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वरवरा राव से रेयाज-उल-हक की बातचीत
संवाद
नेपाल के संकेत अच्छे नहीं हैं
नक्सली
कवि वरवर राव से
रेयाज़-उल-हक़ की बातचीत
उन्हें अपने को माओवादी कहे जाने पर आपत्ति है. वे खुद को
नक्सली कवि कहलाना पसंद करते हैं. नक्सलियों से बातचीत के लिए सरकार उन्हें मध्यस्थ
बनाती है और फिर उनके ही संगठन को 'विरसम'
को नक्सली संगठन बता कर उस पर प्रतिबंध लगा देती है. नक्सली होने के आरोप में जाने
कितनी-कितनी बार उन्हें जेल जाना पड़ा है. लेकिन क्रांतिकारी कवि कहे जाने वाले दो
टूक बातें करते हैं. वे मानते हैं कि ख़ून से रंगे हाथों की बातें, ज़ोर-ज़ोर से
चीख़-चीख़ कर छाती पीटकर, कही जाती हैं.
यहां प्रस्तुत है वरवर राव से की गई बातचीत
के अंश.
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1959 के बाद
सीपीआई-सीपीएम ने संसदीय राजनीति को स्वीकार कर लिया. वे अब
समाजवादी सुधारों की कोई कोशिश नहीं करते. |
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लैटिन अमरीका, दक्षिण एशिया और तीसरी दुनिया के अन्य देशों
में चल रहे प्रतिरोध आंदोलनों की पृष्ठभूमि में भारतीय जनता के संघर्षों की दशा और
दिशा के बारे में आपका क्या नजरिया है? खास कर नेपाल में जो हालिया परिवर्तन हुए
हैं और वहां से जो संदेश बार-बार भारत के माओवादियों को दिये गये हैं, उनकी जमीन
कितनी ठोस है?
भारत में और खास कर छत्तीसगढ में चल रहे संघर्षों की जो दिशा
है-क्रांतिकारी संघर्ष से नवजनवादी क्रांति की ओर बढने के लिए यही दिशा ठीक रहेगी.
इसी से सामंतवाद, साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के दलालों को खत्म किया जा सकता है और
उनका प्रतिरोध किया जा सकता है.
जैसे चीन की नवजनवादी क्रांति के सिद्धांत को माओ ने आगे बढाया, उस दर्शन से जो
संघर्ष चल रहा है, उसे हम भारत में छत्तीसगढ और झारखंड में देख रहे हैं. नक्सलबाडी
का जो पथ है, उसकी दिशा वही है. हालांकि नक्सलबाडी से पहले भी यह दिशा मौजूद रही
है.
ऐतिहासिक तौर पर भी नक्सलबाडी की दिशा सही साबित होती है. 1973 में चिली में अलेंदे
की सरकार आयी. सभी मार्क्सवादी और जनपक्षधर लोग सत्ता में चुनाव के जरिये आये. सबने
जनता से कहा और वादा किया कि वे संसाधनों का राष्ट्रीयकरण करेंगे. उन्होंने कोशिश
भी की, लेकिन पिनोशे के नेतृत्व में हुए तख्तापलट में उस सरकार को खत्म कर दिया
गया.
इसलिए अगर सत्ता में आकर, एक बने-बनाये ढांचे में आकर किसी तरह के परिवर्तन की
कोशिश करेंगे तो असफल रहेंगे-यह ऐतिहासिक रूप से सिद्ध हो चुका है. भारत में भी हम
इसके उदाहरण देखते हैं.
1959 में नंबूदरीपाद की सरकार केरल में बनी. उन्होंने तब भूमि सुधार जैसी कोई बडी
कोशिश नहीं की. उन्होंने सिर्फ शिक्षा के क्षेत्र में सुधार की कोशिश की. जो निजी
ईसाई शिक्षा संगठन थे, उनका सरकारीकरण कर दिया. शासकवर्ग उसे भी बरदाश्त नहीं कर
पाया. उस सरकार को हटा दिया गया और वहां राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया. इस तरह हम
देश में नंबूदरीपाद का और विश्व स्तर पर अलेंदे का उदाहरण पाते हैं, जिन्होंने एक
बने बनाये सत्ता तंत्र को, शासन के ढांचे को स्वीकार कर लिया और उसी के जरिये बदलाव
की कोशिश की. वे असफल रहे.
यहीं पर यह सवाल हो सकता है कि सीपीएम बंगाल में और केरल में क्यों बनी हुई है? असल
में 1959 के बाद सीपीआई-सीपीएम ने संसदीय राजनीति को स्वीकार कर लिया. वे अब
समाजवादी सुधारों की कोई कोशिश नहीं करते.
