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कनक तिवारी | बस्तर में नक्सली हिंसा
बहस
बस्तर में नक्सली
हिंसा, सलवा जुड़ूम और गांधी की दुर्दशा
कनक तिवारी
छत्तीसगढ़ नक्सली हिंसा से झुलस रहा है. नेपाल, पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, ओड़िसा,
आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश से होकर छत्तीसगढ़ तक एक गलियारा बन गया है
जिससे नक्सली तत्व आ जा रहे होंगे. नक्सलवाद का रिश्ता सघन वनों से होता है. यह अलग
बात है कि जंगलों में आदिवासी संस्कृति विकसित हुई है. इसलिए नक्सलवाद का आदिवासी
जीवन से रिश्ता ढूंढ़ लिया जाता है.
भारत में अकूत वन संपदा आज भी है. यह उसका अर्थशास्त्र है. भारत दुनिया का सबसे बड़ा
लोकतंत्र है. यह उसका राजनीतिशास्त्र है. भारत में चीन को छोड़कर दुनिया की सबसे बड़ी
आबादी है. यह उसका अभिशाप हो रहा है, जबकि उसे एक बड़ी मानव शक्ति के रूप में समझा
जाना चाहिए था. अंग्रेजी हुकूमत के दुष्परिणामों में उसकी सड़ी गली शासन और न्याय
व्यवस्था भी भारत के खाते में आई है.
आजादी का आंदोलन एक भावुक विद्रोह था जिसके एक छोर पर महात्मा गांधी और दूसरे छोर
पर सुभाष बोस और भगतसिंह जैसे असंख्य देशभक्त मौजूद थे. संविधान सभा में लेकिन ऐसे
लोग हिंदुस्तान का बुनियादी संविधान और प्रशासकीय ढांचा रचने में हावी हो गए जो
प्रखर बुध्दिजीवी तो थे, लेकिन आजादी के आंदोलन से उनका दूर दूर का रिश्ता नहीं था.
यह दुखद लेकिन सच है कि संविधान सभा में आजादी के सूरमाओं ने ऐसे बुध्दिवादियों को
बहुत अधिक महत्व दिया. परिणाम यह है कि हिंदुस्तान को जिस रास्ते पर चलना पड़ा, वह
सत्ता का राजपथ है, सेवा का जनपथ नहीं.
आजादी के बाद सत्ता में आना हर राजनीतिक पार्टी और विचारधारा का अधिकार है.
कम्युनिस्ट आंदोलन देशज प्रकृति का नहीं है इसलिए उसे माक्र्स, लेनिन और माओ से
प्रेरणा लेने का अधिकार है. यह अधिकार लेकिन भारतीय संविधान नियंत्रित करता है और
उन रास्तों को बनाने की इजाजत नहीं देता जिससे संविधान का मखौल उड़ाया जा सके.
धीरे-धीरे कम्युनिस्ट विचारधारा में जो जितना उग्र होता गया वह उतना प्रगतिशील और
गरीबों का हिमायती अपने आपको कहने लगा.
जब किसी को दीवार तक धकेल दिया जाएगा तब हमला करके ही बचाव किया जा सकता
है-साम्यवाद का यह मानक पाठ बस्तर के आदिवासियों को भी पढ़ाया गया. भारतीय किस्म का
समाजवाद छत्तीसगढ़ में काफी फला फूला लेकिन संगठन के अभाव में और व्यक्ति को समूह से
बड़ा समझने की गफलत पाले समाजवादी इतने हिस्सों में टूट गए कि अब उनका कोई नामलेवा
भी नहीं है. हिंदूवादी संगठनों ने यहां पहले तो कोई उपस्थिति दर्ज नहीं कराई लेकिन
पूरा देश जानता है कि कांग्रेस की कमजोरियों की वजह से किस तरह हिंदू
प्रतिक्रियावाद को राजनीतिक विचारधारा के केन्द्र में आने से रोका नहीं जा सका.
लगभग अकेले संगठन के रूप में कांग्रेस में छत्तीसगढ़ का रचनात्मक इतिहास लिखना तो
शुरू किया लेकिन केवल सत्ताभिमुखी हो जाने की वजह से यह पूरा कारवां इस तरह बिखरता
चला गया कि गैर कांग्रेसी विचार धरे लोग कांग्रेस में इस कदर शामिल हो गए कि वे आज
बहुमत में हैं. राजनीति में धींगामस्ती और नूराकुश्ती इस कदर गड्डमगड्ड हो गई है कि
जनता को पता ही नहीं चलता कि कौन किस विचारधारा का प्रतिनिधि है.
