रतिष्ठान में बुजुर्गों की बेदखली एक
पारंपरिक ऐतिहासिक सच है.
जिस राम का गुणगान करते टोयोटा रथ पर आडवाणी अयोध्या अर्थात राजधानी दिल्ली पर
हुकूमत करने का ख्वाब संजोए हुए थे, उस राम और उनकी सेना को भी उनके ही बच्चों लव
और कुश ने सार्थक चुनौती दी थी. नरेन्द्र मोदी की ही धरती पर लालकृष्ण तो नहीं
श्याम कृष्ण को उनके कुरुक्षेत्र युद्ध के निर्देशक होने के बावज़ूद पिछड़े वर्ग के
एक बहेलिए ने ही मार डाला था. मुगल वंश में तो अकबर के बाद भाइयों का कत्ल करके
सत्ता हथियाने की परंपरा पुष्ट होती गई है. जहांगीर, शाहजहां और औरंगज़ेब लगभग इसी
तरह तो बादशाह बने थे.
मुंबई की रैली छोड़कर दिल्ली लौटे आडवाणी की चेली सुषमा स्वराज भी एक मुगल बादशाह की
बेटी की तरह निकलीं, जिसने पदच्युत लेकिन नैतिक दावेदार ज्येष्ठ ओहदेदार का मुसीबत
के दिनों में साथ दिया था. गडकरी की दुबारा ताजपोशी और मोदी को बढ़ावा देने के पीछे
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अपने उसी प्रौढ़ लेकिन संकीर्ण राजनीतिक फलसफे पर दुबारा
आरूढ़ हुआ है, जो दमखम के साथ कहता है कि सत्ता पर वही काबिज होगा जो कट्टर हिंदुत्व
का समर्थक हो और मुसलमानों को घास नहीं डाले. यदि वह उद्योगपतियों को साथ लाने में
समर्थ हो गया तब तो पौ बारह है. जाहिर है मोदी में ये सब तत्व कूटनीतिक दूरबीन से
देखने में साफ साफ नज़र आते हैं.
भाजपाइयों सहित कुछ और विचारकों को यह सूझ रहा है कि नरेन्द्र मोदी को अगले
प्रधानमंत्री के रूप में राजग के उम्मीदवार की बहैसियत प्रोजेक्ट किया जाए.
खुशफहमियों में जीना भी राजनीति का लक्षण है. खुद को राष्ट्रवादी विचारकों का
जमावड़ा समझने वाला संघ परिवार अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की बारीकियों से भी सूचित
होता होगा.
एक वक्त था जब राजनीतिक दृष्टि से खुद को उदार प्रचारित करने वाली अंग्रेज़ कौम
विनायक दामोदर सावरकर, श्यामजी कृष्ण वर्मा और मैडम कामा वगैरह को इंग्लैंड में
रहकर क्रांतिकारी गतिविधियों का जाल बुनने की सूचना पाकर भी पूरी तौर पर प्रतिबंधित
नहीं करती थी. उनके वंशज अमरीकी लेकिन अनुदार हैं. यहां तक कि अफ्रीकी मूल के
प्रताड़ित वंशज राष्ट्रपति बराक ओबामा द्वारा भी बार-बार याचना करने पर भी मोदी को
अमरीकी विसा नहीं दिया जा रहा है. वही ओबामा राजनीतिक अनर्थ शास्त्र के प्रस्तोता
डॉ़ मनमोहन सिंह की तारीफ करते अघाते नहीं हैं. भाजपा के कनिष्ठ सहयोगी जदयू के
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बिहार में मोदी को फटकने तक नहीं देते. देश के सर्वाधिक
मुस्लिम बहुल राज्य उत्तरप्रदेश में एकीकृत वोट बैंक के कारण समाजवादी पार्टी को
जीत मिली है और कांग्रेस के साथ साथ भाजपा का भी सूपड़ा साफ हुआ है. ये कुछ लक्षण
हैं जो मोदी को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने से रोक सकते हैं. भले ही संघ
परिवार की दाईं आंख शुभ शकुन के कारण फड़फड़ा रही हो.
बूढ़े, पस्त हिम्मत अथवा प्रतिगामी दीखते उम्रदोज़ राजनीतिक नेता हाशिए पर तो धकेले
ही जाते हैं. रूशी बोल्शेविक क्रांति के जनक कॉमरेड लेनिन का बुढ़ापा किस कदर बीता
था. स्टालिन ने क्या कुछ उनके साथ नहीं किया था. कॉमरेड बेरिया के साथ दस हज़ार से
ज़्यादा लोग कत्ल कर दिए गए थे.
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सेक्स कांड में फंसे दिल्ली के एक मशहूर वकील अपने से बड़े वकील पिता के बुढ़ापे के
दिनों में मुअक्किलों के सामने डींग मारते यह कटाक्ष करते थे कि यदि उन्हें सस्ता
वकील चाहिए तो उनके पिता से संपर्क कर लें. मनोविज्ञान के एक अंतर्राष्ट्रीय
विद्वान ने यह थ्योरी प्रचारित की है कि जिस बच्चे में अपने पिता के प्रति नफरत की
ग्रंथि होती है, वह काफी तरक्की करता है. इस सिलसिले में उसने रॉबर्ट क्लाइव,
माओत्सेतुंग और जवाहरलाल नेहरू तक का ज़िक्र किया था. मध्यप्रदेश में क्या अर्जुन
सिंह ने द्वारिका प्रसाद मिश्र और दिग्विजय सिंह ने अर्जुन सिंह के कंधों की बैसाखी
का सहारा अपनी अपनी तरक्की के लिए नहीं लिया था, ताकि अपने चरित्र निर्माता को बाद
में अहसानफरोशी का पाठ भी पढ़ा दें. शुक्ल बंधुओं का लाभ जिस कलेक्टर ने पूरी तौर पर
लिया, बाद में राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी के रूप में उन्हीं बुजुर्ग नेताओं को किस कदर
पटखनी दी.
