Ajay TG | Interview with alok putul
संवाद
मेरी गिरफ्तारी लोकतंत्र की असफलता है-अजय टी
जी
देश में सर्वाधिक नक्सल प्रभावित छत्तीसगढ़
में माओवादी होने का आरोप लगाकर गिरफ्तार किए गए फ़िल्मकार अजय टी जी का मानना है
कि उनके खिलाफ राजनीतिक इशारों पर कार्रवाई हुई है. छत्तीसगढ़ में लोक स्वातंत्र्य
संगठन यानी पीयूसीएल के महासचिव विनायक सेन मानवाधिकार की आड़ में माओवादी
गतिविधियां चलाने के आरोप में पहले से ही जेल में हैं. अजय टी जी पिछले कुछ सालों
से विनायक सेन के साथ मानवाधिकार के मुद्दे पर काम कर रहे हैं. अजय का कहना है कि
विनायक सेन के साथ काम करने के कारण उन्हें निशाना बनाया गया. पोटा और टाडा के
समकक्ष माने जाने वाले छत्तीसगढ़ जनसुरक्षा कानून के तहत गिरफ्तार किए गए अजय को
कुछ दिन पहले ही जमानत पर रिहा किया गया है.
आलोक प्रकाश पुतल
ने उनसे लंबी बातचीत की. यहां पेश है, उस बातचीत के अंश.
पुलिस का आरोप है कि आप नक्सली हैं, नक्सलियों के समर्थक
हैं.
मैं अपनी पूरी जिंदगी में कभी भी नक्सलियों का समर्थक नहीं
रहा. न कभी नक्सली रहा क्योंकि मैं कम्युनिस्ट हूं. मैं भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी
का सदस्य रहा हूं और ये बात बहुत स्पष्ट है कि भाकपा और नक्सलियों के बीच गहरे
मतभेद रहे हैं. यहां तक कि नक्सलियों ने बस्तर समेत देश के कई स्थानों पर भाकपा
कार्यकर्ताओं की हत्या भी की है. इसलिए ये आरोप एकदम गलत है, एकदम झूठ है.
सिद्धांततः मैं किसी भी प्रकार की हत्या के खिलाफ हूं. किसी भी निर्दोष की हत्या के
खिलाफ हूं. मेरे नक्सली होने के पक्ष में पुलिस के पास या किसी के भी पास कोई
प्रमाण नहीं है, प्रमाण हो भी नहीं सकता.
पुलिस का दावा है कि आपके नक्सलियों से
दोस्ताना पत्र-व्यवहार रहे हैं. कुछ बड़े नक्सली नेताओं के घर से आपकी चिट्ठी भी
मिली है. कहा जाता है कि बस्तर में विनायक सेन, नंदनी सुंदर और आपके द्वारा किसी
दौरे के समय भूलवश स्थानीय नक्सलियों द्वारा आपका कैमरा जब्त कर लिया गया था, जिसके
मुआवजे या कैमरे के लिए भी आपने किसी नक्सली नेता को कोई चिट्ठी लिखी ?
ये पूरी बात भ्रामक है. मेरी जानकारी में ये बात नहीं है कि
मैंने कोई चिट्ठी लिखी है. हां, मेरी जमानत के समय जरुर ये कहा गया कि मेरे द्वारा
लिखी गई कोई चिट्ठी किसी नक्सली नेता के घर से बरामद हुई है लेकिन न तो उसे कोर्ट
में प्रस्तुत किया गया और न ही मुझे या मेरे वकील को वह कथित चिट्ठी ही दिखाई गई.
यहां तक कि मेरे खिलाफ सरकार द्वारा पेश किए गए किसी दस्तावेज़ में भी वह कथित
चिट्ठी शामिल नहीं है.
फिर पुलिस ने आपको निशाना क्यों बनाया ?
मुझे निशाना बनाने का कारण एकदम स्पष्ट है. जो दिखता है, उससे
साफ समझ में आता है कि पुलिस छत्तीसगढ़ में पीयूसीएल को खत्म करना चाहती थी. मैं
क्योंकि पीयूसीएल के सचिव विनायक सेन के मामले में गवाह हूं और विनायक सेन के मामले
में लगातार कोर्ट जाता रहा हूं, इसलिए मैं निशाने पर रहा.