छत्तीसगढ़ सघन नक्सली हिंसा का प्रदेश हो गया है. अनुमानत: केवल बस्तर संभाग में एक
लाख से अधिक नक्सली हो गए हैं. सरगुजा क्षेत्र में भी नक्सली घुसपैठ की स्थितियां
जस की तस हैं, यद्यपि वहां स्थिति अपेक्षाकृत नियंत्रण में है. नक्सल समस्या का
लगभग तीन दशकों का चिन्तनीय इतिहास हो गया है. प्रशासनिक उपेक्षाओं और पूंजीपतियों,
ठेकेदारों और उद्योगपतियों (जिनमें सार्वजनिक क्षेत्र भी शामिल है) के द्वारा किए
गए उत्तरोत्तर प्रकृति और परिमाण के शोषण ने छत्तीसगढ़ के आदिवासी अंचलों में
प्रतिक्रिया के रूप में नक्सलवाद को सक्रिय होने का अवसर जुटाया है.
भारतीय संविधान के निर्माताओं ने आदिवासियों के हितों का संरक्षण करने के लिए विशेष
उपबंध किए लेकिन उनको सही ढंग से अमल में नहीं लाया जा सका. स्वयं आदिवासी नेतृत्व
में इन उपबंधों को लागू करने के संबंध में हिंसात्मक मतभेद तक उजागर हुए हैं. छठवीं
अनुसूची के अनुपालन की समस्या इसका एक उदाहरण है. बस्तर, सरगुजा और रायगढ़ सहित
आदिवासी क्षेत्र जंगलों में ही अवस्थित होते हैं.
प्रकृति ने छत्तीसगढ़ को भरपूर प्राकृतिक संपदा दी है. ऐसी प्राकृतिक संपदा (मुख्य
खनिज) पर राज्य और आदिवासियों को बहुत अधिक अधिकार नहीं मिल पाए हैं. जिन मूल
कानूनों के आधार पर लोकतंत्रीय शासन चल रहा है, वे अधिकतर उन्नीसवीं सदी में
अंग्रेजों द्वारा रचित किए गए हैं. भारतीय दंड संहिता, दंड प्रक्रिया संहिता,
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, भारतीय संविदा अधिनियम, संपत्ति अंतरण अधिनियम, व्यवहार
प्रक्रिया संहिता, भारतीय वन अधिनियम, भू अर्जन अधिनियम जैसे कानून 1857 के
जनसंग्राम की प्रतिक्रिया के स्वरूप बनाए गए प्रतीत होते हैं.
छत्तीसगढ़ में पनप रहा नक्सलवाद अपनी मूल दार्शनिक (भले ही विवादग्रस्त) प्रकृति से
भटक गया प्रतीत होता है. यह भी संभव है कि नेपाल, बंगाल, बिहार, झारखंड, ओड़िसा,
आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के आदिवासी/वन इलाके हिंसक
तथाकथित माओवादी गतिविधियों के प्रसार के लिए एक कॉरिडॉर का निर्माण करते हैं.
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) और कम्युनिस्ट पार्टी
(मार्क्सवादी-लेनिनवादी) जैसे राजनीतिक संगठनों के क्रमश: और अधिक उग्र तथा हिंसक
होते जाते धड़े लोकप्रिय भाषा में नक्सलवादी कहे जा रहे हैं.
संविधान के रास्तों को अपनाकर कोई भी राजनीतिक विचारधारा लोकतंत्र में जनसमर्थन
जुटाने के लिए स्वतंत्र है. लेकिन उसका यह अर्थ नहीं है कि भारतीय संविधान में
वर्णित संवैधानिक आजादियों को हिंसक गतिविधियों में बदल दिया जाए. संविधान में यह
भी उल्लिखित है कि उपरोक्त आजादियों को राज्य सत्ता द्वारा युक्तियुक्त आधारों पर
नियंत्रित और प्रतिबंधित किया जा सकता है, जो भारत की प्रभुता और अखंडता, राज्य की
सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों, लोक व्यवस्था, शिष्टाचार या
सदाचार के हितों अथवा अदालतों की अवमानना, मानहानि या अपराधों को भड़काए जाने आदि के
आधारों पर होंगे.