थोड़ा पीछे जायें तो कुछ मुद्दों पर सभी राजनीतिक पार्टियों की सहमति होती थी. उनमें
यह सहमति थी कि देश में अलग-अलग राष्ट्रीयताएं हैं तो राज्यों का एक फेडरल
स्ट्रक्चर हो तथा भाषा और राष्ट्रीयताओं को उन्नतिशील स्थान मिलना चाहिए. चाहे
नंबूदिरीपाद हों या आनंदपुर साहिब या शेख अबदुल्ला सभी डिफेंस, करेंसी, रेलवे और
विदेश मामलों को छोड कर राज्यों की अपनी स्वायत्तताओं के समर्थक थे.
पर आज तो देखने भर के लिए एक संघीय ढांचा है. अब केंद्रीयकृत संरचना मजबूत हुई है.
1991 के बाद राज्यों ने संघीय ढांचे का दुरुपयोग करना शुरू किया. वे अब इसको आड़ बना
कर खुद ही विदेशों से एमओयू कर रहे हैं. अब राज्यों के मुख्यमंत्री अमरीका जाते हैं
और एमओयू साइन करके आते हैं. वे अमरीका और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दलालों के रूप
में स्थापित हुए हैं.
लैटिन अमरीका के पांच-छह देशों में साम्राज्यवाद विरोधी सरकारें तो आयी
हैं-वेनेजुएला और बोलीविया में सरकारें प्राकृतिक संसाधनों का राष्ट्रीयकरण करने का
एलान कर रही हैं. अब देखना यह है कि यह सब कहां तक टिकेगा. एक साम्राज्यवाद विरोधी
शक्ति के रूप में जाने जानेवाले फिदेल कास्त्रो भी अब ग्लोबलाइजेशन की तरफ जा रहे
हैं. इसी तरह ब्राजिल के लूला डिसिल्वा के बारे में भी सुना था. लेकिन 2004 में
सुना कि वे भी वैश्वीकरण की ओर जा रहे हैं.
नेपाल इससे अधिक नजदीक का उदाहरण है. 1995 में नवजनवादी क्रांति के लिए वहां नेपाल
की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के नेतृत्व में माओवादी आंदोलन शुरू हुआ. इस बीच
2001 में राजपरिवार हत्याकांड के बाद जनता में राजतंत्र विरोधी उभार आया. इस उभार
को नेतृत्व देते हुए माओवादी पार्टी ने आंदोलन चलाया. दूसरे दलों के साथ मिल कर
उसने राजतंत्र के खत्म किया और हाल के चुनावों में वह विजयी रही.
लेकिन जनयुद्ध के इन वर्षों में जिन 16 हजार लोगों ने कुरबानी दी, वह सिर्फ
राजतंत्र को खत्म करने के लिए नहीं थी. जब यह जनयुद्ध शुरू हुआ था, तो वह नवजनवादी
क्रांति के लिए था. तब उन दिनों नेपाल का राजा वीरेंद्र उस तरह का शत्रु नहीं था,
जिस तरह हत्याकांड के बाद आया राजा ज्ञानेंद्र था. लेकिन बाद में यह जनयुद्ध सिर्फ
राजतंत्र के खात्मे तक ही सिमट कर रह गया. नवजनवादी क्रांति सिर्फ राजतंत्र हटाने
के लिए नहीं होती, वह सत्ता को वर्किंग क्लास के हाथों में लाने के लिए होती है.
लेकिन नेपाल की स्थितियां जो हैं, उन्हें देखते हुए जल्दी ही कोई निर्णय देना आसान
नहीं है. नेपाल में क्रांति करना बडी बात नहीं है, उसे निभाना बडी बात है. नेपाल के
एक तरफ चीन है, जो क्रांति का समर्थक नहीं है. दूसरी तरफ भारत है, जो अमरीका के लिए
क्रांति को खत्म भी कर सकता है. ज्ञानेंद्र के बाद राजतंत्र बडा मुद्दा बन गया. इस
संदर्भ में वहां एक सवाल यह भी था कि क्या इसमें भारत की मदद ली जा सकती है.
नेपाल में क्या हो रहा है, इसे यहां से नहीं जान सकते. इसलिए उस पर कुछ कह भी नहीं
सकते. लेकिन नेपाल को लेकर भारत में जो कुछ हो रहा है, सीपीएम और कांग्रेस जिस तरह
की प्रतिक्रियाएं दे रही हैं और उनकी जो गतिविधियां हैं, उनके आधार पर इस पूरी
प्रक्रिया पर शक पैदा होता है. नेपाल में नेकपा (माओवादी) जो कर रही है, उसकी
कांग्रेस-सीपीएम के बीच स्वीकार्यता संदेह पैदा करती है.