नरेन्द्र मोदी इक्कीसवीं सदी की समकालीन समझ के नेता समझे जा रहे हैं. उनकी खुरदरी,
पथरीली, कर्कश भाषा में संभावित प्रधानमंत्री के कंटूर उभरते नहीं दिखाई देते. चाहे
जो हो लालकृष्ण आडवाणी, जसवंत सिंह, यशवंत सिन्हा, मुरली मनोहर जोशी और अरुण जेटली
वगैरह की भाषा की शाइस्तगी और सभ्यता का भाजपा नियंत्रकों की दृष्टि में शायद महत्व
नहीं रहा. गडकरी भी मोदी के भाषायी हमजोली हैं. यदि भाजपा के भविष्य का रिमोट
कंट्रोल नागपुर में है तो मोदी आडवाणी की पीढ़ी और परंपरा के विनाशक के रूप में
स्थापित तो किए जा सकते हैं. यह अलग बात है कि एक सेक्युलर राज्य के राजनीतिक आग्रह
कट्टर हिंदुवादी चेहरे की बानगी के मोहताज़ नहीं होना चाहेंगे.
येदियुरप्पा जैसे भ्रष्ट नेता यदि मोदी की खुलेआम चापलूसी को वकालत की तरह इस्तेमाल
करेंगे तो मोदी के सार्वजनिक मुकदमे का क्या होगा. आडवाणी और जसवंत सिंह को उनकी
ज़िन्ना-जिज्ञासा के कारण दंडित किया जाना प्रतीत होता है. उसे संघ परिवार ने जिन्ना
प्रेम समझ लिया था. भाजपा में पंथनिरपेक्षता का तत्व अटल बिहारी वाजपेयी ने एक
अग्रगामी सोच के ज़रिए इंजेक्ट किया था. यह वाजपेयी थे जिन्होंने अपने अध्यक्षीय
कार्यकाल में गांधीवादी समाजवाद को भाजपा का विचार पत्रक बनाया था. गोधरा दंगों के
समय वाजपेयी ने मोदी को राजधर्म का पालन करने की अद्भुत कूटनीतिक लेकिन भविष्यमूलक
सलाह दी थी. वाजपेयी ने बांग्लादेश के निर्माण के बाद इंदिरा गांधी को दुर्गा का
अवतार घोषित करके अपना वोट बैंक और भाजपा का विस्तार भी सुनिश्चित कर लिया था. यह
सब संघ परिवार की पुश्तैनी सोच के खिलाफ था.
अपने सार्वजनिक भाषण में मोदी ने केन्द्र सरकार और प्रधानमंत्री को जो कुछ भी
आरोपित किया वह स्मृति के तहखाने में किसी यादगार भाषण के रूप में सुरक्षित नहीं
होगा. आडवाणी के युग का पतन भले हो जाए उन्हें एक साफ सुथरी सभ्यतामूलक भाषा के
परिपक्व प्रतिनिधि प्रवक्ता के रूप में याद रखा जाएगा. आडवाणी वाजपेयी की तरह खुले
विचारों के नहीं हैं. नेहरू गांधी परिवार के प्रति उनका हठधर्मी पूर्वग्रह भी है.
उनमें भारत पाक विभाजन की वह दुर्बल मनोवैज्ञानिक ग्रंथि भी है, जिसने उन्हें
शरणार्थी बना दिया. इसके बावज़ूद आडवाणी इस महाद्वीप के उस युग के छात्र रहे हैं, जब
राजनीतिक सहिष्णुता और नैतिकता के पाठ भी पढ़ाए जाते थे.
उग्र मोदी शैक्षिक दृष्टि से फिनिश्ड प्रोडक्ट नहीं हैं. गडकरी के प्रबंधन कौशल में
भाजपा, राजग और भारत का भविष्य देखने से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को कौन रोक सकता
है. सुषमा स्वराज, अरुण जेटली और रविशंकर प्रसाद वगैरह वे चुस्त चपल चेहरे हैं
जिनकी सरहदें प्रवक्ता होने की लक्ष्मण रेखा का पर्याय हैं. आडवाणी बाबरी मस्जिद
ढहाने के कानूनी अभियुक्त हैं, वहीं मोदी गुजरात दंगों के जनस्वीकार्य अभियुक्त.
लेकिन फिलहाल कानूनी नहीं.
वंशवाद का अरोप झेल रही कांग्रेस पार्टी में फीका और मारात्मक ही सही एक पढ़ने लिखने
वाला कुनबा दिखाई पड़ता है. वाजपेयी में एक वैकल्पिक सोच और समझ का अभाव नहीं था. हर
दृष्टि से आडवाणी उनके डेपुटी ही थे. कांग्रेस की दुर्गति यही है कि जिस तरह
सिंगापुर की सेना जगह के अभाव में अमेरिका में रखी जाती है उसी तरह मनमोहन सिंह की
समझ भी अनुकूल वैचारिक आर्थिक विद्यालय के भारत में अभाव के कारण व्हाइट हाउस में
रखी जाती है. वाजपेयी, आडवाणी, जोशी, जसवंत सिंह वगैरह के युग का एक घुमावदार मोड़
मुंबई में भारत ने देखा है. इस मोटरगाड़ी की ड्राइविंग सीट पर गडकरी बैठे हैं, ब्रेक
नागपुर में है लेकिन एक्सीलरेटर पर पैर दबाने का काम मोदी कर रहे हैं.
27.05.2012, 00.58 (GMT+05:30) पर प्रकाशित