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नक्सलवाद हिन्दुस्तान की एक बढ़ती विकराल समस्या है. साठ के दशक में जन्मा नक्सलवाद
चारु मजूमदार और कनु सान्याल जैसे विप्लवी धुर वामपंथी माओवादी विचारकों के ज़ेहन से
निकलकर महाश्वेता देवी की हजार चौरासी की मां के कथानक तक विस्तृत हुआ है. आज देश
के आधे से अधिक राज्यों में तरह तरह का नक्सलवाद कहर बरपा रहा है. घोषित तौर पर वह
अब भी सामाजिक-आर्थिक प्रक्रिया में बदलाव का हामी है लेकिन अब उसकी बानगी अलग
किस्म की है. वह मूल नक्सलवाद का घटिया संस्करण है.
व्यापारियों और उद्योगपतियों से हफ्ता वसूलना, ठेकों में कमीशन खाना और छोटे और
मझोले कद के मैदानी सरकारी अफसरों को अपनी हिंसा का शिकार बनाना नक्सलवाद का नया
प्रदर्शनकारी चोचला है. वह उन आदिवासियों को बंधक बनाता है जो उसकी विचारधारा में
विश्वास नहीं रखते. वह उनसे जिरह करता है और उनका जिबह भी. युवक युवतियां रूमानी
उम्र के दोष के कारण उसकी ओर आकर्षित होते हैं और एक तरह की हिंसक संस्कृति घने
जंगलों में जड़ जमाती जा रही है. नक्सलवाद के पास अत्याधुनिक हथियार हैं और वह धीरे
धीरे अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद का बगलगीर भी बनाया जा सकता है.
इसमें कोई शक नहीं कि भारतीय शासन व्यवस्था को चुनौती देने वाली कई विचारधाराओं में
एक विचारधारा नक्सलवाद कही जा सकती है. कोई 40 वर्ष पहले पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी
इलाके से प्रसूत यह विचारधारा हिन्दुस्तान की राजनीति का एक अनिवार्य हिस्सा इस तरह
बन गई है कि उसमें सही हो या गलत इजाफा ही इजाफा दिखाई पड़ रहा है.
देश में पहले भी कई विचारधाराओं और व्यक्तियों ने मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था को लेकर
सवाल खड़े किए हैं. इन सबका उत्तर दे पाना लोकतंत्रीय प्रणाली के अंतर्गत संभव नहीं
भी दिखा है लेकिन इसके बावजूद लोकतंत्र है कि हाथी की चाल से चल तो रहा है. आज
भारतीय लोकतंत्र को इस बात का गौरव तो उपलब्ध है कि वह दुनिया की सबसे बड़ी
जम्हूरियत है. यदि लोकतंत्र का बेड़ा गर्क होगा तो पूरी दुनिया में जम्हूरियत के
सामने भारत की असफलता के बाद खत्म हो जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचेगा.
यह भी सही है कि लोकतंत्र शासन करने का अकेला तरीका नहीं है और बिल्कुल सफल हो ऐसा
तो कहा ही नहीं जा सकता. शासन के अन्य तरीके असफल हों ऐसा भी नहीं है. लोकतंत्र में
पूंजीवाद के पनपने की काफी गुंजाइशें हैं जो दिखाई पड़ रही हैं. भारतीय लोकतंत्र
अमेरिकी और ब्रिटिश पध्दतियों के घालमेल के बावजूद प्राचीन भारतीय राजनीतिक आदर्शों
का कारगर अमल भी नहीं है.
उपरोक्त विपरीत परिस्थितियों के बावजूद भारतीय लोकतंत्र में अराजकता नहीं है. मैं
महात्मा गांधी के विचारों का लगातार समर्थक हूं लेकिन उन्हें ताजा हालात में
संशोधित करने की इच्छा भी रखता हूं.
गांधी सामाजिक जीवन में सरकार की दखलंदाजी को लगातार घटाते जाने के समर्थक थे. वे
खुद को अराजकतावादी कहते थे लेकिन उसके नैतिक और सैध्दांतिक अर्थ में. नक्सलवादी भी
खुद को अराजकतावादी कहते हैं लेकिन पूरी राजनीतिक व्यवस्था को तहस-नहस कर देने के
राजनीतिक अर्थ में. वे खुद को माओवादी कहते हैं. माओ त्से तुंग चीन के बड़े
क्रांतिकारी, तानाशाह और लोकप्रिय नेता थे. ये तीनों विपरीत रोल एक ही व्यक्ति ने
दुनिया के सबसे बड़े देश में अदा किए.