ऐतिहासिक तौर पर भी कई संदेह पैदा होते हैं. नेपाल में आज जो हो रहा है, तेलंगाना
में 60 साल पहले वह सब हो चुका है. वहां निजाम के खिलाफ संघर्ष हुआ और चूंकि
नेतृत्व कम्युनिस्ट पार्टी कर रही थी, इसलिए वहां जमीन का सवाल भी संघर्ष से जुडा.
तीन हजार गांवों में 10 लाख एकड से अधिक जमीन पर कब्जा किया गया.
उस संघर्ष की जो दिशा थी, लगता था कि वह लाल राज्य की ओर जा रहे थे. लेकिन फिर वहां
मिलिटरी एक्शन हुआ और इसके बाद चुनाव हुए. कम्युनिस्ट पार्टी ने पीडीएफआइ के नाम से
चुनाव लडा. उसको 96 में 48 सीटें आयीं. निजाम गया, कम्युनिस्ट पार्टी को बहुमत
मिला. लेकिन मराठवाडा में कांग्रेस को बहुमत मिल गया और इस तरह वह सत्ता में आयी.
कम्युनिस्ट पार्टी को सत्ता में नहीं आने दिया गया. आज जो नेपाली माओवादी बोल रहे
हैं, वह तेलंगाना में 60 साल पहले हो चुका है.आगे पढ़ें
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नेपाल में माओवादी बहुदलीय लोकतंत्र को 21वीं सदी का
समाजवाद कह रहे हैं. क्या वास्तव में ऐसा है? भारत के माओवादी इसे किस तरह ले रहे
हैं?
समाजवाद में बहुदलीय लोकतंत्र संभव नहीं है. नवजनवादी क्रांति
एक राजा को हटाने के लिए नहीं होता. यह जनता के हाथ में सत्ता देने के लिए होता है.
यह हल चलानेवाले की खातिर जमीन के लिए होता है. यह एक मजदूर के हाथ में उत्पादन के
साधनों का स्वामित्व सौंपने के लिए होता है.
इसके अलावा हम जिन्हें भारत में जनता का शत्रु समझते हैं, वे नेपाल में माओवादियों
द्वारा लायी जा रही इस नयी व्यवस्था का समर्थन कर रहे हैं. कांग्रेस, सीपीएम उसे
समर्थन दे रहे हैं. हमारे लिए कांगेस और सीपीएम का चरित्र छिपा हुआ नहीं है. इसलिए
लगता है कि नेपाल में जो हो रहा है, वह एक अच्छा संकेत नहीं है.
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नेपाल में जो
चल रहा है, वह माओवाद नहीं है. |
इसके अलावा एक और महत्वपूर्ण बात है. कभी भी हम नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी
(माओवादी) से साम्राज्यवाद के विरुद्ध कुछ नहीं सुन रहे हैं. जो कुछ भी मीडिया में
आ रहा है, अगर वह सही है, तो वे औद्योगिकीकरण का समर्थन कर रहे हैं. भारत में जो
सेज आ रहा है और इससे विस्थापन हो रहा है, उसके विरोध में पूरे देश में संघर्ष चल
रहे हैं. लेकिन नेपाल में इस तरह की प्रतिक्रियाओं पर, विदेशी पूंजी के आने को लेकर
वहां के माओवादी क्या सोचते हैं-यह मालूम नहीं है. इसे लेकर दोनों पार्टियों के बीच
में भी बहसें चल रही हैं. बहुदलीय व्यवस्था के बारे में भी बहस चल रही है. 'चीन के
दो रास्ते' के बारे में भी बहस चल रही है.
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लगभग दो साल पहले प्रचंड ने 'द हिंदू' को दिये अपने एक
लंबे इंटरव्यू में सत्ता और नेतृत्व के सवाल पर चीन और रूस की क्रांतियों और उनके
सामने आयी विफलताओं का उदाहरण देते हुए कहा था कि पार्टी नेतृत्व के सीधे रोजमर्रा
के कार्यों में लग जाने से नयी पीढी का प्रशिक्षण नहीं हो पाता है. इसलिए नेपाल की
कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने अपने प्लेनम में यह प्रस्ताव पारित किया था कि
प्रचंड समेत सभी शीर्ष नेता-बाबूराम भट्टाराई, बादल, मोहरा आदि रोजमर्रा की राजनीति
और सत्ता में शामिल नहीं होंगे, बल्कि वे नयी पीढी को प्रशिक्षित करेंगे. उन्होंने
कहा था कि यह नेतृत्व के लिए एक बडा त्याग होगा. उन्होंने कहा था कि 21वीं सदी में
20 वीं सदी से यह सबक हासिल करनेवाली पहली कम्युनिस्ट पार्टी नेकपा (माओवादी) है.