मुझे इतने सालों में एक बार के लिए भी, कभी ऐसा नहीं लगा कि
विनायक सेन के नक्सलियों से संबंध हैं या वो नक्सली हैं. मैं स्वाभाविक रुप से उनके
पास जाता था. सिर्फ और सिर्फ यही कारण है. विनायक सेन के मुकदमे में चार दिन के
ट्रायल शुरु होने के ठीक दूसरे दिन मुझे गिरफ्तार कर लिया गया. ये एकदम स्पष्ट है
कि मेरी गिरफ्तारी पूरी तरह से पॉलिटकली मोटिवेट हो कर की गई थी.
पुलिस विनायक सेन को माओवादी बताती है और आप
उनके साथ काम करते रहे हैं. आपने तो विनायक सेन पर फिल्म भी बनाई हैं ?
हां. मैने विनायक सेन को जैसा देखा, मैंने विनायक सेन को
जितना समझा उस पर मैंने अंजाम नाम से फिल्म बनाई.
आप पहले भी फिल्में बनाते रहे हैं….
मेरी फिल्में मूल रुप से समाज में, व्यवस्था में बदलाव की
मांग करने वाली फिल्में हैं. मैं उसी तरह की फिल्में बनाता रहा हूं. इमेजेज इन सोशल
चेंजेस. समाजशास्त्र से संबंधित फिल्में बनाता रहा हूं, जिसमें मेरी गहरी दिलचस्पी
है.
कुछ फिल्में मैंने ताज़ा संदर्भों पर भी बनाई हैं. ताजा मामला एक फैक्ट फाइंडिंग
फिल्म का था- जिरमतराई. इस फिल्म कम रिपोर्ट में यह दिखाया गया था कि पुलिस ने
नक्सल प्रभावित बस्तर में किस तरह तीन किसानों को गोली मार दी और नक्सलियों पर उनकी
हत्या का आरोप लगा दिया.
इसी तरह एक फिल्म का मैंने संपादन किया, जो बस्तर के गोलापल्ली में पुलिस के फर्जी
मुठभेड़ पर है. पुलिस ने तीन शिक्षक और एक विद्यार्थी समेत चार लोगों को गोली मार
दी. बाद में एक शिक्षक जिंदा बच गया और उसने यह राज खोला कि उन्हें पुलिस ने गोली
मारी थी.
इसके अलावा छत्तीसगढ़ के अंबिकापुर में एक महिला लेधा के पति को नक्सली होने के
आरोप में फर्जी मुठभेड़ में मार डालने और बाद में उस महिला के साथ पुलिस द्वारा किए
गए अत्याचार को मैंने दर्ज किया.
राज्य और देश में मानवाधिकार के हनन की घटनाओं को लेकर मैं लगातार फिल्में बनाता
रहा हूं. मैं मानता हूं कि बहुत सारी महत्वपूर्ण खबरें कई-कई कारणों से मुख्यधारा
की मीडिया में नहीं आ पातीं. इसके ठीक उलट कई खबरों को अनावश्यक रुप से काल्पनिक
विस्तार देकर प्रकाशित-प्रसारित किया जाता है और सच इसके पीछे छुप जाता है. ऐसे में
मुझे हमेशा लगता है कि कोई तो ऐसे प्रताड़ित लोगों की आवाज़ उठाने वाला हो. इनकी
बात लोगों तक पहुंचाने की कोशिश होनी चाहिए. ऐसे में आप कह सकते हैं कि फिल्म मेरे
लिए वैकल्पिक माध्यम की तरह है.
आज तक मैंने जितनी भी फिल्में बनाई हैं, किसी दबाव या प्रलोभन में नहीं बनाई है. जो
मुझे रुचता है, मैं उस विषय पर काम करता हूं.
आपकी इन फ़िल्मों के लिए आय के स्रोत क्या
हैं ? पुलिस का तो आरोप है कि आपको फ़िल्म निर्माण के लिए माओवादियों से मदद मिलती
है.
मैंने आज तक कोई भी ऐसी फिल्म नहीं बनाई है, जिसमें कोई खास
खर्च हुआ हो. मेरे पास जो कैमरा है, वो मुझे फ़िल्मकार मार्ग्रेट डिकिंशन ने उपहार
दिया था. मैं कैमरा से लेकर संपादन तक का काम खुद करता हूं. मेरी पत्नी शोभा भी
फ़िल्म संपादक हैं. मैं वही काम करता हूं, जिसे वहन कर सकूं. मेरे पास फिल्म संपादन
के जो साधन हैं, वो भी मित्रों से उधार ले कर खरीदे हुए हैं.