माओ की विचारधारा चीन की देशज विचारधारा होने के अतिरिक्त भारत में भी आयातित हुई
है जिसके अनुसार यह कहा जा रहा है कि हिन्दुस्तान को भी उसी रास्ते पर चलना चाहिए
जो चीन का रास्ता रहा है. यह कैसे हो सकता है. चीन की भौगोलिक, आर्थिक, राजनीतिक,
सामाजिक क्रांतिकारी परिस्थितियां हिन्दुस्तान के सामानांतर तो हो सकती हैं लेकिन
उन्हें एक जैसा नहीं कहा जा सकता. आयातित विचारधाराएं और पी0एल0 480 के गेहूं में
क्या फर्क है. इसलिए यह तर्क सिरे से खारिज किया जाना चाहिए कि माओ की विचारधारा के
बिना हिन्दुस्तान का कुछ बनने वाला नहीं है. ऐसे विचारों के केन्द्र में आ जाने से
ही सारा मामला गड्डमगड्ड हो जाता है.
आतंकवाद और नक्सलवाद हिंसा पुत्र होने के बावजूद सौतेले भाई हैं, सगे नहीं. आतंकवाद
भारतीय संविधान को चुनौती देता है और देश के सार्वभौम हिस्से को अलग राष्ट्र में
तब्दील होने की हिमायत और हिमाकत करता है. उसे जनसमर्थन प्राप्त नहीं होता लेकिन वह
अलगाववाद की घुट्टी जाति, धर्म और भूगोल की विसंगतियों के कारण पिलाता रहता है.
नक्सलवाद इसके विपरीत राज्य व्यवस्था की खामियों के सबसे प्रबल और हिंसक जनप्रतिरोध
का मुखौटा लगाकर एक राजनीतिक आंदोलन के रूप में इतिहास से अपनी पहचान मांगता है.
इसमें कोई शक नहीं कि अंग्रेजी पध्दति की राज्य व्यवस्था रचने में हमारे पुरखों की
यही समझ थी कि अधिकारी और नेता बुनियादी तौर पर ईमानदार तथा जनहित को लेकर
प्रतिबध्द होंगे. स्वातंत्र्योत्तार भारत में इतने अधिक जाहिल, अशिक्षित, भ्रष्ट,
फिरकापरस्त और जनविरोधी नेता पैदा हुए कि पूरी शासन व्यवस्था ताश के पत्तों की तरह
भरभरा कर गिर गई है. अब तो भीड़ की ओर उछाला गया हर पत्थर भ्रष्ट को ही लगता है.
मसलन बस्तर के जंगल, पंजाब, राजस्थान और उत्तरप्रदेश आदि से आए मुस्टंडे ठेकेदारों
ने खुलेआम काट लिए. यहां तक कि उनके इशारे पर खुद आदिवासी नेताओं ने मालिक मकबूजा
कांड रचकर बस्तर के जंगलों का विनाश कर दिया.
कमीशनखोरी के चक्कर में बस्तर में पाइन परियोजना लागू करने का राजनीतिक कुचक्र रचा
गया. पुलिस के अधिकारी हर आदिवासी की गाय, बकरी, मुर्गी और मां, बहन, बेटी को अपने
शोषण और हविश का शिकार बनाने में मशगूल रहे. चिरौंजी के दाम नमक से सस्ते हुए.
राजस्व अधिकारी आदिवासियों की जमीनें नक्शों पर हड़पकर बड़े ठेकेदारों, उद्योगपतियों
और सरकारी अफसरों के खातों में चढ़ाते रहे. भूमिसुधार का दावा करने वाली सरकार सुधार
की भूमि से गायब रही. जल, जंगल और जमीन से आदिवासियों को बेदखल किया जाता रहा.
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गैर आदिवासी आबादी इतनी तेजी से बढ़ी कि कुछ विधानसभा क्षेत्रों को अनारक्षित करने
की मांग उठने लगी. शराब नीति की खाल ओढ़कर लठैत और ठेकेदारों के गुर्गे बस्तर की
अस्मिता को बिकाऊ अस्मत समझकर उससे खेलते रहे. वे पुश्तैनी आदिवासी अधिकारों को
अय्याशी और जुल्म के गुर्गों के बल पर बलात्कृत करते रहे. आरक्षण की नीति से लाभ
उठाकर जो मलाईदार आदिवासी नेता सपरिवार पनपे, वे उद्योगपतियों और ठेकेदारों के
दरबारी बनकर कोर्निश बजाते रहे.