साथ ही उन्होंने स्टालिन और माओ की एक हद तक आलोचना भी की थी कि उन्होंने ऐसे किसी
वैज्ञानिक तरीके को नहीं अपनाया था. लेकिन नेपाल के हालिया चुनावों से पहले से ही
प्रचंड के ऐसे बयान आये कि वे राष्ट्राध्यक्ष या प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं. अब
तो वे सभी सत्ता में विभिन्न पदों पर हैं. नेकपा (माओवादी) आखिर किधर जा रही है?
नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी)
बहुत जल्दी पोजीशन शिफ्ट कर रही है. इसे लोग अच्छा मान रहे हैं कि नेपाल के माओवादी
रिजिड नहीं हैं, उनमें लचीलापन है. देखना यह है कि नेपाली माओवादी इस तरीके से कहां
पहुंचते हैं. लेकिन हम नवजनवादी क्रांति के लिए जिस माओवाद को जानते हैं, वह तो यह
माओवाद नहीं है.
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एक समय था कि अपने देश में भूमि सुधार सरकारों के एजेंडे
पर होता था, आंदोलनों का दबाव बेशक इसके पीछे होता था. लेकिन आज भूमि सुधार एजेंडे
पर ही नहीं है, जबकि पूरे देश में भूमि को लेकर जबरदस्त संघर्ष छिडे हुए हैं. इसकी
क्या वजहें हैं?
कुछ लोगों का तो यह भी कहना है कि नक्सलबाडी को कमजोर करने के
लिए भी पश्चिम बंगाल में भूमि सुधार हुआ. फिर आज वह जमीन वापस ली जा रही है. जम्मू
कश्मीर में शेख अबदुल्ला ने भूमि सुधार किया, पंजाब में आनंदपुर साहिब का भूमि
सुधार हुआ. अकाली दल आदि पार्टियां किसानों की पार्टियां थीं. किसानों के दबाव में
भूमि सुधार हुए. लेकिन आज ये भूमि सुधार को ढीला करने की बातें कर रहे हैं.
चंद्राबाबु नायडू ने नयी कृषि नीति के नाम पर भूमि सुधार को खत्म करने की ही कोशिश
की. आज किसी भी सरकार के एजेंडे पर भूमि सुधार नहीं है.
आज आदिवासियों के नाम पर
बहुत सारे कानून आ रहे हैं, जिनमें जंगल की जमीन पर आदिवासियों के कब्जे को खत्म
करने की कोशिश सरकारें कर रही हैं. 2000 के पहले तो सुप्रीम कोर्ट इसके विरुद्ध
रही, अब सुप्रीम कोर्ट भी इसके समर्थन में आ गयी है. पहले जमीन के गैर आदिवासियों
के हाथ न जाने देने का मामला था. लेकिन अब आदिवासियों-गैर आदिवासियों की बात नहीं
रही. अब तो यहां के लोगों को उजाडते हुए जमीन विदेशी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को
देने की बातें हो रही हैं.
आप देखिए कि जो जमीनें भूमि सुधार के दौरान किसानों को दी गयी थीं,
नंदीग्राम-सिंगूर में वही दो फसली-तीन फसली जमीनें टाटा-सालेम को दी जा रही हैं.
आंध प्रदेश में एससी-एसटी की एसाइल्ड लैंड ली जा रही है, इस नाम पर कि आप तो खेती
नहीं करते. जब खेती के लायक सरकारी संरचना ही नहीं मौजूद है, तो लोग खेती कैसे
करेंगे? पहले तो उनकी खेती को चौपट किया गया और अब उनसे इस तर्क पर जमीन छीनी जा
रही है कि वे उस पर खेती नहीं कर रहे हैं. आज सबसे बडे जमींदार तो मल्टीनेशनल
कंपनियां और दलाल सरकारें बन गयी हैं और आज सबसे बडा माल जमीन बन गयी है.
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हर देश में अपने-अपने समय में उद्योगों का विकास हुआ है.
अपने देश में भी इसकी प्रक्रिया चलती दिख रही है. लेकिन ऐसा क्यों है कि अपने यहां
के कृषक समाज के साथ औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया की संगत नहीं बैठ रही है? लगातार
संघर्षों की वजह क्या है? और इसी के साथ एक दूसरा तबका इस बात की भी वकालत कर रहा
है कि उद्योग आयेंगे तो दलितों को सामंती उत्पीडन से मुक्ति मिलेगी, उन्हें रोजगार
मिलेगा.
असल में अपने देश में ऐसा नहीं है कि कृषि जाकर उद्योग आ रहा
है. किसी कृषि प्रधान राज्य में उद्योग ऐसे आने चाहिए कि उनसे कृषि को मदद मिले.
चीन में जो माओ ने कहा था कि कृषक समाज में दो पांवों से चलें. उद्योग और कृषि दो
पांव रहें और पहला पांव दूसरे की मदद करे. उद्योग कृषि को आगे बढाने के लिए होना
चाहिए.