फ़िल्म के अलावा ?
लंदन स्कूल ऑफ इकानामिक्स के प्रोफेसर जोनाथन पैरी के सहयोगी
के बतौर मैं 1993 से सोशल एंथ्रोपोलॉजी विषयक अध्ययन में मदद कर रहा हूं. भारतीय
समाज में खास तौर पर जातीय संबंधों में औद्योगीकरण का प्रभाव किस तरह पड़ा है, मैं
उन्हीं आधारभूत तत्वों को देख-परख रहा हूं. संभवतः 1-2 सालों में यह अध्ययन पूरा हो
जाएगा.
आपके खिलाफ आरोप क्या-क्या है ?
ये भी दिलचस्प है. मेरे खिलाफ आज तक कोई एफआईआर दर्ज नहीं है.
मेरी गिरफ्तारी के वक्त या जेल भेजने से पहले भी मुझे नहीं बताया गया कि मेरे खिलाफ
आरोप क्या हैं. सच तो ये है कि मैं आज तक ये बात नहीं जान पाया. मुझे विशेष
जनसुरक्षा कानून के तहत गिरफ्तार किया गया था, ये मुझे जेल परेड में पता चली.
मानवाधिकार के जिस मुद्दे पर आप काम करते रहे
हैं, क्या कभी आपको लगा था कि राज्य सरकार आपको प्रताड़ित कर सकती है या आपको
नक्सली बताया जा सकता है ?
मेरी गिरफ्तारी तक कभी भी मुझे नहीं लगा कि मेरे साथ कभी ऐसा
कुछ हो सकता है.
मैंने कभी भी किसी भी तरह के गैरकानूनी काम नहीं किए. असंवैधानिक काम करने की मैं
सोच भी नहीं सकता था. ऐसे में मैं इस ओर से लापरवाह था क्योंकि मैं एक लोकतांत्रिक
देश का नागरिक हूं और कभी सोचा भी नहीं कि मेरे साथ ऐसा हो सकता है.
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विनायक सेन या पीयूसीएल के साथ मेरे संबंध भी किसी से छुपे हुए नहीं थे और न ही ऐसा
करने की मुझे कोई ज़रुरत थी. मैंने ऐसा कोई काम किया ही नहीं था कि मुझे लगे कि
मुझे कानूनी रुप से डरना चाहिए. हां, विनायक सेन की गिरफ्तारी के बाद और मेरे घर पर
पुलिस की छापेमारी के बाद मुझे ये तो आभास था कि पुलिस वाले चाहें तो कुछ भी कर
सकते हैं. लेकिन इतने पर भी मुझे भरोसा था कि मेरे साथ कुछ भी ऐसा-वैसा नहीं होगा.
मुझे कई बार हंसी आती है. मेरे पीछे पुलिस ने तहकिकात के नाम पर जाने कितने पैसे
खर्च कर डाले. और ये सब तब हुआ, जब पुलिस के पास 1981-82 से मेरे बारे में तमाम
जानकारियां थीं. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य बनने के साथ ही भिलाई पुलिस ने
मेरी एक फाइल तैयार कर ली थी और उन्हें मेरे हरेक काम की जानकारी थी. लोकल
इंटलिजेंसी के पास मुझसे संबंधित तमाम जानकारियां थीं क्योंकि फिल्मों के सिलसिले
में राज्य, देश और देश से बाहर जाने और देश और दुनिया भर के लोगों के मुझसे संपर्क
के कारण उनके लिए मुझसे संबंधित जानकारियां रखना जरुरी था. कई दफा तो ये मुझसे भी
मेरे काम की जानकारियां लेते रहे हैं. इसके बाद भी उन्होंने राजनीति से प्रेरित हो
कर मुझे नक्सली बताने की कोशिश की, मुझे जेल भेजा, छत्तीसगढ़ जनसुरक्षा कानून में
मुझे सड़ाने की कोशिश की.
आज पुलिस कहती है कि अजय टी जी की गिरफ्तारी टेक्नीकल मिस्टेक है. मेरे लिए यह
चौंकाने वाली बात लगती है कि क्या देश की पुलिस व्यवस्था इसी तरह काम करती है. इतनी
कमजोर, इतनी बेबस और इतनी लापरवाह...! मैं मानता हूं कि मेरी गिरफ्तारी राजनीति
प्रेरित है और बाकी तो सब बहाना है. रही बात मानवाधिकार की तो मानवाधिकार मेरे लिए
केवल पुलिस, नक्सलियों और आतंकवादियों से जुड़ा मुद्दा नहीं है. किसी बच्चे को अगर
खाना नहीं मिल रहा है, उसके लिए शिक्षा की व्यवस्था नहीं हो रही है, किसी को दवा
नहीं मिल रही है तो ये सब मानवाधिकार का हिस्सा है और मैं इन मुद्दों पर लगातार काम
कर रहा हूं.