नौकरशाही भारत में स्थायी दलाली का समानांतर बनती गई है. जितनी बड़ी नौकरी उतनी बड़ी
और स्थायी दलाली की गारंटी राज्य व्यवस्था में है. बस्तर के अन्य आदिवासी इलाकों की
तरह वनोपजों पर आदिवासी का पुश्तैनी नैसर्गिक अधिकार कथित सभ्य कानून बनाकर क्रमश:
छीना जाता रहा. घोटुल जैसी ऐतिहासिक और महान मानवीय गरिमा की कुंठारहित परंपरा को
हरम की शकल में देखा जाने लगा. आदिवासी कन्याओं की पवित्रता नगरीय श्रेष्ठता के
आवरण में बलात्कार का पर्व रचने पर मजबूर होती रही. गर्ज यह कि भारतीय दंड विधान
में जितने भी अपराध हो सकते हैं उन सबका समुच्चय बस्तर के कुरुक्षेत्र में आदिवासी
अस्तित्व को अपना शिकार बनाता रहा.
मध्यप्रदेश दुनिया के कई देशों तक से भौगोलिक दृष्टि से बड़ा रहा है. छत्तीसगढ़ की
कुदरत ने रचना इस तरह की कि वह बाकी मध्यप्रदेश के सांस्कृतिक हिस्सों से पूरी तौर
पर समरस नहीं हो पाया और अपने अनोखेपन के साथ जीता रहा. छत्तीसगढ़ के निर्माण के लिए
एक लंबे समय से आंदोलन की पृष्ठभूमि रही है. फिर भी यहां कोई रामलू नहीं हुआ जिसके
कारण आंध्रप्रदेश का निर्माण करना पड़ा.
दोनों बड़ी पार्टियों की सहमति से बना छत्तीसगढ़ मोटे तौर पर ऐसी जगह नहीं है जहां
देश के अन्य राज्यों की तरह आपसी वैमनस्य और हिंसक तनाव का सामाजिक लक्षण है.
दुनिया जिस भविष्य को अपने जीने के लिए तलाश रही है वह वर्तमान बनकर छत्तीसगढ़ में
वर्षों से मौसम की तरह उगता रहता है. छत्तीसगढ़ में रहना मनुष्यता से दैनिक
साक्षात्कार करना है. इस अद्भुत सांस्कृतिक वातावरण में उन संकुल प्रदेशों के लोग
यहां आकर बस गए जिन्होंने संस्कृति के अर्थ के बदले अर्थ की संस्कृति का एक शोषक
हथियार के रूप में इस्तेमाल किया. ये लोग उद्योग, व्यापार, सरकारी नौकरियों और
राजनीति में छा गए.
बस्तर जैसा अद्भुत आदिवासी संस्कृति का इलाका उनके हत्थे चढ़ गया जो मनुष्य को अपने
शोषण का मकसद समझते हैं. पटवारी से लेकर कलेक्टर तक, शराब ठेकेदार से लेकर
उद्योगपति तक, हवलदार से लेकर पुलिस कप्तान तक, पंच से लेकर मंत्री तक बस्तर जैसे
इलाकों के लिए जमींदार, रायबहादुर या खान बहादुर की तरह आचरण करते रहे. भू राजस्व
संहिता में हर वर्ष संशोधन हुआ लेकिन वनवासियों को उस भूमि का पट्टा नहीं मिला जिस
पर वे पुश्तैनी रूप से काबिज हैं.
नदियों और झीलों के स्त्रोतों पर सदियों से चला आ रहा अधिकार यक-ब-यक सिंचाई मैनुअल
के आधार पर उद्योगों को प्राथमिकता देता रहा. जंगल कटते गए और वनवासी जंगली समझे
गए. सफेदपोश शोषक और उनके आदिवासी मुखौटे सभ्य कहलाते रहे. अकूत खनिज और वन संपदाएं
लूटी गईं लेकिन कोई नहीं बताता कि बस्तर में इन्कम टैक्स के आधार पर पिछले 50
वर्षों में कौन कौन से गैर आदिवासी जागीरदार जुगलबंदी कर रहे हैं. राजनीतिक
पार्टियों के संगठन अध्यक्ष और प्रतिनिधियों में आदिवासियों का प्रतिशत यदि गिरता
गया तो उनका राष्ट्रीय नेतृत्व क्या कर रहा था?
ऐसा नहीं है कि विश्व की इस श्रेष्ठतम आदिवासी संस्कृति से केवल खलनायकों ने सहकार
किया है. ग्रियर्सन, फादर वेरियर एल्विन, नरोन्हा और ब्रम्हदेव शर्मा जैसे अनेक
शासक, विचारक और संस्कृतिकर्मी हुए हैं जिन्होंने बस्तर की संस्कृति की पवित्रता को
बचाए रखने और अभिवृध्दि करने की पुरजोर कोशिशें की हैं. पाइन परियोजना को खुद
इंदिरा गांधी ने रद्द किया. हवाई जहाज के बिगड़ जाने पर बचेली में काफी देर तक रुके
प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने आदिवासियों से हमजोली की शक्ल में सार्थक संवाद किया.