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दो उदाहरण बंगाल से ले सकते हैं. सिंगूर में कृषि की कीमत पर कार आ रही है. कार का
कृषि से क्या लेना-देना? कितने किसानों को कार फैक्टरी में नौकरी मिल पायेगी? अब तो
अधिकतर उद्योग भारी तकनीक आधारित आ रहे हैं. वे रोजगारपरक नहीं होते हैं. पंजाब में
जब पेप्सी को जमीन दी गयी तो कहा गया था कि 30 हजार बेरोजगार जवानों को काम देंगे.
लेकिन कितने लोगों को काम मिला? सिर्फ कुछ सौ लोगों को.
पहले कोल माइन्स भी बडे पैमाने पर रोजगार देते थे. लेकिन उनमें भी तकनीक आने से
रोजगारों में कमी आयेगी. ऐसे में दलितों को तो और भी रोजगार नहीं मिल पायेगा,
क्योंकि भारी तकनीक से वे अपरिचित रहते हैं. हैदराबाद को हाइटेक सिटी बनाया गया. आप
आकर देखिए कि वहां कितने दलित काम कर रहे हैं.
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भारत में
साम्राज्यवाद का सामंत है सेज. |
इसलिए आज उद्योग लगने का मतलब रोजगार बढना नहीं है. आज उद्योगों का मतलब विकास नहीं
है. वे हाइटेक होते हैं और वे जितने लोगों का विस्थापन करते हैं, रोजगार उससे कहीं
कम लोगों को मिलता है. इसीलिए माओवादी इस तरह के विकास का विरोध कर रहे हैं.
आप देखिए कि जितने बडे रोजगार देने वाले सार्वजनिक क्षेत्र थे, वे सब खत्म हो गये.
आइडीपीएल को खत्म करते रियल एस्टेट बनाया जा रहा है. एचएमटी व भेल बंद हो गये.
उर्वरक कारखाने थे, वे बंद हो गये. ज्यादा लोगों को रोजगार देनेवाले सेक्टर और
उद्योग खत्म हो गये हैं. अब के उद्योग उत्पादक उद्योग नहीं हैं. इधर अनुत्पादक
उद्योग बढे हैं. हम अधिक रोजगार देनेवाले उद्योगों का विरोध नहीं कर सकते हैं.
लेकिन जितने भी उद्योग आ रहे हैं-वे सब मल्टीनेशनल कंपनियों के हैं, कम रोजगार
देनेवाले और यहां के संसाधनों को निचोड़ कर मुनाफा अपने देश में ले जानेवाले हैं.
हमारे देश को इससे क्या फायदा मिलेगा? हम दरअसल इसका विरोध कर रहे हैं.
आंध्र प्रदेश में इंदिरासागर नाम के रिजर्वायर बन रहा है. इसमें 304 आदिवासी गांव
डूब जायेंगे. कहा जा रहा है कि इससे डेल्टा में एक से दो लाख एकड सिंचाई होगी.
काकीनाडा से विशाखापत्तनम तक एक कॉरिडोर बन रहा है. 23 एमओयू साइन किये जा चुके
हैं. यह बस नाम के लिए ही औद्योगिक कॉरिडोर है, यह मल्टीनेशनल कंपनियों के लिए किया
जा रहा है. यह तथाकथित औद्योगिक विकास उन्हीं के लिए हो रहा है.
अभी जो सेज हैं, उसमें यह छूट है कि आप 30 प्रतिशत भूमि पर उद्योग लगा सकते हैं और
70 प्रतिशत को रियल एस्टेट बना सकते हैं. इस तरह देश में कई बडी जागीरें बन
जायेंगीं, जहां सरकार भी दखल नहीं दे सकेगी. देश में 1857 के पहले की स्थिति कायम
हो जायेगी, जहां बडी-बडी जागीरें होंगी और उनमें विदेशी कंपनियों के कानून चलेंगे,
भारत सरकार के भी कानून नहीं. हम इसे साम्राज्यवाद के सामंत कह रहे हैं.
अभी सेज के लिए तथा और भी जितनी परियोजनाएं चल रही हैं, उनमें डूबनेवाले या
उजडनेवाले किसान हैं. परियोजनाओं के बनने के समय ठेकेदार फायदा उठाते हैं और बन
जाने पर मल्टीनेशनल कंपनियां. किसानों को कुछ नहीं मिलता,सिवाय उजड़ने के.
हैदराबाद के नजदीक 1200 एकड जमीन पर सेज बन रहा है. इसमें एक नदी आती है-दुदुंभी.