एक लोकतांत्रिक देश में...
किस लोकतंत्र की बात कर रहे हैं ? भारत में लोकतंत्र खतरे में
है. लोकतंत्र शब्द का जब आप इस्तेमाल करते हैं तो उसका एक व्यापक अर्थ है. लेकिन
अगर आपकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ही खत्म कर दी जाए तो इस लोकतंत्र का भविष्य
क्या होगा. छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ से बाहर भी जिस तरह के दमनकारी कानून बनाए गए
हैं, उसने लोकतंत्र को कटघरे में खड़ा कर दिया है. मेरे लिए यह विश्वास करना
मुश्किल है कि भारत में लोकतंत्र है.
यह लोकतंत्र ही तो है कि आपकी गिरफ्तारी और
जनसुरक्षा कानून के बाद भी आपको जमानत मिलती है. आपकी जय होती है...
सवाल जय-पराजय का नहीं है. एकदम स्पष्ट है कि मैं जेल में था
तो यह मेरी कमजोरी नहीं थी, मेरी गलती नहीं थी. यह पूरे सिस्टम की जिम्मेवारी से
जुड़ा हुआ सवाल है. एक आदमी, जो हर तरह के आतंक के खिलाफ है, उसे ऐसे कानून में जेल
भेजा जाता है, जो आतंकवादियों को खत्म करने के नाम पर बनाया गया है. यह पूरे
सिस्टम, पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था में आम जन की आस्था का माखौल है, यह उसका अपमान
है. यह लोकतंत्र की असफलता है.
अपने जेल के दिनों को किस तरह याद करना
चाहेंगे ?
नक्सली होने के आरोप में मैं जैसे ही जेल गया, मेरे परिवार के
साथ पड़ोसियों ने बात करना बंद कर दिया. अखबारों में पुलिस के बयान इस तरह छपते रहे
कि लोगों ने मेरे घर आना-जाना बंद कर दिया. मेरी पत्नी अकेले इन सबका मुकाबला करती
रही. आज भी कई लोग मुझे देखते हैं तो कन्नी काट जाते हैं.
मैंने जेल में 93 दिन बिताए. दुर्ग सेंट्रल जेल में. जेल के जिस बैरक में मुझे पहले
दिन रखा गया, उसकी क्षमता 40 लोगों की थी लेकिन मैं उस बैरक में दाखिल होने वाला
105वां आदमी था. बाद में मुझे 5 नंबर बैरक में शिफ्ट किया गया, जिसमें 20 लोगों की
क्षमता थी और वहां हमेशा 55 लोग और कभी-कभी तो 65 लोगों को भी कैद करके रखा जाता
था. 250 लोग एक टेप से नहाते थे, गरमी के दिन में. तो आप जेल के मेरे दिनों की
कल्पना कर सकते हैं.
आपको तो नक्सलियों का थिंक टैंक, उनका मीडिया
सलाहकार, उनका प्रवक्ता भी बताया गया. तो क्या जेल में आपको विशेष सुरक्षा व्यवस्था
के तहत नहीं रखा जाता था ?
ये बहुत दिलचस्प है. मुझे हंसी भी आती है. मुझे बैरक में
हमेशा भीड़ में रखा गया. बेहद खतरनाक अपराधियों के साथ. लेकिन जब कभी मुझे कोर्ट
लाया जाता था तो मुझे कोर्ट के लॉकअप में विशेष सुरक्षा के साथ अलग-थलग रखा जाता
था. यानी सार्वजनिक तौर पर जब भी मुझे पेश किया गया तो मुझे खौफनाक बंदी के रुप में
पेश किया गया. मुझे सबसे ज्यादा आपत्ति इस बात पर थी कि मुझे हमेशा जेल में नक्सली
कैदी के रुप में प्रचारित किया गया. यहां तक कि मेरे कोर्ट वारंट में भी नक्सली अजय
टी जी दर्ज होता था.
03.11.2008,
08.10 (GMT+05:30) पर प्रकाशित