नारायणपुर के रामकृष्ण मिशन का स्कूल एक संस्था नहीं, सांस्कृतिक घटना है. अनेक
छोटे बड़े बुध्दिजीवी हुए हैं जिन्होंने बस्तर को हिन्दुस्तान के विचार के मुख्य
जनपथ पर चलाते रहने की कोशिशें की हैं. शानी, मेहरुन्निसा परवेज़, किरीट दोषी, लाला
जगदलपुरी, सुंदरलाल त्रिपाठी, बसंत अवस्थी जैसे लेखक और पत्रकार हुए हैं जिन्होंने
अपने सीमित साधनों के बावजूद बस्तर की अकूत सेवा की है.
सरकारों में सभी विधायक और मंत्री संवेदनहीन नहीं होते हैं, अन्यथा राज्य व्यवस्था
पहले ही चरण में चटख जाती है. ऐसे महत्वपूर्ण व्यक्तियों का भी योगदान बस्तर की
ध्यानाकर्षण मुहिम को लेकर रहा है. लेकिन बस्तर नायक या नायिका प्रधान जनवादी फिल्म
नहीं है. यहां खलनायकी का इतना रिहर्सल हुआ है कि उसे पीठ पर छुरा मारने का
विश्वविद्यालय कहा जा सकता है. प्रवीरचंद्र भंजदेव ने ऐसा कुछ नहीं किया था कि उनका
पुलिसिया वध किया जाता. अरविंद नेताम ने छठी अनुसूची को लागू करने की मांग में ऐसा
कोई गुनाह नहीं किया था कि उन पर हमले किए जाते. ब्रम्हदेव शर्मा ने औद्योगीकरण के
बरक्स आदिवासी अधिकारों की यदि वकालत की थी तो उन्हें जूतों की माला पहनाकर सरेआम
निर्वस्त्र किया जाकर जगदलपुर की सड़कों पर घुमाने से औद्योगिक फासीवाद का खूंखार
चेहरा आज भी टर्राता नज़र आता है.
प्यादे से फरजी बनने वाले अनगिनत नामालूम सरकारी कर्मचारी बस्तर के लुटेरों के
पैरोकार बने रहे हैं. इतिहास को उनके नाम तो याद नहीं रहेंगे लेकिन उनकी करतूतें
याद कर इतिहास टीसता रहेगा. मीडिया ने भी शुरुआती वर्षों में कुछ अपवादों को छोड़कर
सरकारी विज्ञापनों और संसाधनों के जरिए अपने महान नैतिक कर्तव्यों का संपादन करने
में अपना भविष्य देखा है.
वे धीरे धीरे अंग्रेजी भाषा में बनी बिकाऊ फिल्मों, चिकने आर्ट पेपर पर छपी बस्तर
बालाओं के अर्ध नग्न देहयुक्त विवरणों और बस्तर की प्राकृतिक छटाओं जिनमें चित्रकोट
जलप्रपात और कुटुमसर की गुफाएं शामिल हैं, के प्रायोजक, प्रोत्साहक और निर्यातक बने
रहे. कुल मिलाकर यही वह मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि रही है जिसने नक्सलवादियों को
अनाहूत आमंत्रण दिया.
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ढीले ढाले और भारी भरकम तत्कालीन मध्यप्रदेश और बिहार तथा मौजूदा आंध्रप्रदेश और
महाराष्ट्र के वन प्रांतर उड़ीसा को भी मिलाकर एक ऐसा आदिवासी गलियारा बनाते हैं जो
घने जंगलों के कारण नागरी सभ्यता की उपेक्षा और अत्याचार का कारण बनता रहा है. भाषा
बोली के ऊपर श्रेष्ठ होती है इसलिए महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश और उड़ीसा से सटी पूर्व
बस्तर जिले की सरहदों में इन प्रदेशों के नक्सलवादी बेहतर संगठन के आधार पर
छत्तीसगढ़ में छा गए.
झारखंड और छत्तीसगढ़ इतिहास में श्रेष्ठ और सत्तासीन राजनयिकों के उपेक्षापूर्ण
व्यवहार की वजह से जन्मे हैं. सत्ता का केन्द्र भोपाल से रायपुर तो आया लेकिन वह
अपने साथ शासनतंत्र के वे सब वायरस भी ले आया जो सुदूर आदिवासी बस्तर और सरगुजा
जिले के आदिवासियों के लिए लाइलाज मर्ज की तरह देह का दोष धरे हैं. नक्सलवाद
प्रतिक्रियावादी नहीं है बल्कि वह क्रिया की प्रतिक्रिया है.