देखने में यह एक छोटी बात लगती है. लेकिन यह है नहीं उतनी छोटी. इस सेज से आसपास के
200 गांवों में कंपनी के कचरे से नुकसान पहुंचेगा, क्योंकि वह नदी प्रदूषित हो
जायेगी, जिस पर ये गांव निर्भर हैं. आंकड़ों में देखियेगा तो सेज सिर्फ तीन गांवों
तक ही है.
ऐसे बदलावों के बीच अभी हम देखेंगे कि किसान उजड़ कर मजदूर तो नहीं बन जा रहा है.
अब मजदूर कहां हैं? अब तो ठेके पर मजदूर रखे जाते हैं. वर्कर्स नहीं रहे अब. अब तो
कहीं भी संगठन नहीं रहने की परंपरा है. अब ओपन यूनिवर्सिटीज हैं, डिस्टेंस एजुकेशन
है. जेएनयू, दिल्ली विवि आदि एकाध उदाहरणों को छोड दें तो कहीं भी कैंपस नहीं रहा.
राज्यों में अब विकेंद्रीकृत शिक्षा व्यवस्था आ रही है. जो संघर्ष करने की शक्तियां
थीं-छात्र और मजदूर, उन्हीं को विकेंद्रीकृत कर दिया गया है.
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तो बदलती हुई स्थितियां क्या संघर्षों के तरीके को भी
बदलेंगी? वे किस तरह के संघर्षों को जन्म देंगी? क्या संघर्षों का वर्तमान स्वरूप
बदलेगा?
विकास के नाम पर किसानों से जो जमीनें ली जा रही हैं, उन पर
आठ लेन की सडकें बन रही हैं, मेगासिटी बन रही है. विशाल संरचनाएं खडी हो रही हैं.
इससे खेती की जमीन कम होती जा रही है. सामंतवाद में खेती के लिए जमीन होती थी,
लेकिन वह हलवाहे के पास नहीं होती थी. जब पहले संघर्ष चला तो जमीन हमारे कब्जे में
आयी और किसानों ने उस पर खेती शुरू की. अब फिर वह जमीन सरकार के पास है, जिस पर
स्ट्रक्चर खडे किये जा रहे हैं. अब इसके बाद हम जमीन पर कब्जा करेंगे तो उस जमीन भर
पर ही नहीं कब्जा करना होगा, उसके स्ट्रक्चर को भी कब्जा करना होगा, उसे तोडना भी
पडेगा. अब जमीन पर कब्जे का संघर्ष भोजपुर आदि जैसा नहीं होगा.
सामंतवाद में पहले सिर्फ जमीन के स्वामी सामंत को ही हटाना होता था, अब जमीन को
लेने के लिए उस पर खडे स्ट्रक्चर के साथ-साथ उसके स्वामी को हटाना पडेगा. इसलिए अब
बहुत अधिक हिंसक संघर्ष करना होगा. जिस तरह की स्थितियां विकसित हो रही हैं, इनमें
सबसे बडी समस्या आदिवासियों को होगी. ऊपर जो बात कही मैंने, उसमें 304 गांवों के
डूबने के बाद अगर उन गांवों के आदिवासियों का पुनर्वास भी होता है, तो वे अपनी
संस्कृति को खो चुके होंगे, जिसे वे फिर से नहीं पा सकेंगे. ऐसी स्थिति छत्तीसगढ
में है. वहां सलवा जुडूम का शिकार बने हजारों लोग कैंपों में रह रहे हैं. वे अगर
फिर से बसा भी दिये जायेंगे तो वे अपनी संस्कृति कहां से लायेंगे? इसी बीच अगर
एमओयू वाली कंपनी ने आकर काम भी शुरू कर दिया हो तो उन्हें फिर से बसाया कैसे
जायेगा?आगे पढ़ें
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देश में अस्मिता की राजनीति का एक तरह से दौर चल रहा है.
तरह-तरह की अस्मिताएं खडी की जा रही हैं-हो रही हैं. ये समाज द्वारा एक एकीकृत
संघर्ष की संभावना को कितना प्रभावित करेंगी? या क्या ये इसमें मददगार हैं?
अस्मिता तो ऐसी ही चीजों में आती है.
साम्राज्यवाद एक ऐसा स्वभाव है, जो अस्मिता को खत्म करता है. अस्मिताओं का
अंतर्विरोध साम्राज्यवाद से है, लेकिन उन्हें आपस में ही एक दूसरे के खिलाफ खडा किया
जा रहा है. अस्मिता का मतलब है-अपनी पहचान के लिए लड़ना. आज ऐसा नहीं हो रहा है.
अलग-अलग अस्मिताओं का एक साझा शत्रु है, साम्राज्यवाद और राजसत्ता. लेकिन ये
अलग-अलग अस्मिताएं साम्राज्यवाद और राजसत्ता को अपने साझे शत्रु के रूप में नहीं
देख रही हैं.
भारतीय राज्य में साम्राज्यवाद है, सामंतवाद है, हिंदुत्व है. खास कर दलित आंदोलन
संवैधानिक ढांचे से बाहर नहीं जा पा रहे हैं. इसीलिए मायावती सिंबल बन रही हैं.
गांव का अनपढ दलित वर्ग संघर्ष में आ रहा है-जमीन के लिए. वह सशस्त्र संघर्ष में आ
रहा है, लेकिन पढा-लिखा दलित संवैधानिक ढांचे में ही रह जा रहा है. सबकी दृष्टि वोट
पॉलिटिक्स तक ही जा रही है.
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कम्युनिस्ट
पार्टी चेतना देनेवाली होती है. |
इसकी एक और वजह भी है. इस बात ने कि भारत का संविधान डॉ आंबेडकर लेकर आये हैं,
पढ-लिखे दलितों पर एक नैतिक जिम्मा बना दिया है कि वे इस संविधान को मानें. वे
बौद्ध धर्म को ले रहे हैं. वे अहिंसा की बात करते हैं. बुद्ध ने अहिंसा समाज के लिए
कही है, राज्य के लिए नहीं. जब बुद्ध अहिंसा की बात करते हैं तो वे समाज के बारे
में कह रहे होते हैं. वे राज्य के लिए अहिंसा की बात नहीं करते. वे जानते थे कि
राज्य के कामकाज में हिंसा होती है, सत्ता में हिंसा के जरिये ही आया जाता है.
इसीलिए वे अहिंसा की बात राज्य के लिए नहीं करते. उसे छोड देते हैं.
आंध्र प्रदेश में कांचा इलैया से यही बहस हो रही है. इलैया अहिंसा की बात करते हैं.
लेकिन बुद्ध ने तो स्टेट की बात छोड दी है. वे जानते थे कि सत्ता में बिना हिंसा के
आ ही नहीं सकते. इसीलिए वे सत्ता छोड़ कर और सिविल सोसायटी में आये. जहां सत्ता की
बात आती है, हिंसा वहां होती ही है. जनता और जनता के बीच के वर्ग विरोध अहिंसक तरीके
से ही दूर होते हैं, लेकिन जनता और जनशत्रु के बीच के वर्ग विरोध हिंसक तरीके से
दूर होते हैं.
इस देश में राष्ट्रीयताओं के आंदोलन हैं, लोकतांत्रिक शक्तियां हैं, अस्मिता के
आंदोलन हैं. अगर ये अलग-अलग शक्तियां और अस्मिताओं के आंदोलन अपने बीच के विरोधों
की वजह साम्राज्यवाद और राजसत्ता में नहीं देखते तो ये अंततः अनुत्पादक हो जायेंगे.
अलग-अलग अस्मिताओं के बीच का संघर्ष कितनी गलती पर है, इसे आप इस तरह देख सकते हैं.
कोई पुरुष होने से पितृसत्तात्मक होता है या पितृसत्तात्मक एक स्वभाव है? दरअसल यह
संपत्ति का सवाल है. जैसे संपत्ति आती है, लोग ब्राह्मणवादी बन जाते हैं-भले ही वे
दलित हों. आप अपने आसपास देखिए कि पिछडी जातियों के लोगों के पास पैसा जमा होते ही
वे ब्राह्मणवादी हो जाते हैं. इसी तरह इंदिरा गांधी एक महिला होते हुए भी देश की
सबसे बडी पितृसत्तात्मक शासक थी. इसलिए मूल चरित्र पर जोर देने की जरूरत है न कि
ऊपर से दिखनेवाले अंतरों पर.
अस्मिता की राजनीति में यह भी कहा जाता है कि इसका चरित्र मार्क्सवाद विरोधी है. कि
मार्क्सवादी तो क्लास स्ट्रगल की बात करते हैं. कि ये अस्मिता की बात नहीं करते.
दरअसल अलग-अलग अस्मिताओं की बात करनेवाले लोग यह नहीं देखते कि इनमें स्टेट का क्या
रोल है. भारत में मुसलिम समाज पर खुद को हिंदू समझनेवाले लोग हमला कर रहे हैं. उनकी
समझ है कि हिंदू अपने राज्य में हैं और मुसलिम शासित हैं. दुनिया में साम्राज्यवाद
के लिए मुसलिम दुश्मन हैं. जितने भी मुसलमान देश हैं, उनके पांव के नीचे तेल है. तो
राजनीतिक अर्थशास्त्र की दृष्टि से जितनी भी मुसलमान आबादी है, वह संवेदनशील है. उस
आबादी के पास हथकरघा है, शिल्प है, कारीगरी है. यह हथकरघा, शिल्प, कारीगरी मार्केट
के लिए खतरा है. इसलिए वे मुसलमानों को गंदा बता कर उन्हें अपने लिए एक खतरे के
बतौर पेश करते हैं.
अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में इसलामवाद भी एक प्रगतिशील कंटेंट है. ऐसे तो इसलाम
एक पिछडा धर्म बताया जाता है, जहां कि परदा-बुर्का जैसी चीजें हैं. लेकिन हमें धर्म
और इसलामवाद को समझना होगा. एक तो उनके पांव के नीचे तेल है, दूसरे उनके यहां हथकरघा
है, इसलिए उन पर हमला किया जाता है, देश से लेकर दुनिया भर में.
इसलामवाद उन्हें एक सुरक्षा दे रहा है. इसे समझना होगा. अभी हालात ऐसे बन रहे हैं
कि आदिवासियों के पांव के नीचे खनिज हैं, उन्हें खत्म कर दिया जा रहा है. मुसलमानों
के साथ भी यही हो रहा है. साम्राज्यवाद विरोधी सामूहिक प्रतिरोध के सिलसिले में हमें
आदिवासियों और मुसलमानों के अस्मिता आंदोलनों को भी देखना है. यही वजह है कि आदिवासी
क्षेत्रों में माओवादी आंदोलन है. 150 वर्ष पहले के सिद्धू-कान्हू के संघर्ष की यह
निरंतरता है. बीच में अंतर बस यह आया है कि उनके बीच मार्क्सवाद आया तो यह उनसे जुड
गया.
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अंत में आपसे एक दिलचस्प सवाल. आप फिल्में देखते हैं?
उनमें नक्सलवाद को जिस तरह चित्रित किया जाता है, उसे आप किस तरह लेते हैं?
अपने यहां फिल्में गंभीरता से नहीं बनतीं. वे बस सतही तौर पर
चीजों को चित्रित करती हैं. एक बात समझने की है कि कम्युनिस्ट पार्टी मुक्तिदाता
नहीं होती. वह चेतना देनेवाली होती है. वह लोगों को संघर्ष में ले जानेवाली होती
है. लेकिन सिनेमा तो यही संदेश देता है.
यहां हम सिनेमा में एक विरोधाभास देखते हैं. सिनेमा एक आधुनिक माध्यम है, लेकिन वह
संदेश अवतारों का देता है. अधिकतर फिल्में यह संदेश देती हैं कि जब-जब धर्म की हानि
होती है तो अवतार आते हैं. जब बुराई बढती है तो मुक्तिदाता आता है. इसी क्रम में वे
कभी देवताओं को दिखाते हैं, कभी नायकों को तो कभी नक्सलियों को. लेकिन यह चीजों को
एक गलत परिप्रेक्ष्य में रख देता है.
26.09.2008,
01.55 (GMT+05:30) पर प्रकाशितॉ
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| इस समाचार / लेख पर पाठकों की प्रतिक्रियाएँ | |
| Sugandha Mishra Delhi | | | वरवरा राव ने जो मुद्दे उठाए हैं, वे बहुत महत्वपूर्ण हैं. उन पर गंभीरता से विचार करने की जरुरत है. | | | | |
| श्रीकांत दिल्ली | | | वरवर राव चाहे जो कुछ कहें लेकिन उनके माओवादी मित्रों ने छत्तीसगढ़ में जिस तरह से उत्पात मचाया है, उसमें उनके निशाने पर केवल औऱ केवल आदिवासी हैं. जिन्हें वे वर्ग शत्रु बताते हैं, उनसे तो लेवी वसूल कर माओवादी दावत उड़ा रहे हैं. आंकड़े उठा कर देखें वरवर साहब तो उन्हें अफने साथियों की हरकतों पर शर्म आ जाएगी. | | | | |
| Kumar suresh Delhi | | | Prachand is the real face of maoist movement. remember his interview with Varadrajan-" we decided that when we are in power, the whole team of our leadership will not be part of day-to-day power. Not just me but our team. Dr. Baburam Bhattarai, Badal, Mohra, others, we have a leadership team which arose from the midst of the struggle. When we go to Kathmandu, we will not be involved in power struggles or day-to-day power. That will be for the new generation, and we will train that generation. This is a more scientific approach to the question of leadership. If we don't do this, then we will have a situation where as long as Stalin is alive, revolution is alive, as long as Mao is alive, revolution is alive. This will be a big sacrifice for our leadership. Of course it does not mean we will be inactive or retire from politics. Our leadership team will go into statesmanship. We are hoping that by doing this we will solve a very big ideological problem of the communist movement. This is not only a technical question but a big ideological question. There can be no question of concentrating power in the hands of any individual or group. When we placed this resolution before the plenum, then our entire leadership team gained confidence in themselves, the movement and the line. Our unity has become much stronger. Now we are in an offensive mood." And what he is doing now ? Shame prachand....Shame....! | | | | |
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