यह कभी नहीं हुआ कि जनता और पुलिस एक साथ
मिलकर शांति मार्च करें और अपने कारवां में शरीक करने के लिए सरकारी दबाव के चलते
गांव के गांव खाली कराए जाएं जिससे हज़ारों आदिवासी मिलकर नक्सलवादियों के मुकाबले
फिदायीन दस्ते में तब्दील होते जाएं. |
यदि राज्यतंत्र ठीक ठाक सलूक करे तो नक्सलवाद के पनपने की गुंजाइश नहीं होती. यदि
जंगलों का भूगोल साथ नहीं दे, तब नक्सलवाद को भी पसरने का अवसर नहीं मिलता. यदि
जातीय समरसता का समाज उग आता तब भी नक्सलवाद की थ्योरी आदिवासियों को घुट्टी की तरह
नहीं पिलाई जा सकती थी. यदि सरकारें आज भी अपनी देह से भ्रष्टाचार, उद्योगपोषिता,
अपराधिक तेवर और नौकरशाही पर नियंत्रण कस लें, तो नक्सलवाद को तार्किक उत्तर दिया
जा सकता है. लेकिन सरकारें ऐसा कर कहां पाती हैं?
छत्तीसगढ़ की नक्सल समस्या को सुलझाने में विगत 3 वर्षों में एक नया प्रयोग किया गया
है जिसका नाम है 'सलवा जुडूम' अर्थात शांति मार्च. शुरुआत में यह प्रचारित किया गया
कि यह बस्तर के नागरिकों और विशेषकर आदिवासियों द्वारा चलाया जा रहा स्वत: स्फूर्त
आंदोलन है. धीरे धीरे इस आंदोलन को राज्य शासन ने अपने संरक्षण में ले लिया. अब वह
पूरी तरह राज्य नियंत्रित प्रयोग और प्रकल्प बनकर रह गया है.
इस प्रयोग के अंतर्गत लगभग 50-60 हजार (सरकारी आंकड़ों के अनुसार) से लेकर 1 लाख से
अधिक (अशासकीय आंकड़ों के अनुसार) आदिवासी भाई और बहन बच्चों सहित अपना सब कुछ खोकर
इन कथित सलवा जुडूम शरणार्थी शिविरों में जीवन-यापन कर रहे हैं. कुछ लोगों को यह भी
लगता है कि ये शरणार्थी शिविर स्थायी प्रकृति के हो जाएंगे क्योंकि इनमें निवास कर
रहे आदिवासियों के लिए अपने घरों की ओर लौटने के रास्ते लगभग बंद हो चुके हैं. उनकी
भूमियों पर खेती करने की संभावनाएं खत्म हो गई हैं और पशु पक्षी छिन गए हैं. उनके
घर पूरी तौर पर उजाड़ दिए गए हैं और वापस लौटने पर नक्सलवादी हमलों का सामना करने की
चुनौतियां उपस्थित रहेंगी.
सरकार और सलवा जुडूम समर्थकों का यह तर्क है कि यह स्वेच्छया आंदोलन है. यह सरकार
का संवैधानिक अधिकार और दायित्व है कि वह नागरिकों को हर तरह की सुरक्षा मुहैया
कराए. सलवा जुडूम से अलग हटकर इन नागरिकों का कोई सुरक्षित ठौर ठिकाना नहीं है और
ऐसी स्थिति में उन्हें नक्सलवादियों के रहमोकरम पर छोड़ा नहीं जा सकता. सरकार और
सलवा जुडूम का यह भी तर्क है कि आदिवासियों को सामाजिक राजनीतिक और आर्थिक आधार पर
बेहतर जीवन यापन का अधिकार है और यह सलवा जुडूम जैसे जन आंदोलन के माध्यम से ही
संभव है. इन शरणार्थी शिविरों में आदिवासी परिवार के बच्चों के अध्ययन और शिक्षण
आदि का दावा भी सरकार द्वारा किया जाता है.
सलवा जुड़ूम अर्थात शांति मार्च इक्कीसवीं सदी के ताज़ा इतिहास की कई अर्थों में लगभग
सबसे बड़ी त्रासदी है. यह पहली बार हुआ है जब 'भई गति सांप छछूंदर केरी' नामक
लोकोक्ति की कील सरकारी तौर पर जनता की छाती पर ठोकी जा रही है. यह कभी नहीं हुआ कि
जनता और पुलिस एक साथ मिलकर शांति मार्च करें और अपने कारवां में शरीक करने के लिए
सरकारी दबाव के चलते गांव के गांव खाली कराए जाएं जिससे हज़ारों आदिवासी मिलकर
नक्सलवादियों के मुकाबले फिदायीन दस्ते में तब्दील होते जाएं. जापानी हाराकिरी
आतंकवादियों के लिए आत्मघाती दस्ते गठित करने में मूलमंत्र की तरह काम आ रहा है.
लेकिन राजनीतिक घटनाक्रम के इतिहास में सलवा जुड़ूम राज्यतंत्र की खलनायकी का पहला
उदाहरण बनकर भविष्य के शासकों को सामूहिक हिंसा के नए आयाम ढूंढ़ने में प्रेरणा देता
रहेगा.
देश की आदिवासी संस्कृति के शिखर के रूप में विख्यात बस्तर के आदिवासी भाई और बहन
एक ऐसे मानव वध-अभियान के शिकार बनते जा रहे हैं जिसमें दोनों ओर से चलने वाली
गोलियां या तो छाती पर लगेंगी अथवा पीठ पर. कटना तो निश्चित है तरबूज का. छुरियां
तो इतिहास में खून पीती हैं और हंसती रहती हैं.
बस्तर में नक्सलवाद से निपटने के सरकारी उपक्रम और प्रयत्न असफल ही असफल होते रहे
हैं अथवा या बहुत धीरे मिलने वाली सफलता के आसार हैं. सरकारों की दुर्भाग्यजनक
असफलता के बावजूद यह एक सभ्य शताब्दी में समझ नहीं आता कि बस्तर और सरगुजा के स्कूल
भवनों को बारूद या बम से क्यों उड़ाया जा रहा है. अस्पतालों और आदिवासी जीवन को
सहायता देने वाले माध्यमों को बरबाद क्यों किया जा रहा है. पूरे बस्तर को बार-बार
बिजली काटकर अंधेरे में रहने की गैर मानवीय स्थितियां क्यों कायम की जा रही हैं.
निर्दोष नागरिकों को मोटर गाड़ियों से उतारकर गोलियों से भूंजना नक्सलवाद का कैसा
ककहरा है. यह किसने अधिकार दिया कि नक्सलवादी किसी भी आदिवासी भाई या बहन को खुद
पुलिस का मुखबिर घोषित करें और सरेआम उसकी लाश को चौराहे पर लटका दें. गांव के गांव
नक्सलवाद के भय और सरकार की विफलता के सलवा जुडूम बनकर खाली हो रहे हैं. यदि यही
हाल कायम रहा तो दुनिया की सबसे समृध्द आदिवासी संस्कृति और लोककलाओं के क्षरण और
विलोप का खतरा बढ़ता जाएगा.
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21.10.2008, 05.34 (GMT+05:30)
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| इस समाचार / लेख पर पाठकों की प्रतिक्रियाएँ | |
| Gautam Chourdiya (gchourdiya@gmail.com) Bilaspur | | | आज तक हमने या तो नक्सलवाद को कोसा है या सलवा जुड़ूम को... ऐसा कोई साथी नहीं नजर आता, जिसने दोनों के दिल का दर्द समझा हो.
चाहे दीवार कितनी भी ऊंची हो या दरवाज़ा कितना भी मजबूत हो, दिल में चाह हो तो राह निकल आती है. लेकिन किसी के दिल में ऐसी आग से निकलने की चाह नहीं है क्योंकि सभी इस आग से अपनी अपनी रोटियां सेक रहे हैं.
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| shrimati neelima nishad (nishadneelima@ymail.com) Raipur | | | भारत को आज़ादी अभी तक नहीं मिली. बस्तर का भोलेभाले लोगों को आज भी किसी न किसी रुप में शोषण हो रहा है. क्या अगली सरकार कुछ नहीं कर पाएगी ? | | | | |
| रुद्र अवस्थी बिलासपुर | | | छूरियां तो इतिहास में खून पीती हैं और हंसती हैं.यही पूरी व्यवस्था या कहें अव्यवस्था का निचोड़ है. लेकिन ऐसी छूरी को बोथरा करने के लिए कोई उपाय खोजा जाना चाहिए, तभी मसले का हल निकल सकता है.-रुद्र अवस्थी, बिलासपुर | | | | |
| Prof. Shailesh Zaidi (shaileshzaidi@gmail.com) AIGARH,UP | | | गंभीर और विचारोत्तेजक. | | | | |
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